Thursday, April 11, 2024

जब उदयन जी ने करीब पूरा अंक ही मुझसे लिखवा लिया

आत्मकथा-61




उदयन जी और एसपी सिंह में एक अंतर यह था कि एसपी थोड़े गंभीर किस्म के थे। अपने सहयोगियों से उतना नहीं खुल पाते थे जितना वे अपने अन्य बंधुओं जैसे कवि अक्षय उपाध्याय, पुलिस अधिकारी व दूसरों से खुलते या बेतकल्लुफी से मिलते थे। जहां तक उदयन शर्मा की बात है वे जो कहना तपाक से कह देते थे। एक शब्द में कहें तो बड़े मस्त मौला व्यक्ति थे उदयन जी। यह तो पहले ही बता आये हैं कि वे बड़े लिक्खाड़ थे। धीरे धीरे पंडित जी हम सबका अच्छा तादाम्य बैठ गया। अपरिचय का परदा तो उसी दिन हट गया था जिस दिन पता चला था कि मेरा ननिहाल और उनका ससुराल एक ही परिवार में है। यह एक अनोखा संयोग ही था जो शायद पता ही ना चलता अगर मेरे ननिहाल गौरिहार का लड़का उदयन जी की धर्मपत्नी नीलिमा शर्मा जी की मदद के लिए कोलकाता ना आता और उससे इसका पता ना चलता कि पंडित जी की ससुराल उसी परिवार में है जो परिवार मेरा ननिहाल है।

काफी दिनों बाद पता चला कि अधिक पीने के चलते उनको लीवर की कुछ तकलीफ हो गयी है। डाक्टर ने उनको लिव 52 प्रेस्क्राइव था। हम लोग देखते थे कि वे लिव 52 तो लेते थे लेकिन अपनी पीने की आदत नहीं छोड़ पाये। एक दिन पूछ लिया-` क्या भैया , डाक्टर ने मना किया है अब तो छोड़ दीजिए। यह क्या लिव 52 भी और बोतल भी?' वे हंसते हुए बोले-` अरे पंडित, लिव 52 लेकर मैंने डाक्टर का कहा मान लिया लेकिन दिल की बात भी तो माननी होगी। यह जो चाहता है, वह भी करता हूं।'

पंडित जी कलकत्ता का पानी नहीं पीते थे। वे कहते थे-` यहां का पानी पीकर बीमार होना है क्या। मैं तो मिनरल वाटर, कोल्ड ड्रिंक या अपना ब्रांड पीता हूं।' आत्मीयता इतनी की अपने सहयोगियों से हमेशा बेतकल्लुफी से मिलते। मैं दफ्तर जाते वक्त घर से लंच बाक्स साथ ले जाता था। उदयन जी अपने चैंबर से निकलते और अगर मुझे भिंडी की सब्जी के साथ रोटी खाते देख लेते तो बगल की सीट पर बैठ कर कहते-`पंडित एक रोटी दे। जानता नहीं भिंडी मेरी कमजोरी है। मैं छोड़ ही नहीं सकता।' मेरे बाक्स से रोटी और भिंडी की सब्जी ले खाने लगते। खाने के बाद बोलते-`पंडित, कहीं भूखे तो नहीं रह जाओगे।कुछ मिठाई वगैरह मंगाये देता हूं।' मैं उन्हें मना कर देता की जरूरत नहीं है।

***

सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। तभी वह समय आया जब हिंदी फिल्मों के पचहत्तर साल पूरे हो रहे थे। यह बताते चलें कि तब तक रविवार के पेज बढ़ चुके थे। रंगीन पेजों की संख्या भी बढ़ गयी थी। एक दिन अचानक उदयन जी ने अपने कक्ष में बुलाया और कहा- पंडित हिंदी सिनेमा के पचहत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। हिंदी फिल्में पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। हम चाहते हैं कि क्यों ना इस अवसर पर इसी विषय पर एक विशेषांक निकाला जाये। हमारा विषय होगा कि पचहत्तर साल बाद हमारा हिंदी सिनेमा कहां जा रहा है। क्यों वह कामर्सियल और आर्ट फिल्म के दायरे में फंस कर रह गया है। कैसे हुई शुरुआत और कहां पहुंचा हमारा हिंदी सिनेमा। इस अंक के ज्यादातर पृष्ठ आपको लिखने हैं कुछ मैं और अन्य लोग लिऱ लेंगे लेकिन एक तरह से यह अंक आपको ही लिखना है। मैंने कहा पंडित जी यह काम मुंबई के किसी फिल्मी पत्रकार से करवा लेते तो अच्छा रहता। वे बोले मुंबई वाले नहीं आपको करना है।

 अब मैं ना नहीं कर सका। उदयन जी ने मुझ पर विश्वास किया था तो मेरा भी यह दायित्व बन गया कि मैं ऐसा काम करूं जिससे उदयन जी को उससे निराशा ना हो। अब चूंकि हिंदी फिल्मों का इतिहास लिखना था तो आवश्यक था कि कुछ संदर्भों की तलाश की जाये। इसमें आनंद बाजार की लाइब्रेरी ने मेरी मदद की। एक सप्ताह तक मैं अपना नियमित काम बंद कर लाइब्रेरी में बंद रहा और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत से लेकर उसके क्रमिक विकास और प्रगति के आंकड़े जुटाता रहा। उसके बाद जो  आर्टिकल मैंने उदयन जी को दिया वह उन्हें बहुत पसंद आया और उन्हें मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा-यही तो मैं चाहता था। बहुत अच्छा हुआ है। अब इसके लिए एक शीर्षक खोजो।

  मैंने कहा-शीर्षक तो आप ही खोजिए।

 उदयन जी ने कहा- तुम कोई पुराना फिल्मी गीत गुनगुनाओ मैं उससे ही शीर्षक निकाल लूंगा।

 मैंने कहा-मुझे फिल्म बहू बेगम का एक गीत निकले थे कहां जाने के लिए पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं, अब अपने भटकते कदमों को मंजिल का निशां मालूम नहीं

 यह सुनते ही पंडित जी सहसा बोल पड़े – पंडित मिल गया शीर्षक-हिंदी सिनेमा के पचहत्तर साल यह सब हेड होगा और मेन हेडिंग होगी-पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं।

 फिर उन्होंने इस हेंडिंग के मायने का विस्तार से अर्थ बताते हुए कहा देखो ना इतना लंबा सफर फिल्म इंडस्ट्री ने पूरा कर लिया लेकिन यह अब तक कामर्सियल फिल्मों और आर्ट फिल्मों के द्वंद्व से नहीं निकल पायी।

 वह विशेषांक मेरे बताये शीर्षक के साथ निकला जिसके अधिकांश पृष्ठ मेरे लिखे हुए थे। कुछ हमारे संपादकीय साथ असीम चक्रवर्ती ने लिखे थे। इस अंक में पंडित जी का एक लेख भी था-सबसे खूबसूरत कौन। ठीक से याद नहीं आता पर जहां तक याद आता है यह लेख रेखा पर था।

इस अंक को लिखने के बाद मुझे गर्व नहीं आत्मतुष्टि की अनुभूति हुई कि चलो मैं पंडित जी की कसौटी पर खरा उतरा।

