Monday, March 8, 2021

शिव जी के सिर पर चंद्रमा होने का रहस्य

भगवान शिव का चित्र जब हम देखते हैं तो उनके हर चित्र में उनके मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान रहता है। यही कारण है कि शिव का एक नाम शशिधर भी है। शशि अर्थात चंद्रमा को धारण करने वाले। अब प्रश्न उठता है कि आखिर शिव जी ने मस्तक पर चंद्रमा को क्यों और कैसे धारण किया। इस बारे में एक सर्वाधिक प्रचलित कथा यह है कि जब समुद्र मंथन से हलाहल अर्थात विष निकला और उससे सारे जीव-जंतुओं पर संकट उत्पन्न होने की आशंका हुई तो देवताओं ने देवाधिदेव शिव से प्रार्थना की कि वे इस हलाहल को पीकर पृथ्वी के जीवों की रक्षा करें। शिव ने देवताओं की विनती सुन कर विषपान तो कर लिया लेकिन जब भगवान शंकर विष के तीव्र प्रभाव को सहन नहीं कर पाये तब देवताओं ने उनसे आग्रह किया की वे मस्तक पर चंद्रमा को धारण कर लें इससे विष के तीव्र प्रभाव का शमन होगा। देवताओं के आग्रह को स्वीकार करते हुए शंकर भगवान ने अपने सिर पर चंद्रमा को धारण कर लिया। इससे विष के प्रभाव की तीव्रता धीरे –धीरे कम होने लगी। ऐसी मान्यता है बस तभी से चंद्रमा शिव के सिर पर शोभायमान है।

शिव जी अर्धचन्द्र को आभूषण की तरह अपनी जटा में धारण करते हैं। यही कारण है कि उनको चंद्रशेखर या सोम भी कहा जाता है। शिव पुराण की एक कथा के अनुसार धरती के विस्तार और इस पर विविध प्रकार के जीवन निर्माण के लिए देवताओं के भी देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने लीला रची और उन्होंने देव तथा उनके भाई असुरों की शक्ति का उपयोग कर समुद्र मंथन कराया। समुद्र मंथन कराने के लिए पहले कारण निर्मित किया गया।

 दुर्वासा ऋषि ने अपना अपमान होने के कारण देवराज इन्द्र को श्रीहीन अर्थात लक्ष्मी से हीन हो जाने का श्राप दे दिया। भगवान विष्णु ने इंद्र को शाप मुक्ति के लिए असुरों के साथ समुद्र मंथन के लिए कहा और दैत्यों को अमृत का लालच दिया। इसके बाद हुआ समुद्र मंथन। देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन प्रारंभ किया। तब भगवान विष्णु ने कच्छप बनकर मंथन में भाग लिया। वे समुद्र के बीचोबीच में वे स्थिर रहे और उनके ऊपर मथानी के रूप में रखा गया मदरांचल पर्वत। वासुकी नाग की रस्सी बनायी गयी और एक तरफ देवता और दूसरी ओर से दैत्यों ने मिल कर मथानी चलाना शुरू किया। समुद्र का मंथन में अमृत ही नहीं और भी बहुत सी वस्तुएं निकलीं। इन वस्तुओं का देवताओं और असुरों में बराबर-बराबर बांट दिया गया। 

