Monday, March 18, 2024

जब उदयन शर्मा जी से निकल आया मेरा रिश्ता

आत्मकथा-60



संपादक एसपी सिंह की हुई चाय पार्टी में रविवार की बागडोर उदयन शर्मा को सौंपने की घोषणा हो चुकी थी। उदयन शर्मा दिल्ली लौट गये थे। वे वहां रविवार के विशेष संवाददाता के रूप में रूप में कार्यरत थे। हम लोगों का उनसे कोई विशेष परिचय नहीं था लेकिन उनकी साहसिक पत्रकारिता के हम लोग कायल थे। उदयन जी तग़ड़े लिख्खाड़ थे और जो लिखते वह चर्चित भी होता था। उनके रविवार का संपादक  बनने की घोषणा से हम लोग कुछ संशय में थे। एसपी सिंह से हम लोगों का अच्छा तादाम्य बैठ गया था। उनकी कार्यशैली से भी हम लोग पूरी तरह परिचित थे। वे लोगों को सम्मान देना भी जानते थे। हम उनके साथ जुड़े थे इसलिए उनकी प्रशंसा नहीं कर रहे उस वक्त पत्रकार जगत में भी एसपी सिंह की ख्याति थी। सभी उनकी साहसिक, बेखौफ पत्रकारिता के प्रशंसक और कायल भी थे। खबर की उनकी पकड़ भी उल्लेखनीय थी। जिस खबर की अहमियत कुछ संपादक नहीं समझ पाते थे और उसे अखबारों में उपेक्षित ढंग से छाप कर उस खबर को किल कर देते थे उसी पर एसपी रविवार में कवर स्टोरी बना कर धमाका कर देते थे।

 उदयन जी के बारे में हम लोग यही सोच रहे थे कि वे नये हैं और उनसे तादाम्य स्थापित करने में हमें समय लग सकता है।

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एक सप्ताह बाद ही उदयन शर्मा दिल्ली से आ गये और उन्होंने रविवार के संपादक का कार्यभार संभाल लिया। उदयन जी के काम संभालने के अगले दिन ही एसपी सिंह ने रविवार के हम सभी साथियों से विदा ली और नवभारत टाइम्स ज्वाइन करने दिल्ली चले गये। उनको विदा देते हम लोगों की आंखें नम हो गयी थी। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि जनता  से सरोकार रखनेवाली सार्थक पत्रकारिता हमने एसपी सिंह के साथ रह कर सीखी। वे अपने सभी साथियों से अधिकारी की तरह नहीं बड़े भाई की तरह पेश आते थे। उन्हें कभी किसी से नाराज होते हमने नहीं देखा। बहुत ही मिलनसार और खुले दिल के थे हमारे एसपी। उनके दोस्त कवि, लेखक से लेकर पुलिस अधिकारी तक थे। वे जब भी एसपी के कक्ष में आते देर तक उनका कक्ष ठहाकों से गूंजता रहता था। ठहाके तब और तेज और धारावाहिक हो जाते थे जब एसपी के कक्ष में उनके प्रिय मित्र और युवा कवि अक्षय उपाध्याय होते थे।

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एसपी सिंह के जाने के बाद दूसरे दिन ही उदयन शर्मा ने रविवार के संपादक के रूप में कार्यभार संभाल लिया। धीरे धीरे

उनसे परिचय हुआ तो वे भी बहुत खुले दिल के मस्तमौला और सबसे मित्रवत, भ्रातृवत व्यवहार करनेवाले निकले। उनके व्यवहार ने हम सबकी उन आशंकाओं को काफूर कर दिया जो हम रविवार के नये संपादक उदयन शर्मा के बारे में अपने दिल में पाले हुए थे।उदयन शर्मा मस्तमौला थे। लिक्खाड़ ऐसे कि आधा घंटे को अपना चैंबर बंद कर लें और आधा घंटे बाद खोलें तो एक कवर स्टोरी या विशेष रिपोर्ट तैयार।

 कवर स्टोरी और विशेष रिपोर्ट लिखने के अलावा एक और अवसर होता था जब उदयन जी भीतर से अपना चैंबर आधे घंटे को बंद कर लेते थे। यह समय होता था उनके बंगाल के प्रिय मिष्टी दोई यानी मीठा दही खाने का। वे करीब आधा किलो मीठा दही मंगाते जो उनको बहुत भाता था। एक बार मैं ही पास था तो उन्होंने मुझे ही दरवाजा बंद करने को कहा। मैंने उनके आदेश का पालन किया।

 बाद में एक बार ऐसे ही मैंने उनसे पूछ लिया-पंडित जी, यह दही खाते वक्त यह दरवाजा बंद करने का रहस्य समझ में नहीं आया।

उदयन जी ने कहा-राजेश खाना परदे में ही करना चाहिए। पता नहीं किसकी नजर कैसी हो। मैं आधा किलो दही खा रहा हूं उसी वक्त कोई आ जाये तो मुझे उतना दही खाते ही अगर उसके मुंह से निकल गया –अरे इतना दही खाते हैं। सच मानो राजेश उसके बाद वह दही जहर हो गया। कुछ लोगों की नजर बहुत घातक होती है।