पंडित जी ने रविवार में रहते वक्त राजनीति में भी दांव आजमाया था,चुनाव भी लड़ा पर सफलता नहीं मिली। उनका छात्र जीवन आगरा में बीता। वे बताया करते थे कि अभिनेता राज बब्बर उनके साथ थे और वे छात्र नेता थे। (क्रमश

Monday, March 18, 2024

जब उदयन शर्मा जी से निकल आया मेरा रिश्ता

आत्मकथा-60



संपादक एसपी सिंह की हुई चाय पार्टी में रविवार की बागडोर उदयन शर्मा को सौंपने की घोषणा हो चुकी थी। उदयन शर्मा दिल्ली लौट गये थे। वे वहां रविवार के विशेष संवाददाता के रूप में रूप में कार्यरत थे। हम लोगों का उनसे कोई विशेष परिचय नहीं था लेकिन उनकी साहसिक पत्रकारिता के हम लोग कायल थे। उदयन जी तग़ड़े लिख्खाड़ थे और जो लिखते वह चर्चित भी होता था। उनके रविवार का संपादक  बनने की घोषणा से हम लोग कुछ संशय में थे। एसपी सिंह से हम लोगों का अच्छा तादाम्य बैठ गया था। उनकी कार्यशैली से भी हम लोग पूरी तरह परिचित थे। वे लोगों को सम्मान देना भी जानते थे। हम उनके साथ जुड़े थे इसलिए उनकी प्रशंसा नहीं कर रहे उस वक्त पत्रकार जगत में भी एसपी सिंह की ख्याति थी। सभी उनकी साहसिक, बेखौफ पत्रकारिता के प्रशंसक और कायल भी थे। खबर की उनकी पकड़ भी उल्लेखनीय थी। जिस खबर की अहमियत कुछ संपादक नहीं समझ पाते थे और उसे अखबारों में उपेक्षित ढंग से छाप कर उस खबर को किल कर देते थे उसी पर एसपी रविवार में कवर स्टोरी बना कर धमाका कर देते थे।

 उदयन जी के बारे में हम लोग यही सोच रहे थे कि वे नये हैं और उनसे तादाम्य स्थापित करने में हमें समय लग सकता है।

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एक सप्ताह बाद ही उदयन शर्मा दिल्ली से आ गये और उन्होंने रविवार के संपादक का कार्यभार संभाल लिया। उदयन जी के काम संभालने के अगले दिन ही एसपी सिंह ने रविवार के हम सभी साथियों से विदा ली और नवभारत टाइम्स ज्वाइन करने दिल्ली चले गये। उनको विदा देते हम लोगों की आंखें नम हो गयी थी। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि जनता  से सरोकार रखनेवाली सार्थक पत्रकारिता हमने एसपी सिंह के साथ रह कर सीखी। वे अपने सभी साथियों से अधिकारी की तरह नहीं बड़े भाई की तरह पेश आते थे। उन्हें कभी किसी से नाराज होते हमने नहीं देखा। बहुत ही मिलनसार और खुले दिल के थे हमारे एसपी। उनके दोस्त कवि, लेखक से लेकर पुलिस अधिकारी तक थे। वे जब भी एसपी के कक्ष में आते देर तक उनका कक्ष ठहाकों से गूंजता रहता था। ठहाके तब और तेज और धारावाहिक हो जाते थे जब एसपी के कक्ष में उनके प्रिय मित्र और युवा कवि अक्षय उपाध्याय होते थे।

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एसपी सिंह के जाने के बाद दूसरे दिन ही उदयन शर्मा ने रविवार के संपादक के रूप में कार्यभार संभाल लिया। धीरे धीरे

उनसे परिचय हुआ तो वे भी बहुत खुले दिल के मस्तमौला और सबसे मित्रवत, भ्रातृवत व्यवहार करनेवाले निकले। उनके व्यवहार ने हम सबकी उन आशंकाओं को काफूर कर दिया जो हम रविवार के नये संपादक उदयन शर्मा के बारे में अपने दिल में पाले हुए थे।उदयन शर्मा मस्तमौला थे। लिक्खाड़ ऐसे कि आधा घंटे को अपना चैंबर बंद कर लें और आधा घंटे बाद खोलें तो एक कवर स्टोरी या विशेष रिपोर्ट तैयार।

 कवर स्टोरी और विशेष रिपोर्ट लिखने के अलावा एक और अवसर होता था जब उदयन जी भीतर से अपना चैंबर आधे घंटे को बंद कर लेते थे। यह समय होता था उनके बंगाल के प्रिय मिष्टी दोई यानी मीठा दही खाने का। वे करीब आधा किलो मीठा दही मंगाते जो उनको बहुत भाता था। एक बार मैं ही पास था तो उन्होंने मुझे ही दरवाजा बंद करने को कहा। मैंने उनके आदेश का पालन किया।

 बाद में एक बार ऐसे ही मैंने उनसे पूछ लिया-पंडित जी, यह दही खाते वक्त यह दरवाजा बंद करने का रहस्य समझ में नहीं आया।

उदयन जी ने कहा-राजेश खाना परदे में ही करना चाहिए। पता नहीं किसकी नजर कैसी हो। मैं आधा किलो दही खा रहा हूं उसी वक्त कोई आ जाये तो मुझे उतना दही खाते ही अगर उसके मुंह से निकल गया –अरे इतना दही खाते हैं। सच मानो राजेश उसके बाद वह दही जहर हो गया। कुछ लोगों की नजर बहुत घातक होती है।

इसे विषयांतर ना समझें उदयन जी की इस बात को सिद्ध करने के लिए मैं अपने बचपन में लौटता हूं। बबेरू तहसील के गांव जुगरेहली में आने के पहले मेरे माता-पिता बांदा शहर में रहते थे जो हमारा जिला है। उनकी वहां मुगौड़ों की मशहूर दुकान थी जहां से जज और बड़े-बड़े अधिकारी मुगौड़े मंगवाते थे। महराज की मुगौड़े की दूकान बांदा में प्रसिद्ध थी। मुगौड़े मूंग की दाल के बने पकौड़े होते हैं। पिता जी बताते थे कि कहीं बाहर से मूर्तिकार आते थे जो मिट्टी की मूर्तियां बनाते थे। वे लोग भी जब खाना खाते थे तो परदा लगा लेते थे। पिता जी ने भी उन मूर्तिकारों से भी वही पूछा जो मैंने उदयन जी से पूछा था-परदे में खाने का मतलब।

 उन मूर्तिकारों में से एक ने जवाब दिया-पंडित जी जब भी खाना खायें परदे में खायें। सबके सामने खाना उचित नहीं होता। किसी किसी की नजर खराब होती है अगर वे आपका खाना देख कर बस यह कह दें –कि इतना खाते हैं। तो अगर उनकी नजर बुरी है तो संभव है अगले दिन से आप कुछ भी ना खा सकें। ऐसी होती है बुरी नजर। हमारे परिवार का एक सदस्य ऐसे ही कष्ट से गुजर चुका है। वह खाना खा रहा था तभी एक महिला आयी और उसे देख कर उसने बस इतना ही कहा-हाय इतना खाते हो।

सच मानिए दूसरे दिन से उसकी भूख मर गयी उसका खाना बंद हो गया। कई महीनों के इलाज के बाद ही वह कुछ निवाले खाने लायक हो पाया।

