Thursday, July 3, 2025
जब जनसत्ता के प्रबंधक ने मेरा इस्तीफा स्वीकार करने से मना किया
आगे बढ़ने से पहले जो पक्ष छूट गया उसका उल्लेख करना बहुत जरूरी है। जब हरिवंश जी से सारी बातें तय हो गयीं तो प्रभात खबर की वेबसाइट को ज्वाइन करने से पहले मैंने जनसत्ता के उप संपा–दक पद से अपना इस्तीफा जनसत्ता के संपादक शंभुनाथ शुक्ल जी को सौंप दिया। मेरा इस्तीफा देख शुक्ल जी चौंके और बोले – अरे राजेश जी यह क्या इस्तीफा क्यों।
Thursday, June 5, 2025
हरिवंश जी के नेतृत्व में नयी विधा में काम
मैंने
इनका धन्यवाद किया और कहा- रुपया मैं कल दे दूंगा।
वे बोले –जब
सुविधा हो दे दीजिएगा।
वेबसाइट एक तरह से पूरी तरह खाली थी। बस उसका
होमपेज बना था और जो विषय उसमें होने थे उनके लिंक होम पेज में थे। होमपेज में
जितने लिंक थे उनमें करेंट न्यूज के अतिरिक्त करेंट अफेयर,घटना,दुर्घटना, तीज, त्योहार,धर्म संस्कृति और विविध स्तंभ। हमारे
लिए यह शून्य से शुरू करने जैसी स्थिति थी। चुनौती बड़ी थी लेकिन पहले दिन से मैं
और झा जी काम में जुट गये। (क्रमश:)
Wednesday, May 21, 2025
Saturday, April 12, 2025
श्रीश जी के साथ फिल्म फेस्टिवल कवरेज इसलिए बन गया यादगार
आत्मकथा-74
श्रीश जी से नमस्ते आदि की औपचारिकताएं पूरी हुईं उसके बाद वे बोले कि उनको भी अपना कार्ड बनवाना है ताकि वे दिल्ली संस्करण के लिए समारोह का कवरेज कर सकें। हम लोग फिल्म समारोह निदेशालय के कलकत्ता स्थित अस्थायी कार्यालय गये और सारी बात बतायी तो वहां अधिकारियों ने कहा-‘आपके अखबार के लिए कलकत्ता के लिए एक कार्ड बना दिया गया है और कार्ड नहीं बन सकता।‘
श्रीश जी बोले-‘ मैं कलकत्ता नहीं दिल्ली संस्करण के लिए कार्ड मांग रहा हूं वहां हमारा मुख्य संस्करण है। हम वहां के लिए उद्घाटन समारोह व अन्य कार्यक्रमों का कवरेज कैसे करेंगे।‘
उस अधिकारी ने तपाक से कहा- ‘टीवी देख कर कवरेज कीजिए।‘
इसके बाद श्रीश जी अधिकारी से तो कुछ नहीं बोले पर मुझे ताकीद कर दी कि समारोह के आयोजन में जहां भी जो भी अव्यवस्था दिखे उसे जोरदार ढंग से उजागर कीजिएगा। उनके कहने पर ही मैंने उनको कार्ड ना मिलने की खबर को शीर्षक दिया-‘ पत्रकार को कहा गया कार्ड नहीं टीवी देख कर खबर बनाइए।’
उसके बाद से लगातार उनके साथ मैं फिल्म समारोह का कवरेज करता रहा। वे मेरा हौसला बढ़ाते रहे और मैं उनके निर्देश पर जैसी रिपोर्ट करता रहा शायद ही कोई वैसा कर पाया हो। इसे आत्मश्लाघा ना माने मुझे मेरे सीनियर (श्रीश जी) से फ्रीहैंड मिल गया था और मैंने उसका अक्षरश: पालन किया। हमारे शीर्षक होते थे-‘पत्रकार कार्ड के लिए टापते रहे अधिकारियों के रिश्तेदार हाल में धंस गये।‘ अब तो शीर्षक याद नहीं आ रहे लेकिन हमारी नजर हर उस अव्यस्था पर रही जो फिल्म समारोह निदेशालय की ओर से हुई।
श्रीश जी के ही कहने पर मैंने फिल्म समारोह निदेशालय की तत्कालीन डायरेक्टर से फोन पर समय लिया ताकि उऩका ध्यान इन अव्यस्थाओं की ओर दिला सकूं। उनसे समय मिल गया लेकिन जब मैं वहां गया तो उनके सहायक ने मुझे उनसे नहीं मिलने दिया। मैंने देखा कि दूसरे पत्रकार निदेशक से मिल-मिल कर जा रहे हैं। इस पर मैने उस सहायक से पूछा-‘ मैने समय ले रखा है मुझे जाने नहीं देते और ये कैसे जा रहे हैं।‘
