Monday, June 28, 2021

प्रभु राम को क्यों लेनी पड़ी चित्रकूट में रहने की अनुमति?


चित्रकूट धाम भगवान राम की कर्मस्थली रही है। यहां प्रभु राम, सीता, लक्ष्मण ने चौदह वर्ष के वनवास के साढ़े ग्यारह वर्ष बिताये थे।  चित्रकूट विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी पर अवस्थित है। प्रभु राम ने जब वाल्मीकि ऋषि से पूछा कि वे बतायें कि वनवास काल में हम कहां रहें। तब वाल्मीकि जी ने कहा था- चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहं सब भांति तुम्हार सुपासू।।अर्थात हे प्रभु आप चित्रकूट गिरि पर निवास कीजिए, वहां आपको सब प्रकार की सुविधा मिलेगी। यहीं भाई भरत भगवान राम को मना कर अयोध्या वापस ले जाने आये थे। राम नहीं माने तो वे उनकी पादुकाएं लेकर अयोध्या लौट गये।

बहुत ही रमणीक स्थल है चित्रकूट। वहां मंदाकिनी नदी बहती है जिसे अत्रि मुनि की पत्नी अनुसूया तप बल से लायी थीं। संभवत: मंद गति से बहने के कारण इसका यह नाम पड़ा. इसका एक नाम पयस्वनी भी है. मान्यता है कि प्राचीन काल में दीपावाली की मध्य रात्रि में यहां पय अर्थात दूध की धारा बहा करती है।

चित्रकूट गिरि में कामतानाथ स्वामी निवास करते हैं इसलिए इसे कामदगिरि भी कहते हैं। कहते हैं कि कामदगिरि के दर्शन मात्र से दुखों का नाश होता है। रामचरित मानस में स्वयं पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास ने इस बारे में लिखा है -कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत विषादा।

रहीम और तुलसीदास में अच्छी मित्रता थी। जब तुलसीदास चित्रकूट में रह कर रामायण लिख रहे थे तो रहीम उनसे मिलने आते थे। कामदगिरि के परिक्रमा पथ पर अभी भी पांच सौ साल पहले लगाया गोस्वामी तुलसीदास का पीपल पेड़ विद्यमान है। हालांकि वह जर्जर हो गया है लेकिन अब तक उसकी दो-तीन शाखाएं हरी हैं। इसी के नीचे बैठ कर तुलसीदास रामायण लिखा करते थे। यहां स्थिति कुटी में उनके हस्तलिखित रामायण के पृष्ठ इस यूट्यूबर ने 2016 की अपनी चित्रकूट यात्रा में देखे थे। कुछ पृष्ठ तुलसीदास जी की जन्मस्थली राजापुर के तुलसी कुटीर में सुरक्षित हैं। 

 चित्रकूट पहले उत्तर प्रदेश के कर्वी जिले में आता था अब उस जिले का नाम बदल कर चित्रकूट धाम रख दिया गया है। चित्रकूट में वनवास काल में देवता प्रभु राम से मिलने आते थे। कुछ तो वहीं वनवासियों का जन्म लेकर बस गये थे ताकि प्रभु की सेवा कर सकें। कहते हैं देवांगन नामक स्थान पर वे प्रभु से मिलते थे। भगवान कामदगिरि की चोटी पर पर्णकुटी बना कर रखते थे। कहते हैं वहां सीता जी ने तुलसी के पौधे लगाये थे। अब जहां कोई लगभग बारह वर्ष रहेगा तो आसपास के पर्यावरण की रक्षा और संवर्धन तो करेगा ही। यहां लगभग सौ साल पुराना एक ऐसा प्रसंग जोड़ रहा हूं जो मेरे पिता जी मंगल प्रसाद त्रिपाठी से जुड़ा है। अपनी एक चित्रकूट यात्रा के दौरान जब वे पहाड़ की चोटी की ओर जाने का प्रयास कर रहे थे तो लोगों ने रोका-अरे भाई ऊपर मत जाइए वहां जंगली जानवर हैं, बहुत खतरा है। पिता जी ने जवाब दिया- अब यहां आये हैं तो वह स्थान तो देखूंगा ही जहां प्रभु राम, सीता, लक्ष्मण पर्णकुटी बना कर रहे थे। 