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उदयन जी के धाकड़ और मस्तमौला स्वभाव से तो हम परिचित थे ही वे बड़े लिख्खाड थे। उनके आने के बाद रविवार ने फिर गति पकड़ ली जो लंबी हड़ताल के बाद थम सी गयी थी। कुछ अरसा बीतने के बाद यह तय हुआ कि रविवार के पृष्ठ बढ़ाये जायेंगे और रंगीन पृष्ठों की संख्या भी बढ़ेगी।

 यहां यह भी बताते चलें कि रविवार में हमारे साथ कुछ नये साथी भी जुड़ गये थे। इनमें संजीव क्षितिज, राजशेखर मिश्र, संजय द्विवेदी, कमर वहीद नकवी,रामकृपाल सिंह जुड़ गये थे।

कंपनी की ओर से उदयन जी को एक मकान दिया गया था। वहां उनके साथ रहने के लिए उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा भी आ गयी थीं। उनकी मदद के लिए एक लड़का उनके मायके मध्य प्रदेश के छतपुर जिले के गौरिहार से आया था।

एक दिन की बात है कि हम सब लोग कार्यालय में काम कर रहे थे तभी वह गौरिहार वाला लड़का रविवार के आफिस में आया। हमारे पंडित जी उदयन शर्मा शायद कोई सामान भूल गये थे वह वही देने आया था। वह मेरी चेयर की पास वाली चेयर पर बैठा था।

 थोड़ी देर बाद मैंने पूछा-भाई आप कहां से है।

उत्तर मिला-गौरिहार से।

आप गौरिहार से यहां क्यों और कैसे आये हैं।

उसका उत्तर था-हमारी नीलिमा भाभी गैरिहार की हैं उनकी मदद के लिए ही उनके मायके वालों ने मुझे भेजा है।

 मैंने कहा-अरे गौरिहार तो मेरा ननिहाल है।

 लड़के ने चौंक कर पूछा किस परिवार में।

मेरा जवाब था-पाठक परिवार में। मेरे एक मामा का नाम प्यारेलाल पाठक है।

 यह सुनते ही वह लड़का चौंक कर बोला-अरे यह तो हमारी नीलिमा भाभी का परिवार है।

 उसने यह बात लौट कर नीलिमा शर्मा जी को बता दी। नीलिमा जी ने उदयन जी को बता दिया कि आपके यहां जो राजेश त्रिपाठी हैं वे तो मेरे संबंधी निकले। उनका ननिहाल गौरिहार में हमारे परिवार में है।

 दूसरे दिन जब उदयन शर्मा जी कार्यालय आये तो कार्यालय का दरवाजा खोलते हुए संपाजकीय के सभी साथियों को संबोधित करते हुए बोले-भाई सभी लोग ध्यान से सुनिए, अरे पंडित (उदयन जी मुझे इसी तरह संबोधित करते थे) तो मेरा रिश्तेदार निकला। मध्य प्रदेश के गौरिहर में जिस परिवार में मेरी ससुराल है वही पंडित का ननिहाल है।

  उनका यह कहना कुछ चेहरों पर मुसकान बिखेर गया तो कुछ पर मुरदनी छा गयी। ऐसा क्यों हुआ यह मैं नहीं जान पाया क्योंकि किसी से कितनी भी घनिष्ठता हो मेरी यह आदत नहीं कि मैं उनसे अपने लिए विशेष कुछ आशा रखूं।

 उदयन जी की एक और बात याद आ रही है। वे चाहते थे कि मैं जीन्स पैंट पहनूं। कई बार उन्होंने हमारे संपादकीय मित्र राजशेखर को रुपये तक दे दिये और कहा कि –जाओ पंडित को न्यू मार्केट से जीन्स पैंट खरीदवा लाओ।

 इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा कि मैं पंडित जी की यह बात नहीं मान सका।जीन्स पैंट पहनने  के लिए लगातार मना करता रहा। (क्रमश:)

 

 

 

 


Monday, January 8, 2024

जब एसपी सिंह ने पूछा-राजेश जी क्या आप श्राप देना जानते हैं?

आत्मकथा 58 


 आनंद बजार प्रकाशन समूह में कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त होने के कुछ दिन बाद ही प्रकाशन की साप्ताहिक हिंदी पत्रिका ‘रविवार’ ने फिर पहले जैसी गति पकड़ ली। अरसे बाद नयूजपेपर स्टैंड पर आयी अपनी प्रिय पत्रिका को लोगों ने हाथों हाथ लिया। मैं रविवार से जुड़ा था इसलिए उसकी प्रशंसा कर रहा हूं ऐसी बात नहीं है। उन दिनों के जो भी पाठक बड़ी उत्सुकता से इसके नये अंकों की प्रतीक्षा करते थे वे भी मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उस समय रविवार जैसी निर्भीक और साहसी पत्रिका कोई और नहीं थी। मै पहले ही लिख चुका हूं कि एसपी सिंह ने हिंदी पत्रकारिता में रविवार के माध्यम से जो न दैन्यम् न पलायनम् का आदर्श प्रस्तुत किया वह अतुलनीय था। उनकी पत्रकारिता ने अपने कर्तव्य निर्वहन में ना कभी दीनता दिखायी ना किसी सत्ता के भय से किसी मुद्दे को उठाने से ही हिचक दिखायी। सच को सच की तरह प्रस्तुत करना ही उस समय रविवार की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण था। कुछ दिन सब सामान्य चलता रहा फिर कार्यालय में हमारे सहकर्मियों के बीच सुगबुगाहट शुरू हुई कि सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी हमारे एसपी दा आनंद बाजार ग्रुप को छोड़ कर टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप ज्वाइन करने जा रहे हैं। जब यह चर्चा जोरों से चलने लगी तो लगा कि क्यों ना इस खबर की सच्चाई का पता एसपी साहब से ही लगा लिया जाये। यहां यह बताता चलूं कि मैं बिना किसी जरूरी प्रयोजन के एसपी के चैंबर में नहीं जाता था हालांकि हमारे कुछ साथी अक्सर उनके चैंबर घुस जाते और देर तक बातें करते रहते थे। एक दिन मैंने जब देखा कि एसपी कुछ खाली होंगे तो मैं उनके चैंबर में पहुंचा और उनको नमस्कार किया। एसपी ने कहा-बैठिए राजेश जी। मै उनके सामने की कुर्सी पर बैठ गया। एसपी बोले-कुछ कहना है राजेश जी। मैं बोला-कहना नहीं पूछना है। मैंने सुना है आप हम लोगों का साथ छोड़ कर टाइम्स ग्रुप में जा रहे हैं। क्या यह सच है। एसपी बोले-हां राजेश जी यह सच .है। उनकी बात सुन कर मेरा चेहरा उतर गया। मैं बोला-भैया आपसे पत्रकारिता के बारे में कितना कुछ सीखा, आपके नेतृत्व में काम करते हुए हम कितने गौरवान्वित थे कि हम एक ऐसे संपादक के साथ काम करते हैं जिसके लिए पत्रकारिता एक पेशा नहीं मिशन है। आपके बाद क्या होगा। मेरे चेहरे की उदासी एसपी की पारखी नजर ने पढ़ ली थी। वे मुझे ढाढस बंधाते हुए बोले-राजेश जी चिंता की कोई बात नहीं रविवार निकलता रहेगा। मैं नहीं तो कोई और संपादक आयेगा पत्रिका को और बेहतर निकालेगा। मैं बोला-मैं जानता हूं आप मुझे यह ढांढस बंधाने के लिए कह रहे हैं। हो सकता है कोई और आये पत्रिका भी निकलती रहे लेकिन क्या गारंटी है कि इसका वह तेवर बरकरार रहे जो इसे एसपी सिंह ने दिया है। एस पी बोले-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। वैसे निराश क्यों होते हैं संभव है भविष्य में हम लोग फिर साथ काम करें। मै समझ गया कि फिर से साथ काम करने की बात एसपी ने मेरा मन रखने के लिए कही थी। मैं उनको नमस्कार कर वापस अपने स्थान पर लौट आया। ***** सब ठीक ठाक चल रहा था। हमारे साथ कुछ नये साथी जुड़ गये। इनमें हमारे प्रिय भाई जयशंकर गुप्त भी थे जिनसे मेरी खूब पटती थी। इसके लिए उनका सहज व्यवहार जो मुझे बहुत पसंद है। आपने भी देखा होगा कि इस धरा पर मनुष्य मानव का शरीर होने के बावजूद ऐसा दंभ लिये जीते हैं जैसे वे मानवेतर कोई श्रेष्ठतर व्यक्ति हैं वे हम जैसे सामान्य जनों से निकटता रखना अपनी तौहीन समझते हैं। जयशंकर भाई बहुत ही प्यारे सहज इनसान हैं। मैं बाहर का खाना खाने का आदी नहीं हूं इसलिए मै अपना टिफिन और पीने का पानी साथ ले जाता था। अगर कभी मुझे दोपहर को टिफिन खोलने में देर होने लगती तो जयशंकर भाई बलते-अरे पंडित टिफिन खोलिए जरा छेना खिलाइए। यह रोज का क्रम बन गया था कि मैं टिफिन खोलता तो पहले जयशंकर भाई का छेना निकाल देते फिर कहीं पहला कौर तोड़ता। 
सुरेंद्र प्रताप सिंह