उसका उत्तर था कि –‘नहीं आपको नहीं मिलने दिया जायेगा।‘ मुझे इस बात का एहसास हो गया कि जनसत्ता की रिपोर्टिंग के चलते शायद ये चिढे हैं जो इनकी अव्यवस्था की बखिया उधेड़ रही है। मैंने जब बार-बार जिद की तो वह सहायक बोला-‘आपको सारी प्रचार सामग्री दे गयी और क्या चाहिए।‘
मुझे बड़ा गुस्सा आया मैने कहा-‘अगर प्रचार सामग्री से ही काम चला लेना था तो आप लोग इतनी बड़ी टीम लेकर क्यों आये। यह तो मैं पीआईबी में कार्यरत अपने मित्र अधिकारी से भी ले लेता। समारोह के नाम पर क्या असुविधा हो रही है उसकी खबर आपको देना और उसकी ओर आप लोगों का ध्यान आकर्षित करना है।‘
शोर-शराबा सुन कर कलकत्ता पीआईबी कार्यालय के मेरे परिचित मित्र उठ कर मेरे पास आये और बोले –‘क्या बात है भाई साहब क्या परेशानी है।‘ मैंने अपने उस साथी से बताया कि यह हमारा स्थानीय मामला नहीं है मुझे दिल्ली वालों से जवाब चाहिए।
फिल्म निदेशालय के निदेशक से पत्रकार को नहीं मिलने दिया गया यह खबर भी हमने प्रमुखता से छापी। श्रीश जी ने मुझसे कह रखा था कि-‘आप जो कर रहे हैं बेहतर कर रहे हैं यह जारी रहना चाहिए। अगर कोई फिल्म अच्छी होगी तो मैं आपको देखने को कहूंगा।‘
अब श्रीश जी का वरदहस्त मुझ पर था तो मैं भी अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था। उस दौरान दिल्ली से आये एक बुजुर्ग पत्रकार अक्सर मुझसे खबर ले लेते थे। मैं उनसे परिचित नहीं था। एक दिन श्रीश जी ने मुझे उनके पास बैठे देखा तो मुझे आगाह किया-‘राजेश जी इन सज्जन को कोई खबर मत बताइएगा यह हमारे प्रतिद्वंदी एक हिंदी अखबार के लिए समारोह की रिपोर्टिंग कर रहे हैं।‘ मैंने उनसे कहा-‘भाई साहब मैं तो समझ रहा था कि ये दिल्ली के किसी अखबार के लिए काम कर रहे हैं, अच्छा हुआ आपने सजग कर दिया।‘उसके बाद वे सज्जन रोज की तरह मुझसे पूछते कि कोई खबर है क्या मैं मना कर देता
लेकिन दूसरे दिन जनसत्ता में जोरदार खबर पाकर वे कहते –‘अरे आप तो कह रहे थे कोई खबर नहीं इतनी जोरदार खबर छापी आपने।‘ मैं कुछ कह कर टाल देता था।
एक दिन उन साहब ने मुझे चौंका दिया। मुझे बुलाया और मेरे कान में बोले-‘कल संभल कर रहिएगा, कल नंदन में आतंकी हमला होने वाला है।‘ मैंने यह बात श्रीश जी से बतायी तो वे हंसने लगे और कहा-‘सुरक्षा के इतने कड़े प्रबंध हैं राजेश लगता है उस आदमी ने मजाक किया है या तुम्हें भ्रम में डाल कर यह गलत अखबार जनसत्ता में छपवाना चाहता है ताकि अखबार बदनाम हो जाये। वैसे एहतियात के तौर पर आप अपने रिपोर्टर प्रभात रंजन दीन से यह बात बता कर उनसे कहिएगा कि वे कोलकाता पुलिस मुख्यालय से फोन कर इस बारे में जानकारी ले लें।‘
मैंने कार्यालय आकर प्रभात रंजन दीन से पूरी बात बतायी और कहा कि श्रीश जी ने कहा है कि आप कोलकाता पुलिस मुख्यालय से पता कर लें। उन्होने पुलिस मुख्यालय में फोन किया तो वहां का अधिकारी हंसने लगे और बोले ‘हमें पता नहीं और किस पत्रकार को पता चल गया कि आतंकी आ रहे हैं।‘
