Wednesday, June 2, 2021

महर्षि अगस्त्य जो पी गये समुद्र,झुका दिया विंध्याचल पर्वत



भारत भूमि में ऐसे-ऐसे पहुंचे हुए प्रतापी ऋषि और महात्मा हुए हैं जिनकी ख्याति जग विख्यात है। वैदिक काल के ऋषियों के अतिरिक्त इस युग में भी कई सिद्ध महापुरुष और महात्मा हुए हैं जिनके प्रभाव को देश-विदेश के लोगों ने जाना और माना है। यहां हम प्राचीन काल के एक ऐसे प्रतापी ऋषि की गाथा सुनाने जा रहे हैं जिन्होंने समुद्र को पी लिया था और सूर्य का मार्ग रोकनेवाले विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था। हमारा आशय महर्षि अगस्त्य से है। इस कथा को प्रारंभ करने के पूर्व हम यह बता देना चाहेंगे कि हो सकता है कि कुछ बातें अतिशयोक्ति में कही गयी हों लेकिन तपस्चर्या के बल पर उस काल के ऋषि मुनियों ने असाध्य साधन किया था। किसी असंभव से लगने वाले प्रसंग पर दुराग्रह रखने या प्रकट करने के पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि क्या कभी मनुष्य ने यह सोचा था कि वह चंद्रमा पर कदम रख पाया था नहीं ना पर उसने ऐसा संभव कर के दिखा दिया।  आप कह सकते हैं कि ऐसा अंतरिक्ष विज्ञान की उपलब्धि के चलते हुआ है। तो हम कह सकते हैं कि उस वक्त भी विज्ञान काफी आगे था। प्रमाण हैं पुष्पक विमान जैसे विमान और युद्ध में प्रयुक्त ब्रह्मास्त्र जिन्हें ततकालीन परमाणु अस्त्र माना जा रहा है। ऋषि अगस्त्य के बारे में कहा जाता है कि वे वैज्ञानिक भी थे और विद्युत के आविष्कार का श्रेय उन्हें ही जाता है। आइए अब जानते हैं उनकी उत्पत्ति और उनके चमत्कारों की कहानी। 

महर्षि अगस्त्य वैदिक ॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थीं। अगस्त्य को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे। ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि अगस्त्य जी का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। वेदों में उनका वर्णन आया है। ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ-

"सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥"

इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है-"ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो 

शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥"

इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ।एक यज्ञ सत्र में उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। मित्र वरुण ने उसकी ओर देखा तो उनका अमोघ तेज  स्खलित हुआ और यज्ञ के पवित्र कलश  में एकत्र हो गया। उर्वशी ने उपहासात्मक मुस्कराहट बिखेर दी। मित्र वरुण बहुत लज्जित हुए। कुंभ का स्थान, जल तथा कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में स्खलित अमोघ तेज के चलते कुंभ से अगस्त्य, स्थल में वसिष्ठ तथा मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।

पुराणों में यह कथा है कि महर्षि अगस्त्य की पत्नी महान् पतिव्रता तथा श्रीविद्या की आचार्य थीं जो 'लोपामुद्रा' के नाम से प्रसिद्ध हुईं।  अगस्त्य ऋषि की कथा में इल्वल और वातापि दैत्यों का भी उल्लेख आता है। उनकी कथा ऋषि लोमश ने युधिष्ठर को इस प्रकार से सुनायी थी। लोमशजी ने कहा हे पांडु नन्दन ! पूर्वकाल की बात है। मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था उसका छोटा भाई था वातापि। एक दिन दिति पुत्र इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि हे भगवन! आप मुझे ऐसा पुत्र होने का वरदान दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो। उस ब्राह्मण देवता ने इल्वल का आग्रह स्वीकार नहीं किया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत क्रोधित हो गया। उसके बाद से वह इल्वल दैत्य क्रोध में भर कर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा।

 वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अत: वह क्षण भर में मेंढ़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पका कर उसका माँस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को  मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी  को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। हमेशा वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल उसके माँस को पकाता और किसी न किसी ब्राह्मण को वह  माँस खिलाकर, पुन: अपने भाई को पुकारा करता। राजन! इल्वल की आवाज़ सुनकर वह अत्यन्त मायावी महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हँसता हुआ निकल आता। इस प्रकार दुष्ट हृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मणों को भोजन करा कर, अपने भाई द्वारा उनकी हत्या करा देता था।

   जब वृत्तासुर के अत्याचार और आतंक से सभी देवता व अन्य प्राणी त्रस्त हो गये तो इंद्र ने दधीचि ऋषि से अस्थियां मांगीं ताकि राक्षस वृत्तासुर का वध किया जा सके। दधीचि ने सहर्ष अस्थियों का दान  कर दिया इसके बाद इंद्र ने बिना बिलम्ब किये अपने शक्तिशाली देवताओं सहित पृथ्वी और आकाश घेर कर खड़े हुए वृत्तासुर पर धावा बोल दिया, और देवता तथा दानवों में भयंकर युद्ध छिड़ गया, उस समय समस्त कालकेय आदि राक्षस गण वृत्तासुर की ओर से लड़े, देवता और ऋषियों के तेज से सम्पन्न इंद्र का बल बढ़ा हुआ देख वृत्तासुर ने बहुत भयानक हुँकार भरी, उसकी हुँकार से समस्त दिशाएं पृथ्वी और तीनों लोक कांप उठे, यहां तक कि इंद्र भी भयभीत हो गया, और उसने अपना बज्र छोड़ दिया, उस बज्र की चोट से वृत्तासुर प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, और वृत्तासुर की मृत्यु से दुखी कालकेय आदि राक्षस गण बचे हुए समस्त दैत्यों के साथ समुद्र में जा छुपे और वहां इकठ्ठा होकर तीनों लोकों के विनाश की योजना बनाने लगे। उन्होंने एक भयंकर उपाय सोचा कि समस्त लोकों की रक्षा तप से ही होती है अतः सबसे पहले तप का ही नाश करना चाहिए, इसलिए पृथ्वी पर जितने भी धर्मात्मा तपस्वी और पुण्य आत्मा है यदि उनका नाश कर दिया जाये तो समस्त लोक अपने आप ही नष्ट हो जाएंगे, ऐसा सोच कर वे रोज रात्रि के समय समुद्र से बाहर आते, और आस पास के आश्रम और तीर्थस्थानों में रहने वाले ऋषि मुनियों आदि को खा जाते और सुबह होते ही समुद्र में छिप जाते, उनका अत्याचार इतना बढ़ गया, कि पृथ्वी पर ऋषि मुनियों की हड्डियां नजर आने लगीं।

  इस प्रकार का नर संहार देखकर देवता अत्यंत दुखी हुये, और विष्णु जी के पास जाकर सारा हाल सुना कर बोले कि " भगवन बड़ी विपत्ति आन पड़ी है, पता नही कौन रात्रि के समय धर्मात्मा पुरुषों और ऋषि मुनियों का वध करता है, यदि ऐसे ही धर्मात्माओं और ऋषि मुनियों का वध होता रहा तो पृथ्वी समेत सभी लोको का नाश निश्चित है, प्रभु हमारा मार्ग दर्शन करें, और इस विपत्ति से बाहर निकाले।

     प्रार्थना सुनकर विष्णु जी बोले- हे देवगण मैं इस भयंकर उत्पात से भलीभाँति परिचित हूँ।

कालकेय नामक दैत्यों का एक भयंकर दल है, जो दिन भर तो समुद्र में छिपे रहते हैं, और रात्रि के समय संसार के विनाश हेतु वे बाहर निकल कर धर्मात्माओं और ऋषि मुनियों का वध करते हैं, है देवगण समुद्र में रहने के कारण तुम उनका वध नही कर सकते हो, इसलिए पहले समुद्र को सुखाने का उपाय सोचना चाहिए और समुद्र को सुखाने का सामर्थ्य महर्षि अगस्त्य के अलावा किसी में नहीं है।इसलिए आप सब पहले मुनि अगस्त्य को इस कार्य के लिए तैयार करो।  भगवान विष्णु की बात मान कर सभी देवता मुनि अगस्त्य के आश्रम में गये और उनसे विस्तार से अपने दुख का वर्णन कर सहायता करने की प्रार्थना की।

