रावण भले ही राक्षस कुल में जन्मा हो पर वह प्रकांड पंडित था। वह संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था। ज्योतिष शास्त्र का भी ज्ञाता था रावण। ज्योतिष पर आधारित उसका ग्रंथ 'रावण संहिता' बहुत ही प्रसिद्ध है। धार्मिक अनुष्ठानादि का भी उसे सम्यक ज्ञान था। यही कारण है कि रामसेतु के निर्माण के पश्चात राम ने जब रामेश्वर शिवलिंग की स्थापना करनी चाही तो इस अवसर पर आचार्य के रूप में रावण को आमंत्रित करना चाहा। रावण जिसने उनकी प्राणों से भी प्रिय भार्या सीता का अपहरण किया था और जो उनका शत्रु था। ऐसा मन में विचार कर राम ने जामवंत को रावण को आमंत्रित करने के लिए भेजा।
रावण ने शिवलिंग स्थापना में राम का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया। रावण उस अनुष्ठान के आचार्य बने। रावण त्रिकालज्ञ था, वह यह जानता था की उसकी मृत्यु राम के हाथो लिखी गयी है। वह भगवान श्री राम से कुछ भी दक्षिणा में मांग सकता था परन्तु वह जानता था की उसकी मृत्यु भगवान श्री राम के हाथो लिखी गई है। ऐसे में आखिर रावण ने राम से क्या दक्षिणा मांगी होगी यह उत्सुकता सबके मन में जगती है।
जामवन्त को रावण को निमंत्रण देने के लिए श्रीलंका भेजा गया। जामवन्त के शरीर का आकर विशाल था। कुम्भकर्ण के आकर की तुलना में वह थोड़े ही छोटे थे। इस बार राम ने जमवंत को भेजा। पहले हनुमान, फिर अंगद एवं अब जामवन्त।
जब जामवन्त के लंका में आने की खबर लंका वासियो को मिली तो सभी इस डर से सिहर गए। निश्चित रूप से देखने में जाम्पवन्त थोड़े अधिक भयावह थे. जामवन्त को सागर सेतु लंका मार्ग सुनसान मिला। कहीं कोई भी जामवन्त को दिख जाता तो वह केवल इशारे मात्र से राजपथ का रस्ता बता देता। उनके सामने खड़े होने या उन,े बोलने का साहस किसी में नहीं था।
इतना ही नहीं लंका के प्रहरी तक उन्हें बिना पूछे मार्ग दिखा रहे थे। उन्हें किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं पड़ीछ। जामवन्त के लंका पहुंचने की खबर द्वारपाल ने रावण तक पहुंचा दी। रावण स्वयं चलकर जामवन्त के स्वागत के लिए राजमहल से बाहर आया तथा जामवन्त का सेवा सत्कार करने लगा। रावण को देख जामवन्त मुस्कराये तथा रावण से बोले में तुम्हारे अभिनंदन का पात्र नहीं हूं। मैं तो अपने वनवासी राम के दूत के रूप में यहाँ आया हूं। रावण ने जामवन्त को महल के भीतर आमंत्रित किया। उन्हें आसन देकर रावण भी साथ ही बैठ गया।
जामवन्त ने रावण से कहा कि- वनवासी राम ने आपको प्रणाम कहा है। वे सागर-सेतु निर्माण के पश्चात अब यथशीघ्र महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद स्वीकार करने की इच्ठा की है। मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।
रावण यह जानता था की भगवान राम द्वारा यह अनुष्ठान स्वयं उसके पराजय के लिए किया जा रहा है, परन्तु उसने जामवन्त द्वारा सुनाया गया यह निमंत्रण प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। लेकिन रावण के मस्तिष्क में उस समय एक अनोखा प्रश्न आया। वह जामवन्त से बोला- आप जानते ही हैं कि कि आप त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में पधारे हैं। यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे?