हम निश्चिंत हो गये और श्रीश जी को भी धन्यवाद दिया कि किसी पत्रकार की गलत खबर जनसत्ता में प्लांट कराने के गुनाह से उन्होंने बचा लिया। उन दिनों मैं अपनी रिपोर्टिंग में नाम नहीं देता था। मेरी वह रिपोर्ट तब जनसत्ता के सभी संस्करणों में जाती थी। एक दिन नंदन परिसर [कोलकाता का वह परिसर जहां फिल्म समारोह आयोजित किये जाते हैं] में ही श्रीश जी बोले-‘राजेश जी आप अपनी रिपोर्ट्स में नाम क्यों नहीं देते।‘
मैंने कहा-‘छोड़िए ना भाई साहब काम करना है, नाम का क्या।‘
मैं उन्हें रोकूं इससे पहले वे हमारे स्थानीय संपादक को फोन पर कह चुके थे-‘राजेश जी ना भी कहें तो भी फिल्म समारोह की उनकी रिपोर्ट में उनका नाम अवश्य दें।‘
मैंने कहा-‘भाई साहब इसकी क्या जरूरत थी।‘
वे बोले-‘जरूरत थी राजेश जी।‘हम लोगों ने समारोह में होनेवाली अव्यवस्था की जम कर धज्जी उड़ायी थी। उसकी आंच फिल्म निदेशालय के अधिकारियों तक पहुंची थी यह पता मुझे तब चला जब इंडियन एक्सप्रेस की ओर से फिल्म समारोह निदेशालय के अधिकारियों और डायरेक्टर के सम्मान में भोज दिया गया। उस वक्त हमारे स्थानीय संपादक रहे श्यामसुंदर आचर्य ने डायरेक्टर से मेरा परिचय कराते हुए कहा-‘ये राजेश त्रिपाठी हैं इन्होंने हमारे लिए समारोह का कवरेज किया है।‘ इस पर डाइरेक्टर ने भौंहे तरेरते हुए कहा-‘ओह सो यू आर मिस्टर राजेश त्रिपाठी।‘ मेरे मुंह से भी तपाक से निकल गया-‘एस आई ऐम।‘
श्रीश जी से वही मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी। उन्होंने दिल्ली जाकर फैक्स संदेश भेजा-‘राजेश जी आपने समारोह का बहुत अच्छा कवरेज किया, इसके लिए धन्यवाद।‘ अफसोस फैक्स मैजेस के वे शब्द कागज से तो मिट गये पर मेरे मन मस्तिष्क में एक वरिष्ठ पत्रकार के आशीर्वचन से अंकित हो गये।
उन्हें हम फिल्मों का इन साइक्लोपीडिया कहते थे। बहुत ही विस्तृत और अद्भुत था उनका फिल्मी ज्ञान। उनके लेख पढ़ कर हमने बहुत जानकारी पायी। श्रीश जी जैसे पत्रकार जब जाते हैं एक बड़ा शून्य कर जाते हैं। (क्रमश;)
Wednesday, December 25, 2024
Tuesday, December 10, 2024
Wednesday, November 27, 2024
दुर्घटना जिसमें हम सबकी जान सांसत में फंस गयी
जनसत्ता दिनों दिन प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। जनसत्ता ने पाठकों में अपनी धाक जमा ली थी। समाचारों पर अच्छी पकड़, जनता से सरोकार रखनेवाले मुद्दों को प्रमुखता से स्थान देने के कदम ने इस समाचार पत्र को जन जन तक पहुंचा दिया था।
राज्य के
कोने कोने से खबर लाने वाले स्ट्रिंगरों की बदौलत इसमें सभी क्षेत्रों का समावेश
होता था। पाठकों में इसकी विश्वसनीयता भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। खतरनाक
स्थितियों से भी हमारे लोग समाचार संग्रह से नहीं चूकते थे। इस बारे में एक घटना
याद आती है। कोलकाता के पासवर्ती एक उपनगर में किसी धार्मिक मामले को लेकर अच्छा
खासा विवाद उठ खड़ा हुआ था। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि उसे नियंत्रित करने के लिए
पुलिस को बुलाना पड़ा। इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए हमारे एक साथी अभिज्ञात जी को