 उनकी विनती सुनकर अगस्त्य मुनि ने कहा कि- मैं इस संसार के कष्ट दूर करने के लिए तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा, तत्पश्चात वे सभी तपसिद्ध ऋषियों और देवताओं को साथ लेकर समुद्र के तट पर गए, और वहाँ उपस्थित ऋषियों और देवताओ से कहने लगे की " मैं समस्त संसार के हित के लिए इस समुद्र का पान करता हूँ।' और ऐसा कहकर मुनि अगस्त्य से समुद्र का सारा जल पी लिया,तब सभी देवता अपने दिव्य अस्त्रों के साथ कालकेय दैत्यों पर टूट पड़े, और भयंकर युद्ध छिड़ गया। लेकिन पवित्र आत्मा मुनियों के तप के कारण सभी दैत्य पहले ही शक्तिहीन हो गए थे, इसलिए सभी दैत्य देवताओं के हाथों मारे गए, इस प्रकार दैत्यों के अंत के साथ युद्ध समाप्त हुआ।

तब देवताओं ने अगस्त्य मुनि की अनेको प्रकार से स्तुति की और प्रार्थना की कि अब आप समुद्र के पिये हुए जल को पुनः छोड़ दीजियें, लेकिन मुनि अगस्त्य ने कहा कि " मैंने वह सारा जल तो पचा लिया, यह सुनकर देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ, और उदास मन से ब्रह्मा जी के पास आये, और हाथ जोड़कर समुद्र भरने की प्रार्थना की, तब ब्रह्मा जी बोले कि " देवतागण अब तुम सब अपनी इच्छानुसार अपने अपने स्थान पर जाओ, आज से कुछ समय बाद राजा भगीरथ अपने पुरखों के उद्धार का प्रयत्न करेंगे, तब यह समुद्र फिर जल से भर जाएगा, ब्रह्मा जी के कहे अनुसार सभी देवता अपने स्थान पर चले गए और उस समय की प्रतीक्षा करने लगे ।

  विदर्भ-नरेश सन्तान-प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या करने में लीन थे। छ: महीनों बाद रानी ने एक कन्या को जन्म दिया। राजा की खुशी का ठिकना न रहा। उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि उनकी तपस्या सफल हुई है और उन्हें एक कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई है।

उस अनुपम सुन्दरी बालिका का सौन्दर्य देखकर ब्राह्मण गण मुग्ध रह गये। यह बालिका लोपामुद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। लोपामुद्रा बड़ी होकर अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हुई। अगस्त्य मुनि राजा के पास पहुँचे। और उन्होंने कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ। राजा ये बात सुनकर चिन्ता में डूब गए। उसी समय लोपामुद्रा राजा के पास आयी। उसने कहा- पिता जी, आप दुविधा में क्यों पड़ गये? मैं ॠषिवर से विवाह करने के लिए प्रस्तुत हूँ। और फिर लोपामुद्रा और अगस्त्य मुनि का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात् अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा से कहा कि तुम्हारे ये राजकीय वस्त्र ॠषि-पत्नी को शोभा नहीं देते। इनका परित्याग कर दो। जो आज्ञा, स्वामी! अब से मैं छाल, चर्म और वल्कल ही धारण करूँगी। कुछ समय बाद लोपामुद्रा ने कहा स्वामी मेरी एक इच्छा है। कहो, क्या इच्छा है तुम्हारी? हम ठहरे गृहस्थ! हमारे लिए धन से सम्पन्न होना कोई अपराध न होगा। प्रभु, मै उसी तरह रहना चाहती हूँ, जैसे अपने पिता के घर रहती थी। महर्षि अगस्त ने  कहा कि वे  धन-प्राप्ति के लिए प्रस्थान करते हैं और उन्होंने लोपामुद्रा से प्रतीक्षा करने को कहा। 