 गरमी अपने चरम पर थी। ऐसे में पीने के पानी के लिए मेरा भरोसा सिर्फ और सिर्फ घर से ले जाया गया एक बोतल पानी ही होता था। पानी खत्म हो जाये तो मुझे बाकी समय प्यासे ही गुजार देना पड़ता था। आफिस के अन्य लोग तो कार्यालय में उपलब्ध नलों में आने वाला पानी पी लेते थे मैं वैसा नहीं कर पाता था। एक बार मेरे साथ कार्यालय में अजीब वाकया घट गया। एक दन की हात है मै अपने काम में व्यस्त था। यहां मैं यह बताता चलूं कि जब हमारे साथियों की संख्या बढ़ी तो रविवार से जुड़े साथी दो अलग अलग कमरों में बैठने लगे। कुछ लोग एसपी के साथ भवन की बाहरी दीवार से सटे गलियारे जैसे हिस्से में जैसे बैठते थे वैसे ही बैठे रहे मै उधर से उस बड़े कमरे में आ गया जिसमें हमारे कुछ साथी और बच्चों की बांग्ला पत्रिका आनंदमेला का संपादकीय विभाग साथ-साथ बैठता था। यह उस समय की बात है जब आनंद बाजार पत्रिका के कार्यालय में नये ढंग का डेकोरेशन किया गया था। हर विभाग की दीवारें कांच की पारदर्शी हो सकी थीं। ऐसे में अगर हम एसपी सिंह वाले कमरे से अपने आनंदमेला के कमरे में जायें तो वहां जाते वक्त कांच की पारदर्शी दीवार के चलते अंदर का पूरा दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। जिस घटना का मैं जिक्र करने जा रहा हूं उसके लिए यह बताना आवश्यक है। गर्मी के दिन थे दोपहर का समय था मै आनंदमेला वाले सेक्शन में अपने काम में व्यस्त था तभी एसपी सिंह वाले कमरे से हमारे साथी गंगाप्रसाद आये और बोले आपको एसपी ने बुलाया है। मैं वहां से उठ कर एसपी के कक्ष में आया और बोला- भैया आपने बुलाया। एसपी बोले-नहीं तो। किसने कहा। मैंने कहा-गंगाप्रसाद बोले की आप बुला रहे हैं। एसपी बोले-नहीं देखिए कहीं वे आपसे कोई मजाक या शरारत तो नहीं कर रहे। मैं वापस लौटा तो बगल की पारदर्शी कांच की दीवार से दिख गया कि गंगाप्रसाद और हमारे एक और साथी विजयकुमार मेरी पानी की बोतल से पानी पी रहे हैं। मैंने तो उन्हें देख लिया पारदर्शी कांच की दीवार के उस पार से उन दोनों ने भी मुझे देख लिया और हड़बड़ी में मेरी बोतल गिरा दी और उसका सारा पानी गिर गया। मैं अंदर पहुंचा और मेरे मुंह से बस इतना निकला-यह क्या किया आप लोगों ने अब यह ब्राह्मण कई घंटों तक प्यासा रह जायेगा। पानी पीना था तो पूछ कर पी लेते। आपने मेरा दिल दुखा दिया, अच्छा नहीं किया। उस दिन बाकी के घंटे मैं प्यासा ही रह गया। दूसरे दिन जब मैं कार्यालय पहुंचा तो सबसे पहले एसपी ने अपने कक्ष में बुलाया। वे मुझसे बोले-राजेश जी क्या आप श्राप देना जानते हैं। मैं बोला –नहीं भैया पर आप यह क्यों पूछ रहे हैं। एस पी बोले-कल गंगाप्रसाद और विजयकुमार मिश्र ने चोरी से आपका पानी पी लिया था और आप बहुत दुखी हुए थे। आपका श्राप उनको लग गया। गंगाप्रसाद वापस लौटते वक्त ट्रेन में चढ़ते समय ट्रेन प्लेटफार्म में गिर गये और उनको काफी चोट लग गयी। उधर विजयकुमार मिश्र घर लौटे तो उनके पिता जी ताला बंद कर अपने किसी परिचित के यहां चले गये थे। उन्हें रात बरामदे में गुजारनी पड़ी और मच्छड़ों ने उन्हें काट कर उनका चेहरा और हाथ-पैर लाल कर दिये। मैं बोला-नहीं भैया मैंने आज तक किसी का अहित नहीं चाहा चाहे किसी ने मेरे साथ किसी ने कितना भी बुरा किया हो मैंने सभी का भला ही चाहा पर यह सच है कल मैं उनकी शरारत के बाद घर लौटने तक प्यासा ही रह गया। इसके कुछ समय बाद गंगाप्रसाद एक अखबार में काम करने पटना चले गये। वहां से जब भी कोलकाता आते तो हम लोगों के कार्यालय में सबसे मिलने आते थे। तब मेरी बोतल से पानी पीने के पहले पूछ लिया करते थे। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि श्राप कुछ और नहीं व्यथित दिल से निकली एक आह या करुण पुकार होती है जिससे संभव है किसी का अहित हो जाता हो इसलिए प्रयास होना चाहिए की सबसे से प्रेम का व्यवहार कर उनका आशीष ही लेना चाहिए। (क्रमश:)