भेजा गया। वहां की भीड़भाड़ और हंगामे के बीच हमारे साथी अभिज्ञात भी फंस गये।
वहां उपस्थित पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज शुरू कर दिया और
लाठीचार्ज में हमारे भाई अभिज्ञात जी बुरी तरह से पिट गये उनकी उंगलियां टूट गयीं
थी।
इस घटना का उल्लेख इसलिए किया ताकि यह पता चल सके कि जनसत्ता से जुड़े
लोग कार्य के प्रति कितने समर्पित थे। इसी तरह की एक घटना और याद आती है जब
सांप्रद्रायिक तनाव के बारे में रिपोर्ट के वक्त जनसत्ता के धाकड़ और साहसी पत्रकार
प्रभात रंजन दीन फंस गये। बाकी पत्रकार उग्र भीड़ के पास जाने का साहस नहीं कर पा
रहे थे और वे प्रभात रंजन दीन को भी आगाह कर रहे थे वहां जाना खतरनाक है लेकिन वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित पत्रकार हैं और उन्होंने रिर्पोटिंग का अपना पूरा
काम किये बगैर वह जगह नहीं छोड़ी।
उदाहरण तो कई हैं लेकिन कुछ उदाहरण दिये ताकि
जनसत्ता की टीम की अपने कार्य के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता का पता चल सके। ऐसे
कई दृष्टांत हैं। यही वजह है कि स्थानीय या राष्ट्रीय खबरों को प्रमुखता से
प्रस्तुत करने में जनसत्ता सदा आगे रहा।
यह बात जनसत्ता के नयी दिल्ली, चंडीगढ मुंबई और कोलकाता सभी संस्करणों में
प्रमुखता से परिलक्षित होती थी।
अब उस घटना के जिक्र पर आते हैं जिसके चलते कुछ पल
के लिए हम सब लोगों की जान सांसत में फंस गयी थी। बीके पाल एवेन्यू में जिस मंदिर
वाले मकान में जनसत्ता का कार्यालय था उसमें दरवाजे से प्रवेश करते ही दायीं तरफ
कई ट्रांसफार्मर थे। जब यह दुर्घटना हुई
उन दिनों काली पूजा चल रही थी। हमारे कार्यालय के बगल में भी कालीपूजा का पंडाल
था।
हम लोग काम
कर ही रहे थे तभी नीचे से कोई चिल्लाया-ट्रांसफार्मर फट गया है तेजी से काला धुआ पूरी बिल्डिंग में फैल रहा है। सभी लोग बाहर
निकल आयें। कुछ लोग तो नाक में रूमाल दबा कर बाहर निकल गये। न्यूज डेस्क के प्रमुख
गंगा प्रसाद बिल्डिंग के पास के बरगद की डाल पकड़ कर किसी तरह से नीचे उतर गये।
ऊपर मैं और ओमप्रकाश अश्क रह गये। हम जब तक सीढ़ियां उतर कर आते तब सीढ़ियां और
मंदिर के सामने का हिस्सा काले धुएं में डूब गया था हमारे सामने काले धुएं में दम
घुटने का कष्ट झेलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हमने खिड़की से नीचे चिल्लाना
शुरु किया-ए दिके जानलाय मोई लगान आमरा फेंसे गियेछि अर्थात इधर नसेनी लगाइए हम
लोग ऊपर फंसे हुए हैं। यह हमरा सौभाग्य है कि नीचे लोगों ने हमारी बात सुन ली।
कालीपूजा का पंडाल बनाने के लिए नसेनी लायी गयी थी वही लेकर लोगों ने खिड़की की
तरफ लगा दी और जोर से चिल्लाये आप लोग नीचे उतरिए हम लोग मोई यानी नसेनी पकड़े हुए
हैं। ओमप्रकाश अश्क और मैंने जूते पहने और
खिड़की के कांच पर कई बार प्रहार किया। कुछ देर में खिड़की का कांच टूट गया और मैं
मेरे पीछे ओमप्रकाश अश्क धीरे धीरे नीचे उतर गये। जब हमारे कदम धरती पर पड़े तब कहीं हमारी जान में जान आयी। नीचे
ख़ड़े हमारे साथी भी हमारे लिए चिंतित थे। हमें सुरक्षित देख वे भी चिंतामुक्त
हुए।
दूसरे
दिन जब हम लोग वापस पहुंचे तो जिन