अगस्त्य धन-संग्रह के लिए चल पड़े। वे राजा श्रुतर्वा के पास पहुँचे। माना जाता था कि वे अत्यन्त समृद्ध हैं। जब वे श्रुतर्वा के दरबार  में  पहुँचे तो महाराज श्रुतर्वा ने पूछा कि वे क्या सेवा कर सकते थे ? अगस्त्य जी ने कहा कि वह उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार धन प्रदान करें। राजा ने बताया कि उसके पास देने को अतिरिक्त धन नहीं है। फिर भी जो था उसमें से अगस्त जी अपनी  इच्छानुसार ले सकते थे। अगस्त्य जी नीतिवान थे। उन्होंने विचार किया कि अगर वे  राजा से कुछ लेते तो  दूसरों को उससे वंचित होना पड़ेगा। उन्होंने श्रुतर्वा से कहा कि इस स्थिति में वे उससे कुछ नहीं ले सकते थे। 

उन्होंने श्रुतर्वा से राजा बृहदस्थ के पास चलने को कहा। लेकिन राजा बृहदस्थ के पास भी देने लायक़ अतिरिक्त धन नहीं था। शायद, राजा त्रसदस्यु कुछ सहायता कर सकें। अतः वे सब उनके पास चल पड़े। लेकिन जब वे लोग राजा त्रसदस्यु के यहाँ पहुँचे तो राजा त्रसदस्यु भी उनको धन देने में असमर्थ रहे। तीनों राजा एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। अन्त में उन्होंने समवेत स्वर में कहा कि यहाँ इल्वल नामक एक असुर रहता है, जिसके पास अथाह धन है। आइये, हम उसके पास चलें। 

अगस्त्य तीनों राजाओं के साथ इल्वल के साम्राज्य में पहुँचे, वह उनके स्वागत के लिए तैयार बैठा था। आइये, आप सबका स्वागत है। मैंने आपके लिए विशेष भोजन तैयार करवाया है। तीनों राजाओं को आशंका हुई। हमें अगस्त्य मुनि को सावधान कर देना चाहिए। जब उन्होंने ॠषि को बताया तो ॠषि ने कहा चिन्ता मत करो। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। अगस्त्य ने ललभोजन शुरू किया।  जब ॠषि अगस्त्य ने अन्तिम कौर ग्रहण किया तो इल्वल ने वातापि को आवाज़ दी। वातापि बाहर आओ। महर्षि अगस्त्य ने कहा- अब वह कैसे बाहर आ सकता है? मैं तो उसे खाकर पचा भी गया, । 

इल्वल ने अपनी हार स्वीकार कर ली। आपका किस उद्देश्य से आना हुआ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? हमें पता है कि तुम बड़े धनवान हो। इन राजाओं को और मुझे धन चाहिए। औरों को वंचित किए बिना जो भी दे सकते हो, हमें दे दो। इल्वल पल भर को चुप रहा। फिर उसने कहा कि मैं हर एक राजा को दस-दस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा और अगस्त्य ॠषि को बीस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा। इसके अलावा मैं उनकी सेवा में अपना सोने का रथ और घोड़े भी अर्पित कर दूँगा। आप ये सारी वस्तुएँ स्वीकार करें। इल्वल के घोड़े धरती पर वायु-वेग से दौड़ते थे। वे लोग पल-भर में ही ॠषि अगस्त्य के आश्रम पहुँच गये। ॠषि अगस्त्य लोपामुद्रा के पास गये और कहा कि लोपामुद्रा, जो तुम चाहती थीं, वह मैं ले आया। अब हम तुम्हारी इच्छानुसार जीवन बिताएँगे। कई वर्षों बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया और महृषि अगस्त ने अपने पूर्वजों को दिया हुआ वचन पूरा किया।