Friday, September 29, 2023

हड़ताल के दौरान सांसत भरे दिन थे,दहशत भरी रातें

आत्मकथा-57 

आनंद बाजार पत्रिका प्रकाशन समूह के पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों की हिम्मत और जज्बे के जोर से 51 दिन व्यापी लंबी हड़ताल तो टूट गयी लेकिन इसे हड़ताली कर्मचारियों ने अपनी हार के तौर पर लिया। यह उन्हें कतई बरदाश्त नहीं था कि उनका लंबा आंदोलन इस तरह से ध्वस्त कर दिया जाये। उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखने का निर्णय लिया। काम पर लौटने के बजाय वे आनंद बाजार कार्यालय से चंद कदम की दूरी पर स्थित हिंदुस्तान ब्लिडिंग के सामने धरना देकर बैठ गये। ड्यूटी ज्वाइन करने के बजाय वे आंदोलन करते रहे। अपने ही संस्थान के खिलाफ उनकी नारेबाजी जारी रही। इतना ही नहीं जो महिला पत्रकार हड़ताल भंग होने के दिन कार्यालय में प्रवेश नहीं कर पायी थीं वे अगले दिन से ड्यूटी ज्वाइन करने आतीं तो हड़ताली कर्मचारी उन्हें भी धमकाते। आनंद बाजार पत्रिका हड़ताल टूटने के बाद से लगातार छपने लगी थी लेकिन उसके वितरण में भी बाधा डालने की कोशिश की जा रही थी। इस पर कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने अभीक सरकार से संपर्क किया और कहा कि हम अपने कार्यकर्ताओं की मदद से अपने-अपने इलाके में आनंद बाजार पत्रिका का वितरण बिना बाधा के करवा सकते हैं। अभीक सरकार इसके लिए राजी नहीं हुए और उन्होंने कहा कि इस परेशानी से हम खुद निपटेंगे। हड़ताली काम पर नहीं लौटे और उन्होंने किसी ना किसी तरह से उत्पात और बाधा डालते रहे। जहां तक प्रबंधन का प्रश्न है उनकी कोशिश अपने कर्मचारियों को हर संभन सहायता पहुंचाने का भरसक प्रयत्न रहा। सुबह का नाश्ता, दिन और रात का भोजन हम सबको निरंतर मिल रहा था। इसमें भी बाधा पहुंचाने की कोशिश बराबर जारी रही। हड़ताली कर्मचारी रास्ते में उन गाड़ियों पर हमला करते जो आनंद बाजार प्रकाशन के कर्मचारियों के लिए भोजन बनाने का सामान चावल. साग-सब्जी आदि लाती थीं। इसके बावजूद प्रबंधन डिगा नहीं। कर्मचारियों को रोजाना मिलनेवाले नाश्ते, दो वक्त के भोजन में एक दिन का भी व्यवधान नहीं आया। * हम लोग रविवार के अगले अंकों के लिए मैटर तैयार करने में जुटे थे। दिन तो किसी ना किसी तरह से कट जाता था मुश्किल रात को आती थी। दूसरों की नहीं जानता मेरी बड़ी खराब आदत यह है कि अपरिचित जगह में मुझे कतई नींद नहीं आती। हड़ताल टूटने के बाद से ही रोज रात का एक अजीब सिलसिला बन गया था। जब आधी रात होती और हम अलसायी आंखों से ऊंघते होते उस वक्त हड़ताली आकर मेन गेट का बंद शटर जोर जोर से पीटने लगते। इसे सुन कर अंग्रेजी साप्ताहिक ‘संडे’ के पत्रकार तुषार पंडित हर डिपार्टमेंट में दौड़े आते और कहते- सावधान आक्रमण आक्रमण। जाहिर है इसके बाद से दहशत का माहौल रहता। सबकी नींद काफूर हो जाती। यह रोज का सिलसिला बन गया था। इस सांसत के बीच थी हमारी जिंदगी। इसी तरह हफ्तों तक चलता रहा। इस तरह के माहौल में रहने जीने का पहले कभी मौका नहीं मिला था। कुछ दिन बाद ही मेरी तबीयत खराब होने लगी। फिर बुखार आ गया। मेरी यह स्थित देख कर हमारे संपादक एस पी सिंह जी ने मेरे बड़े भैया को फोन कर के कहा कि-आप भाई को ले जाइए वैसे भी अभी यहां कोई विशेष काम नहीं हो रहा। यह ठीक हो जायेंगे और स्थितियां सामान्य हो जायेंगी तो हम इन्हें बुला लेंगे। एस पी सिंह ने मेरे भैया को समझा दिया था कि वे ओरिएंट सिनेमा की गली की तरफ से टैक्सी लेकर आयें और प्रेस के गेट पर रुक जायें। भाई राजेश को उधर से ही निकालेंगे सामने हड़ताली बाधा पहुंचा सकते हैं। भैया ने वैसा ही किया और मैं घर लौट आया। घर लौट कर डाक्टर को दिखाया और उनकी दवा से एक हफ्ते में बुखार ठीक हो गया। मैंने एस पी सिंह जी को फोन किया और कहा-भैया बुखार तो उतर गया है पर कमजोरी है। आप जैसा कहें वैसा करूं। उधर एस पी सिंह जी का जवाब आया-अभी कोई विशेष काम तो हो नहीं रहा आप आराम कीजिए जब स्थितियां थोड़ा अनुकूल होंगी हम बुला लेंगे। * दो हफ्ते बाद स्थितियां धीरे-धीरे अनुकूल होने लगीं। जब हड़ताली कर्मचारी आनंदबाजार पत्रिका का महानगर में वितरण और रेल द्वारा दूसरी जगह जाने को रोकने में असफल रहे को धीरे-धीरे उनका हौसला भी पस्त होने लगा। अब उनको अपनी नौकरी जाने का भय भी सताने लगा था। स्थितियां अनुकूल होने पर एस पी सिंह ने मुझे भी कार्यालय बुला लिया। अब स्थिति यह बनी कि हम सुबह ड्यूटी टाइम में आफिस जाने और शाम को अवकाश के बाद घर वापस आने लगे। आनंद बाजार संस्थान में स्थितियां सामान्य हुईं और दैनिक आनंद बाजार पत्रिका का प्रकाशन और वितरण सामान्य हुआ तो एक और बड़ी घटना हुई। संस्थान के द्वार पर यह नोटिस चिपका दी गयी कि जो हड़ताली कर्मचारी सात दिन के अंदर अपनी ड्यूटी ज्वाइन नहीं करेंगे उनकी सेवाएं समाप्त कर दी जायेंगी। इस नोटिस से हड़तालियों में हड़कंप मच गया। उनमें से जो अपने गांव चले गये थे उन्हें उनके साथियों की ओर से सूचना भेजी गयी कि जल्दी लौटो वरना नौकरी चली जायेगीऑ। जिस दिन हड़ताली कर्मचारियों ने आनंदबाजार कार्यालय में प्रवेश किया उस दिन का दृश्य भी अजीब था। जब हड़ताली कर्मचारी कार्यालय में प्रवेश कर रहे थे तो अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका संडे के संपादक एमजे अकबर बहुत खफा हो गये। वे उन सीढ़ियों पर खड़े हो गये जिससे हड़ताली चढ़ कर ऊपर आ रहे थे। अकबर जोर-जोर से चीख कर कर रहे थे-इन लोगों ने काम रक आनेवाली हमारी महिला पत्रकारों को धमकाया और अपशब्द कहे। मैं इन्हें भीतर नहीं आने दूंगा। पास खड़े मालिक अभीक सरकार उनसे अनुरोध कर रहे थे-अकबर साहब इनसे भूल हुई, इन्हें माफ कर दीजिए। अपने ही कर्मचारी हैं कहां जायेंगे। अकबर ने कहा-नहीं कभी नहीं। अगर ये यहां रहेंगे तो फिर मैं इस्तीफा दे देता हूं। आर रख लो इन्हें। अभीक सरकार के बहुत समझाने पर अकबर नरम पड़े और हड़ताली कर्मचारी काम पर लौट आये। (क्रमश:)