समुद्र मंथन से अमृत के अतिरिक्त धन्वन्तरी, कल्पवृक्ष, कौस्तुभ मणि, दिव्य शंख, वारुणी अर्थात मदिरा, पारिजात अर्थात हरसिंगार वृक्ष, चंद्रमा, अप्सराएं, उचौ:श्राव अश्व, हलाहल या विष और कामधेनु गाय भी प्राप्त हुई थी। इसके बाद अमृत पीने के लिए देवता और असुरों में युद्ध हो गया। भगवान् विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर स्वयं अमृत बांटना शुरू किया। उनकी मदद से देवताओं को अमृत प्राप्त हो सका। जब समुद्र मंथन किया गया था तो उसमें से हलाहल विष भी निकला था। जिससे पूरी सृष्टि की रक्षा के लिए स्वयं भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले उस विष का पान किया। मगर विष पीने के बाद उनका शरीर विष के प्रभाव से अत्यधिक गर्म होने लगा। आज आसमान में हम जो चंद्रमा देखते हैं वह समुद्र मंथन के दौरान उत्पन्न हुआ था। कहा यह भी जाता है कि देवताओं ने नहीं स्वयं चंद्रमा ने विषपान के बाद शिव के मस्तक पर हो रही जलन को देखते हुए उनसे प्रार्थना की थी कि वह उन्हें माथे पर धारण कर अपने शरीर को शीतलता प्रदान करें। ऐसे विष का प्रभाव भी कुछ कम हो जाएगा। ऐसी मान्यता है कि शिव जी पहले तो चंद्रमा के इस आग्रह को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्हें यह आशंका थी कि चंद्रमा श्वेत और शीतल होने के कारण उस विष की तीव्रता सहन नहीं कर पायेगा। बाद में जब देवताओं जब आग्रह किया तो शिव इसके लिए मान गए और उन्‍होंने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। ऐसी मान्यता है कि तभी से चंद्रमा भगवान शिव के मस्तक पर शोभायमान हैं और पूरी सृष्टि को अपनी शीतलता प्रदान कर रहे हैं। 

इससे जुड़ी एक अन्य पौराणिक कथा भी है। इस कथा के अनुसार, चंद्रमा को पुनः जीवित करने के लिए शिवजी ने अपने मस्तक पर उन्हें धारण किया।एक कथा ऐसी भी मिलती है जिसमें कहा गया है कि चंद्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ हुआ था जिसमें रोहिणी उनके सबसे समीप थीं। यह देख अन्य कन्याओं ने अपने पिता दक्ष से अपना दुख बताया तो राजा दक्ष ने चंद्रमा को शाप दे दिया। जिसके बाद क्षय रोग से ग्रस्त होने के कारण धीरे-धीरे चंद्रमा की कलाएं क्षीण होती गईं। चंद्रमा की यह स्थिति देख  नारदजी ने उन्हें भगवान शिव की आराधना करने को कहा।शिव जी ने प्रदोष काल में चंद्रमा को पुनः जीवित होने का वरदान दिया। जिससे चंद्रमा मृत्युतुल्य होते हुए भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए और फिर धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे और पूर्णमासी पर पूर्ण चंद्रमा के रूप में प्रकट हुए। इस तरह चंद्रमा को अपने सभी कष्टों से भगवान शिव की कृपा से मुक्ति मिली। 

भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्र दर्शन कलंक कारक माना जाता है। ऐसे में चंद्रमा को फल, मिष्ठान्न, दधि आदि समर्पित कर उनकी प्रार्थना करने पर दोषमुक्ति हो जाती है। इन श्लकों से करना चाहिए चंद्रमा की प्रार्थना- दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवं ।नमामि शशिनं भक्तया शम्भोर्मुकुटभूषणम्।।

तथा सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीः तवस्येषोस्यमन्तकः।।

कहते हैं कि चंद्रमा को कलंक मुक्त करने के लिए भगवान शिव ने अपने सिर पर धारण किया। तभी से भगवान शिव सोमनाथ कहलाये। सोम अर्थात चंद्रमा के नाथ।

चंद्रमा के 15 दिन तक क्षय होने के बाद के 15 दिन फिर पूर्ण होने के बारे में एक कथा और भी मिलती है जिसके अनुसार एक बार चंद्रमा ने भगवान गणेश के सूंड वाले स्वरूप को देख कर उनकी हंसी उड़ायी थी। इससे गणेश ने क्रोधित होकर चंद्रमा को क्षय यानी नष्ट हो जाने का श्राप दे दिया। चंद्रमा को तब अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने अपनी जान बचाने के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव ने चंद्रमा को अपने सिर पर धारण कर लिया इससे चंद्रमा के प्राण बच गये। बाद में चंद्रमा ने भगवान गणेश से क्षमा मांगी और गणेश ने उन्हें क्षमा कर दिया और  उसे श्राप मुक्त करते हुए कहा कि हर पक्ष में सिर्फ 15 दिन तुम्हारा क्षय हुआ करा करेगा। आगे के 15 दिन में तुम पूर्ण हो जाओगे। 

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