प्राचीन काल की कथा है। तुंगभद्रा नदी के किनारे अनुपम नामक एक नगर में आत्मदेव नामक का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम था धुन्धुली । आत्मदेव को सबसे बड़ा दुख यह था कि उनके कोई संतान नहीं थी।इससे वे सदा चिंतित रहते थे। एक दिन दु:खी होकर वे वन में चले गये । वहां उन्हें एक योगनिष्ठ संन्यासी के दर्शन हुए । आत्मदेव ने संन्यासी के सामने अपना दुख व्यक्त किया कि हे महात्मन मैं बहुत दुखी हूं, मेरे कोई संतान नहीं है। संन्यासी ने ध्यान लगा कर देखा और फिर बताया कि भाग्य की प्रबलता तथा विधाता के लिखे लेख के चलते सात जन्मों तक आपको संतान की प्राप्ति का कोई योग नहीं है। सन्तान न होने का संकेत करते हुए संन्यासी ने आत्मदेव से कहा कि वे सन्तान मोह छोड़ दें लेकिन आत्मदेव ने संन्यासी से आग्रह किया कि वे कोई ऐसा उपाय बतायें जिससे उन्हें संतान की प्राप्ति हो सके। उसके आग्रह को देखते हुए संन्यासी ने उसे एक फल प्रदान किया और कहा कि इसे अपनी पत्नी को वह खिला दे और उसे नियम पूर्वक रहने को कहे तो निश्चित रूप से सन्तान की प्राप्ति होगी । आत्मदेव ने घर लौटकर वह फल पत्नी धुन्धुली को दिया और संन्यासी की बात बताते हुए उससे कहा की वह श्रद्धापूर्वक फल खा ले तो अवश्य संतान की प्राप्ति होगी। धुन्धुली ने पति से फल ले तो लिया लेकिन दुविधा में पड़ गयी कि इसे खाये या ना खाये।उसके मन में अनेक कुतर्क उपजने लगे और अंतत: उस फल को नहीं खाया और अपनी बहिन की सलाह से चुपचाप उस फल को गाय को खिला दिया । धुन्धुली की बहिन उस समय गर्भवती थी। उसने धुन्धुली के साथ योजना बनायी उसके अनुसार जब उसके पुत्र हुआ तो उसने अपने पुत्र को धुन्धुली को दे दिया । आत्मदेव दोनों बहनों की इस योजना से पूरी तरह अनजान थे इसलिए उन्होंने उस पुत्र को अपना ही पुत्र मान लिया । धुन्धुली ने पुत्र का नाम धुन्धुकारी रखा।
संन्यासी दिया फल खाने के कारण गौ से भी एक सुन्दर मनुष्याकार बच्चा हुआ । इससे आत्मदेव अति प्रसन्न हुए और उसने उस गौ से उत्पन्न पुत्र का नाम गोकर्ण रखा। समय व्यतीत होने के साथ-साथ दोनों पुत्र बडे हुए। धुन्धुकारी अति दुष्ट निकला तथा गोकर्ण अत्यन्त ज्ञानी। आत्मदेव धुन्धुकारी के उत्पातों से अत्यन्त दु:खी रहने लगा और एक दिन ज्ञानी गोकर्ण के उपदेश से घर छोड़ कर वन में चला गया । वहां भगवद् - आराधना से उसने भगवान् को प्राप्त किया ।
इधर धुन्धुकारी के उत्पात जारी रहे। वह नगर के बच्चों को नाव में बैठाता और नदी के बीच में ले जाकर सभी को तीव्र गति से बहती नदी की धारा में डुबो कर मार देता था। जब वे बचाने के लिए गिड़गिड़ाते तो धुंधकारी खूब खुश होता। नगर के लोग उससे परेशान थे पर करते तो क्या करते। धुंधकारी इतना क्रूर और दुष्ट था कि सभी उसके पास जाने में डरते थे।
कौन-सा ऐसा दुर्गुण था जो धुंधकारी में नहीं था। गोकर्ण बड़ा होकर विद्वान पंडित और ज्ञानी निकला जबकि धुंधकारी दुष्ट, नशेड़ी और क्रोधी, चोर, व्याभिचारी, अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला, माता पिता को सताने वाला । उसने माता पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी।