Monday, August 7, 2023

जब हड़ताल ने ‘रविवार’ की रफ्तार में लगा दिया ब्रेक


 आत्मकथा-56


अपनी आत्मकथा में हम पहले ही बता आये हैं कि आनंद बाजार प्रकाशन का हिंदी साप्ताहिक रविवार भ्रष्टाचार, अनाचार और राजनीतिक अनीति के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए विख्यात था। यह स्पष्ट है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं और किसी भी तरह के भ्रष्टाचार, अनाचार के विरुद्ध आवाज उठाना जब हड़ताल ने ‘रविवार’ की रफ्तार में लगा दिया ब्रेक आपका ध्येय और उद्देश्य है तो कभी ना कभी आपको उनके प्रतिरोध या कहें विरोध का सामना करना ही पड़ेगा जिनके विरुद्ध आप आवाज उठा रहे हैं। रविवार के साथ कोई ना कोई मामला लगा ही रहता था। यह और बात है कि किसी रिपोर्ट पर मामला होने पर लीगल विभाग घबराता नहीं खुश होता था और मामले को आखिरी परिणति तक लड़ता था। किसी ऐसी रिपोर्ट के बारे में जिस पर कानूनी विवाद होने की आशंका रहती थी लीगल विभाग रिपोर्टर या लेखक से उस रिपोर्ट में किसी पर लगाये गये आरोपों से संबंधित डाक्युमेंट अवश्य मंगा लेता था। इससे होता यह था कि अगर वह व्यक्ति जिस पर आरोप लगाये गये हैं मुकदमा भी करता तो दस्तावेजी सबूतों के सहारे रविवार मामला जीत जाता था।

  इस क्रम में एक मामला ऐसा भी आया था जिसके बाद लगा कि रविवार के प्रकाशन पर संकट आ जायेगा लेकिन वह संकट भी पार हो गया।  हम लोग आश्वस्त हुए और रविवार भी निरंतर शान से निकलता और  पाठकों के दिल में घर करता रहा। लोगों को इस बात की खुशी थी कि ठकुरसुहाती वाली पत्रकारिता के दौर में एक पत्रिका तो ऐसी आयी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्ता के सर्वोच्च स्थान पर भी चोट करने का दम रखती है।

*

सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक सुबह ऐसा कुछ हुआ जिसकी हमने कल्पना तक नहीं की थी। हम कार्यालय पहुंचे तो देखा मेन गेट बंद था और वहां लाल रंग का बैनर लगा दिया गया था जिसमें हड़ताल की सूचना थी। यूनियन के कुछ कर्मचारी नारेबाजी कर रहे थे। जब मैं वहां पहुंचा उसके कुछ देर बाद आनंद बाजार पत्रिका प्रकाशन की बच्चो की पत्रिका मेला के सहयोगी साथी हरिनारायण सिंह भी वहां पहुंच गये। हम दोनों ने हड़ताली यूनियन वालों को बहुत समझाने की बात की कि भाई बंद किसी चीज का समाधान नहीं प्रबंधन से बात कर के जो समस्या है उसे सलटा लीजिए। हमें मत रोकिए हमारी पत्रिका का बहुत काम बाकी है अंक प्रेस में छोड़ना है।

मैंने और हरिनारायण सिंह ने बहुत समझाया पर वे नहीं माने। तब तक और पत्रकार आ गये थे, उन्होंने भी समझाया पर हड़ताली कर्मचारी हड़ताल करने पर कटिबद्ध थे। उन्होंने द्वार नहीं खोला और नारेबाजी करते रहे। हम लोग वापस लौट आये।

दूसरे दिन इस उम्मीद में गये कि शायद प्रबंधन से हड़तालियों का समझौता हो गया हो पर हमारी उम्मीदों पर उस वक्त पानी फिर गया जब हमने देखा कि हड़तालियों की संख्या बढ़ गयी है और वे हड़ताल जारी रखने पर अडिग हैं। यह रविवार जैसी पत्रिका में जो उत्तरोत्तर लोकप्रियता के नये शिखर तय कर रही थी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़नेवालों का हथियार बन गयी थी इस तरह ब्रेक लग जाना किसी भी तरह से सही नहीं था। यह घटना मेरे खयाल से 1982 की है।

   जब यह समझ में आ गया कि हड़ताल किसी भी कीमत पर खत्म नहीं होगी तो फिर आनंग बाजार पत्रिका से जुड़े पत्रकारों, संपादकों और उन कर्मचारियों ने जो हड़ताल में शामिल नहीं थे मिल-बैठ कर एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। तय यह किया गया कि आनंदबाजार पत्रिका प्रकाशन से जुड़े पत्रकारों और गैर पत्रकारों की एक समिति बनायी जाये जो निरंतर बैठक करे और हड़ताल कैसे समाप्त करायी जा सके उसका समाधान खोजे। आनंद बाजार कार्यालय तो बंद था वहां हड़तालियों का कब्जा था इसलिए पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मियों की जो समिति बनायी गयी उसकी बैठक बाहर एक मैदान में होती थी। वहां रोज यही विचार किया जाता कि हड़ताल जितनी लंबी खिंचेगी आनंद बाजार संस्थान और उससे जुड़े पत्रकारों, संस्थान के प्रकाशनों पर उतना ही ज्यादा असर  पड़ेगा। हम रविवार से जुड़े पत्रकार सर्वाधिक चिंतित थे क्योंकि जब हड़ताल हुई वह समय हमारी पत्रिका के उत्कर्ष का समय था। जब लोग हर हफ्ते रविवार के नये अंक के लिए उत्सुक रहते थे उस वक्त उसके प्रकाशन में अचानक ब्रेक लग जाना ना सिर्फ उसकी प्रगति में बाधक था बल्कि उसके पाठकों के लिए भी निराशा का कारण था। अनेक प्रयास करने के बाद भी हड़ताल खत्म नहीं हुई। इधर पत्रकार और गैर पत्रकार समिति की बैठक भी अक्सर होती रही यह तय करने के लिए कि इस गतिरोध को कैसे रोका जाये। पचास दिन बीत गये पर हड़ताली अपने ध्येय से टस से मस ना हुए। पत्रकारों और गैर पत्रकारों की समिति का भी धैर्य टूट रहा था। आखिरकार पचासवें दिन यह तय किया गया कि जैसे भी हो कल कार्यालय में जबरन घुसना है। जब यह तय हो गया कि कल का दिन निर्णायक है हर हाल में हड़ताल तोड़वानी है तो मैंने अपने साथी जयशंकर गुप्त से कहा-भाई आप मेरे घर आ जाना हम लोग साथ आ जायेंगे।