चित्रकूट से लौट कर घर आये पिता जी ने लोगों से बताया कि चोटी पर तुलसी के पौधों का जंगल है और वह भाग जहां पर्णकुटी रही होगी समतल है। हमने क्या सभी ने यह उक्ति सुनी होगी-रामभरोसे जे रहें पर्वत पर हरियांय। तुलसी बिरवा बाग में सींचे से कुम्हलांय। 

रहीम ने भी चित्रकूट के बारे में लिखा है कि-चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेस।जापर विपदा पड़त है सो आवत यहि देश। अर्थात रहीम जी कहते हैं कि  चित्रकूट में राम का निवास है। जिस पर भी विपत्ति आती है वही शांति पाने के लिए इस क्षेत्र की ओर खिंचा चला आता है।

कहते हैं कि एक बार रहीम और तुलसीदास कामद गिरि के परिक्रमा पथ पर साथ-साथ जा रहे थे कि तभी उन्होंने देखा कि एक रईस व्यक्ति हाथी पर सवार होकर आ रहा है। अपने स्वभाव के अनुसार हाथी सड़क से धूल उठा कर अपनी पीठ पर डाल रहा था। इससे उस रईस के कपड़े गंदे हो रहे थे इसलिए वह हाथी को पीट रहा था। इस पर तुलसी ने रहीम से पूछा-धूरि धरत निज शीश पर कहु रहीम केहि काज। इस पर रहीम ने कितना लाजवाब जवाब दिया वैसा जवाब उनके जैसा विद्वान ही दे सकता है। उन्होंने तुलसी की पंक्ति को इस तरह पूरा किया-जेहिं रज मुनि पत्नी तरी सो ढूंढ़त गजराज।। यानी जिस रज से अहिल्या तरी थीं यह गजराज वही रज ढूंढ़ रहा क्योंकि राम यहां भी बहुत दिनों तक रहे थे।

 चित्रकूट में मंदाकिनी के रामघाट पर ही हनुमान जी के सहयोग से  तुलसीदास को राम के दर्शन हुए थे। वहां तोते के रूप में हनुमान जी ने यह दोहा पढ़ कर उन्हें राम के दर्शन कराये थे-

चित्रकूट के घाट पे, भई सन्तन की भीर,

तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुवीर।

इस घटना की स्मृति स्वरूप आज भी तोतामुखी हनुमान की प्रतिमा चित्रकूट में स्थापित है। मंदाकिनी नदी में स्नान करने का बड़ा महत्व है यहां मौनी अमावस्या और दीपावली के दिन लाखों लोगों की भीड़ जुड़ती है जो मंदाकिनी में स्नान कर कामतानाथ के दर्शन करते हैं। 

कमादगिरि के परिक्रमा पथ पर विविध मंदिर हैं। यहीं प्राचीन पीलीकोठी संस्कृत विद्यालय है। इस पवित्र पर्वत का काफी धार्मिक महत्व है। श्रद्धालु कामदगिरि पर्वत की पांच किलोमीटर की परिक्रमा कर अपनी मनोकामनाएं पूर्ण होने की कामना करते हैं। कुछ लोग परी परिक्रमा (पेट के बल लेट कर) भी करते हैं।जंगलों से घिरे इस पर्वत के तल पर अनेक मंदिर बने हुए हैं।  परिक्रमा पथ पर ही भरत मिलाप का स्थल है। जहां भरत, राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न आपस में एक-दूसरे से गले लगे थे। कहते हैं कि उस समय इन भाइयों का प्रेम देख पत्थर की शिला पिघल गयी थी और सभी भाईयों के पदचिह्न वहां अंकित हो गये थे। ये चिह्न आज भी परिक्रमा पथ पर देखे जा सकते हैं।

मन्दाकिनी नदी को सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने वाला बताया गया है।

सुरसरी धार नाउ मंदाकिनी, जो सब पातक पोतक, डाकिनि।अत्रि आदि मुनिवर बहु बसहि, करहि जोग जप तप तन कसहीं।

जो मनुष्य इस मंदाकिनी गंगा के द्वारा विधिवत् पितृ और देवताओं का तर्पण करता है तथा श्राद्ध और पिण्ड दान करता है। उसे यज्ञों का-सा फल मिलता है। वह कायिक, वाचिक और मानसिक पापों से मुक्त हो जाता हैं। मन्दाकिनी नदी के किनारे सती अनुसूया अत्रि आश्रम, रामघाट, राघवप्रयाग श्री मत्तगयेन्द्र शिव मंदिर, प्रमोदवन, जानकी कुण्ड और स्फटिक शिला, तुलसीदास मंदिर और अनेक पावन तीर्थ हैं।  वाल्मिकि रामायण में चित्रकूट का विस्तृत वर्णन किया है-