हद तो तब हो गयी जब धुंधकारी ने एक दिन अपने पिता को मार मार कर घर से बहार निकाल दिया। पिता रोने लगा और उसने दुखी होकर कहा कि अच्छा होता अगर मेरी पत्नी बांझ ही रहती। जब पिता यह सोच रहा होता है तभी वहां गोकर्ण आ जाता है। वह पिताजी को वैराग्य का उपदेश देता है और कहता है कि आप सभी छोड़ कर प्रभु की शरण में वन चले जाएं और भागवत भजन करें। भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है। गो से उत्पन्न पुत्र गोकर्ण की बात मान कर आत्मदेव वन चले जाते हैं। बाद में उसकी पत्नी धुन्धली को धुंधकारी सताने लगता है तो वह कुएं में कूद कर आत्महत्या कर लेती है।
तब धुंधकारी पांच वेश्याओं के साथ रहने लगता है। वेश्याएं उसे अपनी इच्छानुसार चलाती थीं। धुंधकारी उन वेश्याओं के लिए ही धन जुटाने लगा। वह उनके लिए डाका डालता और चोरी करता था। बाद में वे वेश्याएं सोचने लगती हैं कि यदि एक दिन यह पकड़ा गया तो राजा इसके साथ हमें भी दंड देगा। यह सोच कर वह वेश्याएं सोते हुए धुंधकारी को रस्सियों से उसका गला दबाने का प्रयास करती हैं। जब वह गला दबाने से भी नहीं मरता है तो वे सभी मिल कर उसे दहकते अंगारों में डाल देती हैं। वहां वह तड़फ-तड़फ कर मर जाता है। बाद में उसे गड्डा खोद कर गाड़ दिया जाता है।
मरने के बाद धुंधकारी भयंकर दुख देने, झेलने और अपने कुकर्मों के कारण एक प्रेत बन जाता है। प्रेत बनने के बाद भूख और प्यास से वह व्याकुल हो जाता है। रह रह कर वह चिल्लाता भी रहता है क्योंकि उसे अंगारों से जलाया गया था इसीलिए उसकी अनुभूति उसे अभी भी सताती रहती है। उसे लगता है कि अभी भी उसका शरीर जल रहा है।
एक दिन उसका भाई गोकर्ण उसके गांव में कथा करने आता है। गोकर्ण सबसे नजर बचाते हुए अपने पुरखों के मकान में सोने चले जाते हैं। अपने ही घर में अपने भाई को सोया हुआ देख कर धुंधकारी खुश हो जाता है और आवाज लगाता है।
गोकर्ण यह आवाज सुनकर पूछता है कि तुम कौन हो?
धुंधकारी कहता है, मैं तुम्हारा भाई हूं, मेरे कुकर्मो की गिनती नहीं की जा सकती, इसी से में प्रेत-योनि में पड़ा ये दुर्दशा भोग रहा हूं, भाई। तुम दया करके मुझे इस योनि से मुक्ति दिलाओ।
गोकर्ण ने कहा कि मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है मैंने तुम्हारे लिए विधिपूर्वक गयाजी में श्राद्ध किया फिर भी तुम प्रेतयोनि से मुक्त कैसे नहीं हुए, मैं कुछ और उपाय करता हूं। कई उपाय करने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो अंत में वह सूर्यदेव से पूछते हैं तो सूर्यदेव ने बताया कि श्रीमद्भागवत कथा सुनने से ही धुंधकारी की मुक्ति हो सकती है। इसलिए तुम सप्ताह पारायण करो।
तब गोकर्ण व्यास गद्दी पर बैठ कर कथा कहने लगे देश, गांव से बहुत लोग कथा सुनने आने लगे इतनी भीड़ हो गई कि सब आश्चर्य करने लगे तब वह प्रेत भी वहां आ पहुंचा वह इधर-उधर स्थान ढूंढने लगा इतने में उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गांठ के बांस पर पड़ी वह वायु रूप से उसमें जाकर बैठ गया।
जब शाम को कथा को विश्राम दिया गया, तो एक बड़ी विचित्र बात हुई। सबके देखते-देखते उस बांस की एक गांठ तड़-तड़ करती फट गई इसी प्रकार सात दिनो में सातों गांठे फट गईं और बारह स्कंद सुनने से पवित्र होकर धुंधकारी एक दिव्य रूप धारण करके सामने खड़ा हो गया। उसने भाई को प्रणाम किया तभी बैकुण्ठवासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरा। सबके देखते ही धुंधकारी विमान पर चढ़ गए।
उन पार्षदों को देख कर उनसे गोकर्ण ने कहा- भगवान के प्रिय पार्षदों यहां हमारे अनेकों शुद्ध हृदय श्रोतागण है उन सबके लिए एक साथ बहुत से विमान क्यों नहीं लाए? यहां सभी ने समान रूप से कथा सुनी है फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों?