इसे विषयांतर ना समझें उदयन जी की इस बात को सिद्ध करने के लिए मैं अपने बचपन में लौटता हूं। बबेरू तहसील के गांव जुगरेहली में आने के पहले मेरे माता-पिता बांदा शहर में रहते थे जो हमारा जिला है। उनकी वहां मुगौड़ों की मशहूर दुकान थी जहां से जज और बड़े-बड़े अधिकारी मुगौड़े मंगवाते थे। महराज की मुगौड़े की दूकान बांदा में प्रसिद्ध थी। मुगौड़े मूंग की दाल के बने पकौड़े होते हैं। पिता जी बताते थे कि कहीं बाहर से मूर्तिकार आते थे जो मिट्टी की मूर्तियां बनाते थे। वे लोग भी जब खाना खाते थे तो परदा लगा लेते थे। पिता जी ने भी उन मूर्तिकारों से भी वही पूछा जो मैंने उदयन जी से पूछा था-परदे में खाने का मतलब।

 उन मूर्तिकारों में से एक ने जवाब दिया-पंडित जी जब भी खाना खायें परदे में खायें। सबके सामने खाना उचित नहीं होता। किसी किसी की नजर खराब होती है अगर वे आपका खाना देख कर बस यह कह दें –कि इतना खाते हैं। तो अगर उनकी नजर बुरी है तो संभव है अगले दिन से आप कुछ भी ना खा सकें। ऐसी होती है बुरी नजर। हमारे परिवार का एक सदस्य ऐसे ही कष्ट से गुजर चुका है। वह खाना खा रहा था तभी एक महिला आयी और उसे देख कर उसने बस इतना ही कहा-हाय इतना खाते हो।

सच मानिए दूसरे दिन से उसकी भूख मर गयी उसका खाना बंद हो गया। कई महीनों के इलाज के बाद ही वह कुछ निवाले खाने लायक हो पाया।

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उदयन जी के धाकड़ और मस्तमौला स्वभाव से तो हम परिचित थे ही वे बड़े लिख्खाड थे। उनके आने के बाद रविवार ने फिर गति पकड़ ली जो लंबी हड़ताल के बाद थम सी गयी थी। कुछ अरसा बीतने के बाद यह तय हुआ कि रविवार के पृष्ठ बढ़ाये जायेंगे और रंगीन पृष्ठों की संख्या भी बढ़ेगी।

 यहां यह भी बताते चलें कि रविवार में हमारे साथ कुछ नये साथी भी जुड़ गये थे। इनमें संजीव क्षितिज, राजशेखर मिश्र, संजय द्विवेदी, कमर वहीद नकवी,रामकृपाल सिंह जुड़ गये थे।

कंपनी की ओर से उदयन जी को एक मकान दिया गया था। वहां उनके साथ रहने के लिए उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा भी आ गयी थीं। उनकी मदद के लिए एक लड़का उनके मायके मध्य प्रदेश के छतपुर जिले के गौरिहार से आया था।

एक दिन की बात है कि हम सब लोग कार्यालय में काम कर रहे थे तभी वह गौरिहार वाला लड़का रविवार के आफिस में आया। हमारे पंडित जी उदयन शर्मा शायद कोई सामान भूल गये थे वह वही देने आया था। वह मेरी चेयर की पास वाली चेयर पर बैठा था।

 थोड़ी देर बाद मैंने पूछा-भाई आप कहां से है।

उत्तर मिला-गौरिहार से।

आप गौरिहार से यहां क्यों और कैसे आये हैं।

उसका उत्तर था-हमारी नीलिमा भाभी गैरिहार की हैं उनकी मदद के लिए ही उनके मायके वालों ने मुझे भेजा है।

 मैंने कहा-अरे गौरिहार तो मेरा ननिहाल है।

 लड़के ने चौंक कर पूछा किस परिवार में।

मेरा जवाब था-पाठक परिवार में। मेरे एक मामा का नाम प्यारेलाल पाठक है।

 यह सुनते ही वह लड़का चौंक कर बोला-अरे यह तो हमारी नीलिमा भाभी का परिवार है।

 उसने यह बात लौट कर नीलिमा शर्मा जी को बता दी। नीलिमा जी ने उदयन जी को बता दिया कि आपके यहां जो राजेश त्रिपाठी हैं वे तो मेरे संबंधी निकले। उनका ननिहाल गौरिहार में हमारे परिवार में है।

 दूसरे दिन जब उदयन शर्मा जी कार्यालय आये तो कार्यालय का दरवाजा खोलते हुए संपाजकीय के सभी साथियों को संबोधित करते हुए बोले-भाई सभी लोग ध्यान से सुनिए, अरे पंडित (उदयन जी मुझे इसी तरह संबोधित करते थे) तो मेरा रिश्तेदार निकला। मध्य प्रदेश के गौरिहर में जिस परिवार में मेरी ससुराल है वही पंडित का ननिहाल है।

  उनका यह कहना कुछ चेहरों पर मुसकान बिखेर गया तो कुछ पर मुरदनी छा गयी। ऐसा क्यों हुआ यह मैं नहीं जान पाया क्योंकि किसी से कितनी भी घनिष्ठता हो मेरी यह आदत नहीं कि मैं उनसे अपने लिए विशेष कुछ आशा रखूं।

 उदयन जी की एक और बात याद आ रही है। वे चाहते थे कि मैं जीन्स पैंट पहनूं। कई बार उन्होंने हमारे संपादकीय मित्र राजशेखर को रुपये तक दे दिये और कहा कि –जाओ पंडित को न्यू मार्केट से जीन्स पैंट खरीदवा लाओ।

 इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा कि मैं पंडित जी की यह बात नहीं मान सका।जीन्स पैंट पहनने  के लिए लगातार मना करता रहा। (क्रमश:)

 

 

 

 


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