नाना नागगणों पेतः किन्नरोरम सेवितः।

मयूर नादाभिरतों गजराजनि सेवितः।।

गम्यता भविता शैलस्चित्रकूटः स विश्रुतः,

पुण्यश्च रमणीयश्च बहु मूल फला युतः।

सरित्प्रस्त्रवण प्रस्थान्दरी कन्दर निर्झरान,

यावता चित्रकूटस्य नरः श्रृगाण्डय वेक्षते।।

अर्थात  सुविख्यात पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा है। यहाँ पर बहुत से नाग, किन्नर सेवक जैसे सेवा करते हैं। मोरों के कलरव से वह अत्यंत रमणीय है। चित्रकूट पर्वत परम पवित्र है। रमणीय फल-फूलों से सम्पन्न है। मंदाकिनी नदी अनेकानेक जलस्रोत, पर्वत शिखर, गुफा, कंदरा, झरने से मन को आनन्द व कल्याणकारी पुण्य फल प्रदान करते हैं।

रामघाट

रामघाट मंदाकिनी नदी का एक महत्वपूर्ण घाट एवं स्थान है। मंदाकिनी नदी पर स्थित इस घाट पर वनवास काल में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता  स्नान किया करते थे। इसलिए इसे रामघाट कहते हैं। यह घाट मंदाकिनी के ठीक मध्य में स्थित है। यहीं तुलसीदास को भगवान राम के दर्शन हुए थे।

पुनीत मंदाकिनी नदी में प्रतिदिन स्नान तपस्या से इन्द्रिय शमन और मन निग्रह से समस्त पाप दूर हो जाते हैं। भगवान श्रीराम ने जगत जननी जानकी को यहां स्नान करने की आज्ञा दी थी। दीपावली के अवसर पर दीपदान का दृश्य यहाँ देखते ही बनता है। यों तो यहां प्रतिदिन संध्या को मंदाकिनी की आरती होती है।

 मत्तगयेंद्र मंदिर

रामघाट में कई सीढ़ियां चढ़कर  ऊंचाई पर स्थित है मत्तगयेंद्र अर्थात शिवजी का प्राचीन  मंदिर । कहते हैं कि स्वयं ब्रह्मा जी ने इस शिवलिंग की स्थापना क्षेत्रपाल के रूप में की थी। यही कारण है कि जब राम यहां आये तो उन्होंने रामघाट में स्नान कर मत्तगयेंद्र स्वामी से उनके क्षेत्र में रहने की अनुमति मांगी थी। इतना ही नहीं जब सीता जी ने यह स्वप्न देखा कि भरत सेना लेकर चित्रकूट आ रहे हैं तो इस स्वप्न की शांति के लिए उन्होंने भी मत्तगयेंद्र मंदिर में शिव की पूजा की थी। इसकी स्थापना के बारे में यह श्लोक प्रचलित है-

प्रतिष्ठात्य शाम्भवं भूरि भावनः,

मत्त गयेन्द्र नामेदं क्षेत्रपालं समादद्ये।

भगवान शंकर का मत्त गयेन्द्र नामक शिवलिंग दर्शन और पूजन से शीघ्र ही बैकुण्ठ प्राप्ति का फल देने वाला है। हर क्षेत्र का एक क्षेत्रपाल होता है जो उस क्षेत्र का स्वामी होता है। यहां प्रश्न हो सकता है कि स्वयं विष्णु ने राम का अवतार लिया था जिन्हें साक्षात परमब्रह्म माना जाता है उन्हें भला कहीं रहने के लिए किसी देवता की अनुमति क्यों लेनी पड़ी। यहां स्पष्ट कर दें कि प्रभु राम अवतारी थे लेकिन उन्होंने मानव अवतार लिया था। जब विश्व में पाप बढ़ गया धरती देवताओं के पास रक्षा के लिए गयी तब सभी विष्णु के पास गये उनकी प्रार्थना की तो विष्णु ने उन्हें यह कह कर भरोसा दिया-जिन डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हंहि लागि धरिहौं नर बेसा।। अंशन सहित मनुज अवतारा। लेहंऊ दिनकर वंश उदारा।।

