Thursday, April 11, 2024

जब उदयन जी ने करीब पूरा अंक ही मुझसे लिखवा लिया

आत्मकथा-61




उदयन जी और एसपी सिंह में एक अंतर यह था कि एसपी थोड़े गंभीर किस्म के थे। अपने सहयोगियों से उतना नहीं खुल पाते थे जितना वे अपने अन्य बंधुओं जैसे कवि अक्षय उपाध्याय, पुलिस अधिकारी व दूसरों से खुलते या बेतकल्लुफी से मिलते थे। जहां तक उदयन शर्मा की बात है वे जो कहना तपाक से कह देते थे। एक शब्द में कहें तो बड़े मस्त मौला व्यक्ति थे उदयन जी। यह तो पहले ही बता आये हैं कि वे बड़े लिक्खाड़ थे। धीरे धीरे पंडित जी हम सबका अच्छा तादाम्य बैठ गया। अपरिचय का परदा तो उसी दिन हट गया था जिस दिन पता चला था कि मेरा ननिहाल और उनका ससुराल एक ही परिवार में है। यह एक अनोखा संयोग ही था जो शायद पता ही ना चलता अगर मेरे ननिहाल गौरिहार का लड़का उदयन जी की धर्मपत्नी नीलिमा शर्मा जी की मदद के लिए कोलकाता ना आता और उससे इसका पता ना चलता कि पंडित जी की ससुराल उसी परिवार में है जो परिवार मेरा ननिहाल है।

काफी दिनों बाद पता चला कि अधिक पीने के चलते उनको लीवर की कुछ तकलीफ हो गयी है। डाक्टर ने उनको लिव 52 प्रेस्क्राइव था। हम लोग देखते थे कि वे लिव 52 तो लेते थे लेकिन अपनी पीने की आदत नहीं छोड़ पाये। एक दिन पूछ लिया-` क्या भैया , डाक्टर ने मना किया है अब तो छोड़ दीजिए। यह क्या लिव 52 भी और बोतल भी?' वे हंसते हुए बोले-` अरे पंडित, लिव 52 लेकर मैंने डाक्टर का कहा मान लिया लेकिन दिल की बात भी तो माननी होगी। यह जो चाहता है, वह भी करता हूं।'

पंडित जी कलकत्ता का पानी नहीं पीते थे। वे कहते थे-` यहां का पानी पीकर बीमार होना है क्या। मैं तो मिनरल वाटर, कोल्ड ड्रिंक या अपना ब्रांड पीता हूं।' आत्मीयता इतनी की अपने सहयोगियों से हमेशा बेतकल्लुफी से मिलते। मैं दफ्तर जाते वक्त घर से लंच बाक्स साथ ले जाता था। उदयन जी अपने चैंबर से निकलते और अगर मुझे भिंडी की सब्जी के साथ रोटी खाते देख लेते तो बगल की सीट पर बैठ कर कहते-`पंडित एक रोटी दे। जानता नहीं भिंडी मेरी कमजोरी है। मैं छोड़ ही नहीं सकता।' मेरे बाक्स से रोटी और भिंडी की सब्जी ले खाने लगते। खाने के बाद बोलते-`पंडित, कहीं भूखे तो नहीं रह जाओगे।कुछ मिठाई वगैरह मंगाये देता हूं।' मैं उन्हें मना कर देता की जरूरत नहीं है।

***

सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। तभी वह समय आया जब हिंदी फिल्मों के पचहत्तर साल पूरे हो रहे थे। यह बताते चलें कि तब तक रविवार के पेज बढ़ चुके थे। रंगीन पेजों की संख्या भी बढ़ गयी थी। एक दिन अचानक उदयन जी ने अपने कक्ष में बुलाया और कहा- पंडित हिंदी सिनेमा के पचहत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। हिंदी फिल्में पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। हम चाहते हैं कि क्यों ना इस अवसर पर इसी विषय पर एक विशेषांक निकाला जाये। हमारा विषय होगा कि पचहत्तर साल बाद हमारा हिंदी सिनेमा कहां जा रहा है। क्यों वह कामर्सियल और आर्ट फिल्म के दायरे में फंस कर रह गया है। कैसे हुई शुरुआत और कहां पहुंचा हमारा हिंदी सिनेमा। इस अंक के ज्यादातर पृष्ठ आपको लिखने हैं कुछ मैं और अन्य लोग लिऱ लेंगे लेकिन एक तरह से यह अंक आपको ही लिखना है। मैंने कहा पंडित जी यह काम मुंबई के किसी फिल्मी पत्रकार से करवा लेते तो अच्छा रहता। वे बोले मुंबई वाले नहीं आपको करना है।

 अब मैं ना नहीं कर सका। उदयन जी ने मुझ पर विश्वास किया था तो मेरा भी यह दायित्व बन गया कि मैं ऐसा काम करूं जिससे उदयन जी को उससे निराशा ना हो। अब चूंकि हिंदी फिल्मों का इतिहास लिखना था तो आवश्यक था कि कुछ संदर्भों की तलाश की जाये। इसमें आनंद बाजार की लाइब्रेरी ने मेरी मदद की। एक सप्ताह तक मैं अपना नियमित काम बंद कर लाइब्रेरी में बंद रहा और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत से लेकर उसके क्रमिक विकास और प्रगति के आंकड़े जुटाता रहा। उसके बाद जो  आर्टिकल मैंने उदयन जी को दिया वह उन्हें बहुत पसंद आया और उन्हें मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा-यही तो मैं चाहता था। बहुत अच्छा हुआ है। अब इसके लिए एक शीर्षक खोजो।

  मैंने कहा-शीर्षक तो आप ही खोजिए।

 उदयन जी ने कहा- तुम कोई पुराना फिल्मी गीत गुनगुनाओ मैं उससे ही शीर्षक निकाल लूंगा।

 मैंने कहा-मुझे फिल्म बहू बेगम का एक गीत निकले थे कहां जाने के लिए पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं, अब अपने भटकते कदमों को मंजिल का निशां मालूम नहीं

 यह सुनते ही पंडित जी सहसा बोल पड़े – पंडित मिल गया शीर्षक-हिंदी सिनेमा के पचहत्तर साल यह सब हेड होगा और मेन हेडिंग होगी-पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं।

 फिर उन्होंने इस हेंडिंग के मायने का विस्तार से अर्थ बताते हुए कहा देखो ना इतना लंबा सफर फिल्म इंडस्ट्री ने पूरा कर लिया लेकिन यह अब तक कामर्सियल फिल्मों और आर्ट फिल्मों के द्वंद्व से नहीं निकल पायी।

 वह विशेषांक मेरे बताये शीर्षक के साथ निकला जिसके अधिकांश पृष्ठ मेरे लिखे हुए थे। कुछ हमारे संपादकीय साथ असीम चक्रवर्ती ने लिखे थे। इस अंक में पंडित जी का एक लेख भी था-सबसे खूबसूरत कौन। ठीक से याद नहीं आता पर जहां तक याद आता है यह लेख रेखा पर था।

इस अंक को लिखने के बाद मुझे गर्व नहीं आत्मतुष्टि की अनुभूति हुई कि चलो मैं पंडित जी की कसौटी पर खरा उतरा।

पंडित जी ने रविवार में रहते वक्त राजनीति में भी दांव आजमाया था,चुनाव भी लड़ा पर सफलता नहीं मिली। उनका छात्र जीवन आगरा में बीता। वे बताया करते थे कि अभिनेता राज बब्बर उनके साथ थे और वे छात्र नेता थे। (क्रमश

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