भगवान के पार्षदों ने कहा- इस फल भेद का कारण इनमें श्रवण का भेद है श्रवण सबने समानरूप से ही किया किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया। इस प्रेत ने सात दिन तक सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से खूब मनन भी किया। यह कह कर वे सब पार्षद बैकुंठ को चले गए।
श्रावण माह में गोकर्ण ने फिर से उसी प्रकार सप्ताह क्रम से कथा कही वहां भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान प्रकट हो गए उस गांव में कुत्ते और चण्डाल पर्यंन्त जितने भी जीव थे सभी दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़ गए भगवान उन सभी को योगिदुर्लभ गोलोक धाम में ले गए।
इस कथा का यह निष्कर्ष है कि-अपने माता-पिता को कष्ट देने वाला, शराब पीने वाला, वेश्यागामी पुरुष प्रेतयोनि प्राप्त कर अनंतकाल तक भटकते रहते हैं। अब न गोकर्ण की तरह कथा सुनाने वाले हैं और न सुनने वाले। धुंधकारी को उसके पापों की सजा तो मिली ही साथ ही उसने प्रेतयोनि में रहकर भी सजा भुगती। बाद में जब उसे पछतावा हुआ तो भागवत कथा सुनकर मन निर्मल हो गया। निर्मल मन होने से उसके सारे संताप जाते रहे।
यहां अपना एक अनुभव जोड़ना चाहता हूं। हमारे गांव में हमारे एक परिचित थे जो कभी-कभी भागवत सप्ताह करवाते थे। भागवत के व्यास बनते हमारे रामस्वरूप बाबा जी जो काशी से संस्कृत पढ़ कर आये थे और क्षेत्र के सुपरिचित कथा वाचक थे। अब सीधे-सादे ग्रामीणों को भागवत क्या समझ में आती वे आते प्रणाम करते और थोड़ी देर बैठ कर चले जाते थे। थोड़ी संस्कृत जानता था इसलिए मैं रोज भागवत सुनने पहुंचता था और पंडित जी श्लोक के साथ उसका अर्थ बताते थे। वहां जिस तख्त पर व्यास आसन बनाया गया था उसके एक कोने में सात गांठों वाला कच्चा बांस बंधा देख कर मैंने पंडित जी से पूछा तो उन्होंने यही धुंधकारी के मुक्त की कथा सुनायी थी और कहा था कि यह सात गांठ वाला बांस उसी का प्रतीक है।
अगर इस कथा पर विचार करें और इसके प्रतीकों को मानव जीवन से जोड़ कर देखें तो तुङ्गभद्रा नदी हमारे भीतर प्रवाहित शुद्ध चैतन्य रूपी नदी इसके तट पर बसा हुआ अनुपम नगर मानों हमारा मनुष्य है । आत्मदेव मनुष्य की जीवात्मा है। अर्थात् मनुष्य स्वयं आत्मदेव है ।
धुन्धुली हमारी अशुद्ध मन - बुद्धि की परिचायक है। धुन्धुली शब्द से धुंधली अर्थात अस्पष्ट का भान होता है । बुद्धि धुंधली है तो वह अच्चे-बुरे का फर्क नहीं कर सकेगी जैसा धुंधली के सात हुआ।