खिड़कियों को तोड़ कर हम निकले थे उन्हें देख कर ओमप्रकाश अश्क बोले- बाबा क्या डर में आदमी
पतला हो जाता है। इस संकरी खिड़की से हम लोग कैसे निकल गये। यहां स्पष्ट कर दूं कि
मेरे ओमप्रकाश अश्क, पलास विश्वास और विनय बिहारी सिंह के बीचा आपसी संबोधन के
लिए 'बाबा' संबोधन चलता था जो आज तक जारी
है। (क्रमश:)
Thursday, November 21, 2024
एक निर्णय जिससे प्रभाष जोशी जी संतुष्ट नहीं थे
आत्मकथा-70
समय के साथ साथ जनसत्ता की लोकप्रियता भी बढ़ती गयी। यह अखबार औरों से
अलग और असरदार साबित हो रहा था क्योंकि इसके शीर्ष स्थान पर प्रभाष जोशी जैसे
सक्षम, सार्थक और सशक्त प्रमुख संपादक बैठे थे। उनकी नजर जनसत्ता के हर एडीशन पर रहती थी। बीच बीच में वे कोलकाता आते और
संपादकीय टीम से मीटिंग अवश्य करते थे। ऐसी हर मीटिंग में वे एक एक सदस्य से बात
करतें और आवश्यक निर्देश भी देते थे।
हमारे साथ प्रभात रंजन दीन थे
जो ऐसी ऐसी खबरें जाने कहां से खोद कर
लाते थे जो दूसरे अखबारों में नहीं मिलती थीं। कई खबरें तो चौंकानवाली होती
थीं। स्वभाव से भी आला खुशमिजाज प्रभात की रिपोर्ट चुस्त दुरुस्त होती थीं। उनकी हर
रिपोर्ट चर्चा का विषय बनती थी। कभी कभी तो कोई खबर जनसत्ता में ही होती थी।
मुख्य़ संवाददाता गंगा
प्रसाद थे जिनके निर्देशन पर रिपोर्टर और
स्ट्रिंगर काम करते थे।
कुछ अरसा बाद हावड़ा के समाचारों का समावेश भी जनतत्ता में होने लगा
इसका जिम्मा आनंद पांडेय ने संभाला जो वेषभूषा और आचार विचार में पत्रकार कम साधु
ज्यादा लगते थे। हावड़ा ऐसा जिला है जहां खबरें खोजनी वहीं पड़तीं रोज ही कुछ ना
कुछ घटता रहता जो खबर बनता है।
ओमप्रकाश अश्क के जिम्मे
व्यवसाय पृष्ठ था। उनकी सहायता के लिए प्रमोद मल्लिक थे।
खेल पेज का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया था। गोरे चिट्टे फजल
भाई पत्रकार कम फिल्म कलाकार ज्यादा लगते थे। मैं जनसत्ता में फिल्म पेज देखता था।
अक्सर फिल्मों से जुड़े प्राय: हर इवेंट में मुझे
जाना पड़ता था। हमारे अखबार जनसत्ता में बांग्ला फिल्मों से जुड़ी खबरे भी
प्रकाशित होती थीं। मुझे स्टूडियो कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था और फिल्मों के
प्रीमियर शो में भी। ऐसे ही एक बार सुधीर बोकाड़े अपनी किसी फिल्म के प्रीमियर के
लिए कोलकाता आये थे। संयोग से उस दिन उस हाल में जहां प्रीमियर हो रहा था मेरे साथ
फजल भाई भी थे। मेंने मजाक में पूछा फजल भाई फिल्मों में काम करेंगे बोकाड़े जी से
बात करें। फजल भाई मुसकरा कर रह गये। मैं उन्हें बोकाडे साहब के पास ले गया और
बोला-बोकाडे जी यह हमारे पत्रकार मित्र हैं। नाटकों में अभिनय भी करते रहते हैं।
क्या आपकी किसी फिल्म में उनको चांस मिल सकता है।
बोकाडे जी ने कहा क्यों नहीं
इन्हें कहिए हमें मुंबई में आकर मिलें।
जैसा कि मैंने बताया कि डेस्क में काम करने के अलावा मेरे जिम्मे
फिल्म से जुड़े पक्ष की रिपोर्ट करने का जिम्मा भी था तो मुंबई से आये कलाकारों के
इंटरव्यू, फिल्म समीक्षा और बांग्ला फिल्मों की शूटिंग के कवरेज का जिम्मा मुझ पर