महर्षि अगस्त्य के भारतवर्ष में अनेक आश्रम हैं। इनमें से कुछ मुख्य आश्रम उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में हैं। एक उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग नामक जिले के अगस्त मुनि नामक शहर में है। यहाँ  महर्षि ने तप किया था तथा आतापी-वातापी नामक दो असुरों का वध किया था। मुनि के आश्रम के स्थान पर वर्तमान में एक मन्दिर है। आसपास के अनेक गाँवों में मुनि जी की इष्टदेव के रूप में मान्यता है। इसके अतिरिक्त देश में अन्यत्र भी उनके आश्रम हैं। विंध्याचल पर्वत जो कि महर्षि का शिष्य था, का घमण्ड बहुत बढ़ गया था तथा उसने अपनी ऊँचाई बहुत बढ़ा दी जिसके कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई तथा प्राणियों में हाहाकार मच गया। सभी देवताओं ने महर्षि से अपने शिष्य को समझाने की प्रार्थना की। महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है, अतः उन्हें मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया, महर्षि ने उसे कहा कि वह उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा वहीं रहने लगे।महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं।

भगवान राम वन गमन के समय अगस्त्य ऋषि के आश्रम में भी गये थे। भगवान राम ने उन्हें दर्शन देकर उनका जीवन सफल किया था। मुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य ऋषि के शिष्य थे। 

अगस्त संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान् उपादेय है।    पुराणों में यह कथा आयी है कि महर्षि अगस्त्य की पत्नी महान पतिव्रता तथा श्री विद्या की आचार्य थीं, जो 'लोपामुद्रा' के नाम से विख्यात हैं। आगम-ग्रन्थों में इन दम्पत्ति की देवी साधना का विस्तार से वर्णन आया है। इस प्रकार के अनेक असम्भव कार्य महर्षि अगस्त्य ने अपनी मन्त्र शक्ति से सहज ही कर दिखाया और लोगों का कल्याण किया। भगवान श्रीराम वनगमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान ने उनका ऋषि-जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य जी के शिष्य थे। अगस्त्य संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान उपादेय है। सबसे महत्त्व की बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये 'मन्त्र द्रष्टा ऋषि' कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। अब जब विद्युत के आविष्कार करने की बात उठती है तो ज्यादातर लोग सोचते हैं कि इसे महान विदेशी विश्वविख्यात वैज्ञानिक बेंजामिन फ्रैंकलीन ने खोंजा, कुछ लोग सोचते हैं कि अंग्रेजी वैज्ञानिक विलियम गिलबर्ट या फिर थॉमस ब्राउनी या माइकल फैराडे ने किसकी खोंज की है लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सच्चाई यह है कि जब सारा विश्व विद्युत यानी इलेक्ट्रिसिटी से अनजान था तब हजारों साल पहले हमारे भारत के महान ऋषि मुनियों में से एक महर्षि अगस्त्य   ने विद्युत का आविष्कार किया था, जिसके बारे में ऋषि  अगस्त्य ने अपने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ में भी लिखा है।

महर्षि अगस्त्य ने मिट्टी के बर्तन में तांबे की पट्टी (कॉपर सल्फेट), लकड़ी की गीली बुरादें, पारा (मरक्यूरी) तथा दस्ता लोष्ट (जिंक), के द्वारा बिजली का उत्पादन किया था जिसे आज के देसी विदेशी आधुनिक वैज्ञानिकों ने परीक्षण करके एकदम सही पाया।  प्राचीन ग्रथों के अनुसार महर्षि अगस्त्य सप्त ऋषियों में गिने जाते थे, इन्ही ऋषियों ने आसमान में उड़ने वाले गुब्बारें, पैराशूट, वायुयान, अंतरिक्ष यान भी बनाए थे। 

महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को  मं‍त्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने तपस्या काल में उन मंत्रों की शक्ति को देखा था।

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