आत्मदेव की सन्तान प्राप्ति की इच्छा मनुष्य की गुण- प्राप्ति की इच्छा का प्रतीक है ।
आत्मदेव का वन में जाना मानों मनुष्य का अन्तर्मुखी होना है।वन में मिलने वाला योगनिष्ठ संन्यासी जैसी अपनी अन्तरात्मा है। अन्तर्मुखी होने पर ही अन्तरात्मा से मिलन होता है, जहां से हमें हमारी आवश्यकता के अनुसार यथोचित निर्देश मिलता है ।
संन्यासी द्वारा दिया हुआ फल अन्तरात्मा द्वारा दिए गए यथार्थ दिशा - निर्देश की ओर संकेत करता है, जिसको धुन्धुली रूपी हमारी अशुद्ध मन - बुद्धि स्वीकार नहीं कर पाती हैं ।
अशुद्ध मन - बुद्धि की बहिर्मुखी चेतना या वृत्ति को ही धुन्धुली की बहन जानना चाहिए। ऐसी बहिर्मुखी चेतना से ही धुन्धुकारी का जन्म होता है ।
हमारी अन्तर्मुखी चेतना या वृत्ति ही गौ है । हमारे अन्तरात्मा अर्थात् संन्यासी द्वारा निर्दिष्ट दिशा निर्देश (फल) को बहिर्मुखी व्यापार वाली अशुद्ध मन - बुद्धि (धुन्धुली) तो ग्रहण या स्वीकार नहीं करती परन्तु उसी दिशा - निर्देश को अन्तर्मुखी चेतना(गौ) सहज रूप में ग्रहण भी करती है और उस पर ध्यान भी देती है । यही गोकर्ण की उत्पत्ति है । गोकर्ण में दो शब्द हैं - गो और कर्ण । गौ का अर्थ है अन्तर्मुखी चेतना और कर्ण का अर्थ है - कान देना या ध्यान देना अथवा सुनना । अन्तरात्मा के दिशा - निर्देश को सुनकर अथवा उस पर ध्यान देकर तदनुसार ज्ञानयुक्त व्यवहार(सत्कर्म) करने के कारण ही गोकर्ण इस कथा में ज्ञानी कहा गया है । ऐसी ज्ञानयुक्त चेतना अर्थात् गोकर्ण से ही निर्देशित होकर मनुष्य सच्चे मार्ग की ओर अग्रसर होकर अपने जीवन के अभीष्ठ लक्ष्य को प्राप्त करता है । इसी तथ्य को कहानी में आत्मदेव का गोकर्ण से उपदेश प्राप्त करके वन में जाना तथा वहां भगवत् आराधना द्वारा भगवान् को प्राप्त करना कहा गया है ।
प्रेत योनि को प्राप्त धुन्धुकारी भागवत कथा श्रवण के लिए सात गांठों वाले एक बांस में प्रवेश कर गया । बांस की सात गांठें हमारी पांचों इन्द्रियों, छठे मन तथा सातवीं बुद्धि पर लगी हुई अज्ञान की, अशुद्धि की गांठे हैं। भागवत के श्रवण - मनन से पूर्व धुन्धुकारी पांचों इन्द्रियों, छठे मन तथा सातवीं बुद्धि नामक सातों स्तरों पर अशुद्धि तथा अज्ञान से युक्त था। यही उसका सात गांठों वाले बांस में बैठना है। भागवत के श्रवण - मनन के पश्चात् इन सातों स्तरों पर वह अशुद्धि, अज्ञान से मुक्त हो गया - यही बांस की सातों गांठों का फटना है ।
इस आलेख को वीडियो के रूप में देखने के लिए कृपया यहां पर क्लिक कीजिए
No comments:
Post a Comment