जामवंत अट्टहास किया औरक बोले- मुझे बंदी बनाने की शक्ति किसी में नहीं है चाहे तुम्हारे लंका के सभी दानव मिल कर प्रयत्न कर के देख लें।किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता। ध्यान रहे, मैं यहां हूँ, मेरे पल-पल की जानकारी धनुर्धारी लक्ष्मण को मिल रही है। वे सब चीज ना सिर्फ देख रहे हैं अपितु सुन भी रहे हैं। यह उस यंत्र का चमत्कार है जो मैं अपने साथ लाया हूं। जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी से धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं।
उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त, रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा। इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब अपने उत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के पास वापस पहुंचाने की व्यवस्था करें।
यह बात सुन वहां उपस्थित सभी दानव भयभीत हो उठे। यहाँ तक की रावण भी इस बात को सुन काँप गया। पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र है जो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते। अब भले ही वह रावण मेघनाथ के तरकस में भी हो।
जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते। उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं है। रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप प्रस्थान कीजिए, यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मुझे उनकी पूजा में आचार्य बनना स्वीकार है।
इसके पश्चात जामवन्त रावण का संदेश लेकर वापस लौट गये। जामवन्त के वापस लौटने के पश्चात रावण अशोक वाटिका में सीता के पास पहुंचा और बोला की राम द्वारा विजय प्राप्ति के लिए अनुष्ठान किया जा रहा है और मैं उनका आचार्य हूं। यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व यजमान का ही होता है और यह बात तुम्हें पता ही है के अर्धांगिनी के बिना इस तरह के पवित्र अनुष्ठान जैसे पवित्र कार्य एक गृहस्थ के लिए अपूर्ण माना जाता है। इसलिए राम के इस कार्य को पूर्ण करने के लिए तुम मेरे विमान में बैठ जाओ पर ध्यान रहे की तुम उस वक्त भी मेरे अधीन ही रहोगी।
इसके बाद रावण माता सीता के साथ उस स्थान पर अर्थात रामेश्वरम पहुंचा जहाँ श्री राम ने अनुष्ठान का आयोजन किया था। भगवान राम ने रावण को प्रणाम करने के साथ ही उसका उचित आदर सत्कार किया। इसके पश्चात रावण द्वारा अनुष्ठान सम्पन कराया गया।
यज्ञ के बाद राम द्वारा आचार्य रावण को दक्षिणा देने की बारी आयी। राम ने दक्षिणा की प्रतिज्ञा लेते हुए रावण से कहा की आचार्य आप अपनी दक्षिणा बतलाइए।
दक्षिणा के रूप रावण ने जो मांगा वह आश्चर्य चकित करने वाला था। प्रभु राम का शत्रु होने के बावजूद रावण ने राम जी से कहा घबराओ नहीं यजमान मैं कोई ऐसी वस्तु दक्षिणा में नहीं मांगूंगा जो आप देने में असमर्थ हों या जो आपको अपने प्राणों से भी प्रिय हो।मैं तो अपने यजमान से सिर्फ यही दक्षिणा में चाहता हूं की जब वह मृत्यु शैय्या पर होरें तो यह यजमान अर्थात राम उसके सम्मुख हों। भगवान श्री राम ने रावण को वचन दिया की वह समय आने पर अपना वचन अवश्य निभाएंगे। विदित है कि रावण जब अंतिम सांसें ले रहा था उस वक्त भगवान राम ने रावण को दर्शन तो दिया ही था अपने लघु भ्राता लक्ष्मण को रावण से कुछ शिक्षा लेने को भी भेजा था। लक्ष्मण जाकर रावण कि सिरहाने खड़े हो गये लेकिन जब बहुत देर तक रावण कुछ नहीं बोला तो वे लौट आये। राम ने पूछा -क्या सीखा? लक्ष्मण का उत्तर था वह तो कुछ बोला ही नहीं। राम ने पूछा -तुम कहां खड़े थे? लक्ष्मण का उत्तर था-रावण के सिरहाने। इस पर राम ने कहा-लक्ष्मण गुरु से कुछ सीखना हो तो उसके चरणों के पास बैठना चाहिए। लक्ष्मण दोबारा रावण के पास गये और चरणों की ओर खड़े होकर बोले-महाराज मुझे कुछ शिक्षा दीजिए। रावण ने लक्ष्मण को राजनीति के कई गुर सिखाने के बाद एक सबसे बड़ी बात कही-लक्ष्मण हमेशा ध्यान रखना कोई गुप्त बात अपने सगे भाई तक को ना बताना। इसके बाद रावण ने बताया कि उसने अपनी मृत्यु का रहस्य केवल अपने भाई विभीषण को बताया था और वही उसकी मृत्यु का कारण बना।
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