तो प्रभु मानव अवतार में सूर्यवंश में पैदा हुए। उन्होंने मनवोचित सभी धर्मों का पालन किया। इसीलिए उन्होंने मत्तगयेंद्र स्वामी से उनके क्षेत्र में रहने की अनुमति मांगी।

रामघाट के पास बालाजी का भव्य मंदिर बना हुआ है। इस आश्रम के आस-पास सात पावन शिलाएँ हैं। आश्रम के मंदिर में अनुसूया के पुत्र दत्तात्रेय तथा उनकी स्वयं की मूर्ति स्थापित है। मंदिर के नीचे अन्य पुत्रों चन्द्रमा तथा दुर्वासा की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। यह वही स्थान है। जहाँ वनवास के समय चित्रकूट निवास में सीता जी को अनुसुइया ने पातिव्रत्य धर्म का उपदेश दिया था।  

चित्रकूट में महासती अनुसुइया एवं उनके पति अत्रि मुनि का अति प्राचीन आश्रम मंदाकिनी के किनारे स्फटिक शिला एवं कामतानाथ जी से 15 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहाँ सती अनुसुइया और अत्रि से संबंधित ऐतिहासिक झाँकियाँ निर्मित हैं। इसी आश्रम से मंदाकिनी गंगा प्रकट हुई हैं। वे यहाँ स्वर्ग गंगा भी कहलाती हैं।

राघव प्रयाग 

राघव प्रयाग मंदाकिनी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है।पर्वत के मध्य में गंगा नाम की जो नदी है उसे पयस्विनी कहते हैं। सावित्री, गंगा और मंदाकिनी इनका जहाँ पर संगम है उस स्थान को राघव प्रयाग कहते हैं। इस स्थान पर सनकादि मुनि आदि ने महान तप किया था। 

राघव प्रयाग में श्री राम ने सीता लक्ष्मण के साथ जंगली कंद मूल से विधिपूर्वक अपने पिता दशरथ जी का श्राद्ध किया था। कहते हैं इसीलिए यह राघव प्रयाग कहलाने लगा। राघव प्रयाग में जो भी स्नान करता है, उसके हृदय में श्री सीता राम की भक्ति उत्पन्न हो जाती है। 

हनुमान धारा के अनन्तर प्रमोद वन या राम तीर्थ नाम का तीनों लोकों में प्रशंसित तीर्थ है। उस तीर्थ के दर्शनादि कर्मों का फल यज्ञ के समान होता है।  रामघाट से दो किलोमीटर की दूरी पर पयस्विनी के किनारे प्रमोद वन है। यहाँ रामनारायण भगवान का मंदिर है।

जानकी कुण्ड

प्रमोद वन के कुछ दक्षिण भाग में रामघाट से दो किलोमीटर दूर जानकी कुण्ड स्थित है। कहते हैं वनवास के समय सीता जी इसी कुण्ड में नित्य स्नान किया करती थीं। इसी कारण इस कुण्ड को जानकी कुण्ड कहते हैं।

यहाँ पर श्री रामचन्द्र नित्य विहार करते हैं। उनके चरणों की रेणु यहाँ पर्वत के रूप में एकत्रित हो गई है। उसकी शिला स्फटिक समान स्वच्छ चिकनी है, जो संसार को पवित्र करती है। उस शिला में सुन्दर दाहिना चरण चिन्ह विद्यमान है। जानकी कुण्ड के नाम से प्रख्यात है। इस सीता कुण्ड में स्नान करके तथा भक्ति भाव से चरणों का पूजन करने से मनुष्य के पापों का नाश होता है व भक्ति भाव जगता है। कहा भी है-

सीता कुण्डे नरः स्नात्वा चरणं पूज्य भक्तितः,

भक्ति योगम् प्राप्नोति महापातक नाशनम्।

यह स्थान रम्य आश्रम के रूप में है। यहाँ महात्मागण, अनगिनत गुफाओं में तपश्चर्या में लीन रहते हैं।