 दूसरे दिन तय समय में जयशंकर गुप्त मेरे घर पहुंच गये। उनसे मेरी श्रीमती ने कहा-जरा इनका खयाल रखियेगा।

जयशंकर गुप्त ने कहा-भाभी चिंता मत कीजिए, मैं हूं ना मेरे रहते पंडित को कुछ नहीं होगा।

 उनके विश्वास दिलाने से मेरी पत्नी आश्वस्त हो गयी।

हम लोग जब वहां पहुंचे जहां रोज पत्रकार और गैर पत्रकारों की समिति की बैठक होती थी वहां सभी लोग जबरन आनंद बाजार कार्यालय में घुसने को तैयार मिले। संयोग से वहां मुझे सन्मार्ग के फोटोग्राफर भैया सुधीर उपाध्याय जी मिल गये। मैं उन्हें बड़े भाई सा सम्मान देता हूं और उनका भी निरंतर स्नेह मुझे मिलता है। उन्होंने जब मुझे देखा तो संकेत से अपने पास बुलाया।

 भैया सुधीर उपाध्याय ने मुझे बताया- मैं देख कर आया हूं हड़ताली कर्मचारी सोडावाटर की बोतलें, ईँटें और दूसरा सामान लिये उस गली के आसपास की बिल्डिंगों की छतों पर जमे हैं जिससे तुम सब लोग अपने दफ्तर तक जाओगे। हड़तालियों का तुम लोगों पर हमला करने का पूरा इंतजाम है। तुम सावधान रहना बहादुरी दिखाने के चक्कर में घायल मत हो जाना।

  मैंने यह सूचना अपने साथी जयशंकर गुप्त को भी दे दी जो मेरे साथ थे। जयशंकर गुप्त ने कहा –चलो देखते हैं क्या होता है। हम लोग आनंद बाजार कार्यालय की ओर जाने वाली वाटरलू स्ट्रीट में अभी कुछ कदम ही आगे ब़ढ़े ही थे की आसपास की छतों से सोडावाटर की बोतलों, ईंटों की अचानक बौछार शुरू हो गयी। भीड़ में हड़कंप मच गया। कई लोग घायल हो गये। मुझे पीछे मुड़ कर देखते वक्त सोडावाटर फटने से उसका एक टुकड़ा जयशंकर गुप्त के पेट में लग गया। मेरे पीछे आनंद बाजार प्रकाशन की बच्चों की हिंदी पत्रिका मेला के संपादक योगेंद्र कुमार लल्ला थे। उन्होंने जब देखा कि आगे बढ़ना मुश्किल है तो मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया और सुरक्षा की दृष्टि से हम लोग पास की एक बिल्डिंग में घुस गये और वहां की खिड़की से सारा कुछ देखते रहे। हड़ताली कर्मचारी सोडावाटर की बोतलें और दूसरी चीजें फेंक रहे थे और नीचे  पत्रकार और गैर पत्रकार घायल हो रहे थे। इन हमलों से भी भीड़ ने हार नहीं मानी। सभी तय कर चुके थे कि हड़ताल तोड़ना ही है। अनेक लोग घायल हो गये थे जिनमें कुछ की स्थिति गंभीर थी जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। ज्यादा घायल होने वालों में दैनिक आनंद बाजार पत्रिका के वरिष्ठ संपाजक और आनंद बाजार प्रबंधन के बड़े अधिकारी भी थे।

 हंगामा थमा तो मैं और लल्ला जी घर वापस लौट आये। शाम को जयशंकर गुप्त मेरे घर आये और आते ही मेरी श्रीमती से बोले-भाभी पंडित को खोजने के लिए मैं पीछे मुड़ा ही था कि सोटावाटर की बोतल के स्पिलिंटर से मेरे पेट में चोट लग गयी। खैर खुशी की बात यह थी कि पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों में से अधिकांश आनंद बाजार पत्रिका भवन में प्रवेश करने में सफल हो गये थे हालांकि उनमें कई लोगों को चोटें भी लगी थीं।

  जयशंकर गुप्त ने कहा-कुछ कपड़े वगैरह साथ ले लो, आफिस के मेन गेट पर अभी भी हड़ताली जुटे हैं हम लोग प्रेस वाले गेट से चुपचाप घुस जायेंगे। वैसा ही किया गया हम दोनों भी आफिस में पहुंच गये।

 वहां जाने पर पता चला कि  आनंद बाजार के मालिक अभीक सरकार शाम को अस्पताल में घायल संपादक और अन्य लोगों का हालचाल पूछने गये थे।

 जब उन्होंने एक वरिष्ठ संपादक से पूछा-आप कैसे हैं। क्या चाहते हैं।

वरिष्ठ संपादक का जवाब था-मैं कल अपना पेपर आनंदबाजार देखना चाहता हूं।

  इस पर अभीक बाबू ने जवाब दिया-पचास दिन से मशीनें बंद पड़ी थीं उन पर धूल जमी है उसे साफ करने में भी समय लग जायेगा। कैसे संभव हो सकेगा कल अखबार निकालना।

  संपादक का जवाब था- मैं कुछ नहीं जानता वह आपकी समस्या है। आपने मेरी इच्छा पूछी मैंने बता दिया।

 अभीक सरकार बोले-आपकी इच्छा का में सम्मान करता हूं। चाहे जो कुछ भी हो कल आपका आनंद बाजार अवश्य निकलेगा।

 कहना नहीं होगा कि मशीन पर खतरा हो सकता है यह जानते हुए भी अभीक सरकार ने अपने वरिष्ठ संपादक की इच्छा पूरी की और दूसरी सुबह स्वयं अखबार लेकर उनसे मिलने अस्पताल गये। (क्रमश:)

 

 

Monday, April 24, 2023

कैसे कैसे किस्से, कैसे कैसे लोग

 


आत्मकथा-55

आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक रविवार में कार्य के दौरान विविध प्रकार के अनुभव हुए। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलने साहित्यकार और पत्रकार तो आते ही रहते थे। कई बार ऐसे लोग भी आते थे जो अपने व्यक्तित्व और कार्य में औरों से अलग और अनोखे होते थे। ऐसे ही एक व्यक्तित्व का यहां उल्लेख करना जरूरी है। उनका नाम था वसंत पोतदार। लंबे-चौड़े डीलडौल और बुलंद आवाज वाले वसंत पोतदार अच्छे वक्ता और एकल अभिनय में माहिर तो थे ही वे अच्छे लेखक भी थे। एकल अभिनय में वे हिंदी, मराठी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में प्रस्तुति देते थे। कहते हैं कि जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में एकल अभिनय करते थे तो पूरे हाल में सन्नाटा छा जाता था। बस कुछ सुनाई देता था तो लगातार बजनेवाली तालियां और वसंत पोतदार का विवेकानंद के रूप में उनके संदेश का बुलंद स्वर। उनका भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर आधारित वंदे मातरम कार्यक्रम भी बहुत चर्चित और प्रशंसित हुआ था। इसके अतिरिक्त वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस व अन्य महान व्यक्तित्वों के चरित्र पर वे एकल अभिनय करते थे। उन्होंनेकई पुस्तकें भी लिखी थीं।

वसंत पोतदार
 सुरेंद्र जी में एक खूबी यह भी थी कि वे कुछ देर किसी से मिल कर ही यह पहचान लेते थे कि उसमें क्या माद्दा है। वसंत पोतदार की प्रतिभा को पहचानने में भी उनको देर ना लगी। उन्होंने उनसे कहा-वसंत हमारे लिए एक साप्ताहिक स्तंभ लिखना है आपको।

वसंत पोतदार-अरे यार मैं क्या लिखूंगा काहे बेमतलब में मुझे फंसाते हो।

सुरेंद्र जी-कोलकाता महानगर में तो तुम भटकते ही रहते हो देखो कई ऐसे लोग तुम्हें यों ही जीते मिल जायेंगे। बेमतलब जीते इन लोगों में कोई ना कोई प्रतिभा होगी. बस वही तुम्हें उभारना है। स्तंभ का नाम होगा-कुछ जिंदगियां बेमतलब।

 दूसरे दिन से ही वसंत ने काम शुरू कर दिया। उन्होंने कोलकाता के गली-कूचों और कोने-कोतरे में पड़े ऐसे कलाकारों और हुनरमंद लोगों की कहानी लिखनी शुरू कर दी जो काफी लोकप्रिय हुई। कुछ जिंदगियां बेमतलब स्तंभ कुछ दिन में ही लोकप्रिय हो गया। इसमें वसंत ऐसे व्यक्तित्वों की कहानी कहते जो दुनिया से विलग अपनी गुमनाम सी जिंदगी जी रहे थे। वे बस अपनी कला या हुनर में खोये रहते थे।

 वसंत यायावर का-सा जीवन बिताते थे। एक जगह टिक कर नहीं रहते थे। वे मुंबई वापस जाते  और कुछ महीने बाद फिर वापस आते। एक बार की बात है वे बहुत दिन बाद हमारे रविवार के कार्यालय में आये उन्होंने संकेत से जानना चाहा कि सुरेंद्र जी हैं क्या। मैं सझ गया था पर मैंने ऐसा भान किया कि मैं समझा नहीं। इसके बाद वसंत पोतदार ने जेब से एक कागज निकाला और उस पर लिखा-इन दिनो मेरे मौन व्रत चल रहा है, बोल नहीं रहा हूं। सुरेंद्र जी कहां हैं।

  मैंने उत्तर दिया- अरे वसंत जी आपके जैसा व्यक्ति जिसकी आवाज ही उसकी पहचान है वह इस तरह मौन धारण कर लेगा तो कैसे चलेगा।

  मेरी बात सुनते ही वसंत पोतदार ने बुलंद ठहाका लगाया और बोले-अरे आपने ने तो मेरा मौन व्रत तोड़वा दिया। कई महीने से मौन था आपकी बातों से वह प्रण टूट गया।

*

हमारे संपादक सुरेंद्र जी बहुत ही ईमानदार और उसूल के पक्के इनसान थे। उन्होंने जिस संस्थान में भी काम किया कभी किसी भी प्रकार की आर्थिक, व्यवस्था संबंधी या अन्य अनियमितता नहीं होने दी। `रविवार' के उनके कार्यकाल का एक प्रसंग याद आता है। एक फिल्म पत्रकार जो मुंबई में रहते थे एसपी के पुराने मित्रों में थे। एक बार वे कोलकाता आये उन्हें पैसों की दरकार पड़ गयी। एसपी से उन्होंने एक हजार रुपये मांगे और कहा कि यह पैसा वे `रविवार' के लिए लेख लिख कर चुका देंगे। एसपी ने उनको एक हजार रुपये कार्यालय से अग्रिम दिलवा दिये। इसके बाद वे पत्रकार महोदय कई बार आये लेकिन लेख लिखना भूल गये उधर एसपी को कार्यालय के रुपयों की चिंता थी जो उन्होंने उन पत्रकार महोदय को दिलवाये थे। कई बार उनसे ताकीद की पर वे बिना लेख दिये मुंबई लौट जाते थे। एक बार वे कोलकाता आये तो एसपी ने एक मोटा लिखने का पैड उन्हें दिया और अपने चैंबर में बैठा दिया । उनसे कहा कि आज वे पत्रिका के लिए तीन-चार लेख लिख कर ही बाहर निकलें। बाहर आये तो हम लोगों से बोले कि ये जो पत्रकार भीतर लिख रहे हैं वे चार लेख तैयार कर लें तभी बाहर जा पायें। इस बीच पानी वगैरह मांगे तो दिलवा दिया जाये लेकिन हर हाल में उनको लेख लिखवा कर ही मुक्त करना है। कहना नहीं होगा कि उस पत्रकार ने भी एसपी का कहा माना और जब लेख पूरे हो गये तो मुसकराते हुए चैंबर से बाहर आये और कहा-` लो भाई चुका दिया एसपी का कर्जा, अब तो मैं जाऊं। वाकई एसपी जैसा कोई और नहीं होगा।' उस पत्रकार के चेहरे पर परेशानी या तनाव का भाव नहीं बल्कि एक आत्मतोष का भाव था कि उसने अपने एसपी दा को बेवजह की बेचारगी से बचा लिया।

थोड़ी देर बाद एसपी लौटे तो चैंबर खाली पाया लेकिन उनके दीर्घप्रतीक्षित लेख वहां थे। वे बाहर आये और उन्होंने कहा कि वे चाहते तो ये पैसा अपनी तरफ से चुका सकते थे लेकिन तब वे एक गलत आदत को प्रोत्साहन देने के भागीदार बन जाते। वह पत्रकार दूसरी जगह भी ऐसा करते रहते। इतने ईमानदार और उसूल के पक्के थे वे।

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प्रसिद्ध फोटो जर्नलिस्ट सुधीर उपाध्याय द्वारा कोलकाता के महाजाति सदन के सामने खींची गयी मेरे परिवार की फोटो में बायें से दायें-भैया रुक्म जी, बेटा अवधेश,भाभी निरुपमा,बेटी अनामिका, बेटा अनुराग, मेरी सहधर्मिणी वंदना त्रिपाठी और मैं


हमारे परिवार में पहली संतान के रूप में बेटी अनामिका, दूसरा बेटा अनुराग और मेरे रविवार में जाने के बाद छोटे बेटे अवधेश का जन्म हुआ। इस पर भी सुरेंद्र जी से जुड़ा एक प्रसंग यादा आया। भैया हमारी तीसरी संतान होने की खुशी में रविवार के हमारे साथियों के लिए मिठाई लेकर गये। सबने बहुत प्रसन्नता जतायी। प्रसन्न सुरेंद्र जी भी हुए पर साथ ही उन्होंने भैया के माध्यम से मुझ तक यह संदेश भी भेजा-अब आगे नहीं अन्यथा संजय गांधी को बुला लेंगे।(क्रमश:)