स्फटिक शिला

स्फटिक शिला मंदाकिनी गंगा के किनारे स्थित है। हरे-भरे वृक्षों के कारण यह स्थान बहुत सुंदर लगता है। ऐसा कहा जाता है कि जब राम और सीता  चित्रकूट से अत्रि ऋषि के आश्रम को जाते थे तो रास्ते में मंदाकिनी के किनारे एक श्वेत धवल शिला पर बैठ विश्राम करते थे। इस मनोरम पवित्र स्थल पर श्री राम के पद चिन्ह एक शिला पर अंकित हैं। इसी स्थान पर इन्द्र के पुत्र जयंत ने  कौए का रूप धारण कर सीता जी के चरण में चोंच मारी थी। यहाँ सीता जी के चरण चिन्ह अंकित हैं जो सफेद पत्थर पर बने हैं जो अनेकों वर्ष के होंगे। यह शिला स्फटिक मणि के समान हैं, इसी कारण इसका नाम स्फटिक शिला पड़ा।

 गुप्त गोदावरी

तुंगारण्य नाम के पर्वत से निकली पापों को नष्ट करने वाली पुण्य नदी गोदावरी है जो गुप्त गोदावरी नाम से प्रसिद्ध है। इस स्थान पर महादेव जी भी विद्यमान हैं। जिनकी ऋषि-मुनि सेवा करते हैं।नगर से 18 किलोमीटर की दूरी पर गुप्त गोदावरी स्थित है। यहां दो गुफाएं हैं। एक गुफा चौड़ी और ऊंची है। प्रवेश द्वार संकरा होने के कारण इसमें आसानी से नहीं घुसा जा सकता। गुफा के अंत में एक छोटा तालाब है जिसे गोदावरी नदी कहा जाता है। दूसरी गुफा लंबी और संकरी है जिससे हमेशा पानी बहता रहता है। कहा जाता है कि इस गुफा के अंत में राम और लक्ष्मण ने दरबार लगाया था। यहाँ एक शिला पहाड़ की ऊपरी दीवार पर स्थित है जिसे मयंक या खटखटा राक्षस भी कहा जाता है। यहां चमगादड़ों का जमघट है जो इस शिला में उलटे लटके रहते हैं। इस शिला के बारे में कहा भी गया है-

शिलैका चोर रूपा च अंतरिक्षे प्रवर्तते,

गोदावर्ण नरः स्नात्वा कृत्वा संध्या यथा विधिः।

गोदावरी पुण्य सलिला है। पापमोचनी एवं आत्मिक आनन्द प्रदाता है।

 गुप्त गोदावरी का जल प्रवाह कुछ दूरी के बाद गायब हो जाता है।

चित्रकूट में मंदाकिनी के किनारे प्रत्येक अमावस्या एवं दीपावली को मेला लगता है। जहाँ लाखों श्रद्धालु चित्रकूट के विभिन्न मठों, मंदिरों के अतिरिक्त मन्दाकिनी के अलग-अलग पवित्र घाटों में स्नान एवं कामदगिरि की परिक्रमा के साथ ही दीपदान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि चित्रकूट में आकर मन्दाकिनी में दीपदान करने वाला सुख, शांति, समृद्धि, वैभव और सद्गति को प्राप्त होता है। इसी मान्यता और मनोकामना की पूर्ति के लिए लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष चित्रकूट पहुँचते हैं।

 चित्रकूट- चित्र+कूट शब्दों के मेल से बना है। संस्कृत में चित्र का अर्थ है अशोक और कूट का अर्थ है शिखर या चोटी। इस संबंध में कहावत है कि चूंकि इस वनक्षेत्र में कभी अशोक के वृक्ष बहुतायत में मिलते थे, इसलिए इसका नाम चित्रकूट पड़ा। कुछ लोग चित्रकूट का अर्थ चित्त का हरण करनेवाला या मोहनेवाला भी बताते हैं।

 प्रभु श्रीराम की स्थली चित्रकूट की महत्ता का वर्णन पुराणों के प्रणेता संत  वेद व्यास, आदिकवि कालिदास,तुलसीदास, आदि ने अपनी कृतियों में किया है।  चित्रकूट के पाँच-छह मील  के क्षेत्र में  बहुत से धार्मिक महत्व के स्थान है| यह एक बहुत बड़ा कस्बा है| इसकी मुख्य बस्ती सीतापुर है| उसी को चित्रकूट कहते हैं| चित्रकूट जाने के लिए रेलवे स्टेशन या कर्वी पर उतरना पड़ता है| दोनों से चित्रकूट एक सामान दूरी पर है| कर्वी से यहाँ जाने में ज्यादा आसानी होती है | यहाँ से बस आटो आदि मिल जाते है|

हनुमान धारा

हनुमान धारा एक पहाड़ी चोटी पर स्थित है। यहां हनुमान जी की मूर्ति के कंधे पर एक झरना गिरता है और फिर सामने ही लुप्त हो जाता है। कहते हैं लंका दहन के बाद जब हनुमान जी के शरीर की जलन शांत नहीं हो रही थी राम ने ही उन्हें इस पहाड़ी पर रहने की सलाह दी थी। राम ने अपने बाण से वह झरना पैदा किया जो अनवरत हनुमान जी की मूर्ति के कंधे पर गिर रहा है।

सीता रसोई

पर्वत की चोटी पर एक छोटा सा मंदिर बना है जिसे सीता रसोई कहते हैं। कहते हैं कि प्रभु राम, लक्ष्मण और सीता जी के चित्रकूट प्रवास की अवधि में एक बार सीता जी ने अत्रि समेत तीन ऋषियों को अपने हाथों से खाना बना कर भोजन कराया था। यही कारण है कि यह स्थल सीता रसोई के नाम से प्रसिद्ध है। 

चित्रकूट मंदाकिनी नदी के किनारे पर बसा भारत के सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में एक है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में 38.2 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला शांत और सुन्दर चित्रकूट प्रकृति और ईश्वर की अनुपम देन है। चित्रकूट जिले में ही राजापुर है जो पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली है।

राम घाट वह घाट है जहाँ प्रभु राम नित्य स्नान किया करते थे l इसी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास जी की प्रतिमा भी है l 

लक्ष्मण पहाड़ी

कामदगिरि के पास ही है लक्ष्मण पहाड़ी जहां कहते  हैं कि लक्ष्मण जी सदैव धनुष में बाण सादे भैया राम और भाभी सीता की रक्षा में तत्पर रहते थे। उन्हें नींद ना आये इसलिए उनकी पत्नी उर्मिला ने उनके हिस्से की नींद भी स्वयं भोगने का वरदान मांग लिया था। लक्ष्मण चौबीस घंटे जगते रहते थे और उनके बदले उर्मिला चौबीस घंटे सोती रहती थीं। कहते हैं उर्मिला की नींद लक्ष्मण के वन से अयोध्या वापसी पर ही खुली।

भरतकूप

 भगवान राम के राज्याभिषेक के लिए भरत भारत की सभी पवित्र नदियों का जल लाये थे पर राम राज्याभिषेक करा कर अयोध्या वापस लौटने को तैयार नहीं हुए। इसके बाद अत्रि मुनि के परामर्श पर भरत ने वह पवित्र जल एक कूप में रख दिया था। इसी कूप को भरत कूप के नाम से जाना जाता है। भगवान राम को समर्पित यहां एक मंदिर भी है। 

वायु मार्ग

चित्रकूट का नजदीकी हवाई अड्डा प्रयागराज है। इसके अतिरिक्त नजदीकी एयरपोर्ट-भरहुत सतना (मध्य प्रदेश) भी है। चित्रकूट की देवांगना घाटी में भी हवाई पट्टी का निर्माण पूर्णता की ओर है। इसके बनने से तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को बहुत सुविधा होगी।

रेल मार्ग

चित्रकूट से 8 किलोमीटर की दूर कर्वी निकटतम रेलवे स्टेशन है। यहां से विविध शहरों के लिए ट्रेनें उपलब्ध हैं। 

चित्रकूट की यात्रा पर आने का सबसे  उपयुक्त  समय  फरवरी या मार्च होता है। यहां ठहरने के लिए कई धर्मशालाएं व उत्तर प्रदेश सरकार का राही गेस्ट हाउस भी है। अवसर मिले तो एक बार इस पुण्य क्षेत्र की यात्रा अवश्य करनी चाहिए क्योंकि यह तीर्थक्षेत्र ऐसा है जहां आकर प्रभु के होने की अनुभूति होती है।

 चित्रकूट की इस कहानी के बाद अब देखिए चित्रकूट पर वह वीडियो जो इस यूट्यूबर ने 2016 की अपनी चित्रकूट यात्रा में बनाया था। इसमें वहां का एक गाइड चित्रकूट के बारे में बता रहा है।

इस आलेख का वीडियो देखने के लिए कृपया यहां क्लिक कीजिए


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