था। इसके लिए स्थानीय स्टूडियो और आउटडोर शूटिंग कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था।
इसी क्रम में पहली बार मेरी भेंट मिठुन चक्रवर्ती से हुई। एक हिंदी फिल्म ‘अभिनय’ के निर्माण की
घोषणा हुई थी। मिठुन भी उसी सिलसिले में आये थे। इसी फिल्म में संवाद लेखन के लिए
मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ के मित्र ब्रजेंद्र गौड भी आये थे। जब पता चला
कि फिल्म बननी ही नहीं तो वे मुंबई को लौटने के लिए तैयारी करने लगे। भैया ने कहा –अब
लौट रहे हैं तो एयरपोर्ट के रास्ते में हमारा घर है वहां से होते चलिए. गौड जी
राजी हो गये। हमारे घर आये तो भैया रुक्म जी मिठाई लाने के लिए तैयार होने लगे।
गौड जी उन्हें रोकते हुए रसोई घर में पहुंचे और मेरी पत्नी से बोले –बहू चीनी का
डिब्बा कहां है। चीनी का डिब्बा पाते ही
उन्होंने एक चम्मच से थोड़ी चीनी निकाली और मुह में डालते हुए बोले-लो भाई हो गया
मुंह मीठा अब मैं चलता हूं।
फिल्म अभिनय जो मुहूर्त से
आगे नहीं बढ़ी उसके गीत लिखने प्रसिद्ध गीतकार इंदीवर भी आये थे। उनका वास्तविक
नाम श्यामलाल बाबू राय था इंदीवर उनका उपनाम था जिससे वे फिल्मी गीतकार कै रूप में
मशहूर हुए। वे हमारे बुंदेलखंड के झांसी जिले के रहनेवाले थे। उनसे भेंट हुई तो
फिल्मी गीतों के गिरते स्तर और फूहड़पन पर बात हुई। इस दौड़ में उनके जैसा समर्थ
और सशक्त गीतकार भी शामिल हो गया था। उनके एक गीत ‘झोपड़ी
में चारपाई’ का जिक्र करते हुए पूछा-चंदन सा बदन चंचल चितवन
के लेखक को इस घटिया स्तर पर उतरना पड़ा। इस पर उन्होंने उत्तर दिया-भाई साहब अब
चंदन सा बदन जैसे गीत कोई नहीं लिखवाता अगर हम उनकी शर्तों में घटिया गीत ना लिखें
तो भूखों मरना पड़ेगा। उनके इस कथन ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।
***
हमें काम करते हुए काफी समय बीत गया था। एक दिन की बात है हम सभी लोग
काम कर रहे थे। कार्यालय में मेरे बैठने की पोजीशन कुछ ऐसी थी कि मेरी पीठ पीछे
सारा विभाग बैठता था। मेरी बगल से नीचे से ऊपर आनेवाली सीढ़ियां गुजरती थीं।
स्थिति यह थी कि अगर कोई सीढ़ियों से ऊपर की ओर आये तो मैं बायीं ओर मुड़े बगैर या
आनेवाले के बोले बगैर नहीं जान सकता था कि नीचे से कौन ऊपर आया है।
ऐसे ही एक दिन मुझे अपने
कंधों पर किन्हीं के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ और एक गंभीर आवाज गूंजी –भाई हमारे
राजेश जी के कंधों पर बहुत भार है।
आवाज जानी पहचानी थी मैं उठ
कर खड़ा हो गया। मुड़ कर देखा सामने प्रभाष जोशी जी थे। मैंने प्रणाम किया
उन्होंने कुशल क्षेम पूछने के बाद कहा-बैठिए काम कीजिए।
प्रभाष जोशी जितनी बार आते संपादकीय टीम के साथ बैठक अवश्य करते थे।
इस बार भी उसमें कोई व्यतिक्रम नहीं आया। अखबार की प्रगति के बारे मैं जानने के
बाद वे इस विषय में आये कि कौन क्या कर रहा है। जब मेरा क्रम आया तो वे बोले-हमारे
राजेश जी तो शिफ्ट अच्छी तरह संभाल रहे होंगे चूंकि जवाब संपादक श्यामसुंदर आचार्य
दे रहे थे इसलिए मैं खामोश रहा। जवाब श्यामसुंदर जी की तरफ से ही आया-राजेश जी अभी
एडिट पेज देख रहे हैं। हम सभी को आलराउंडर बना रहे हैं। मैंने प्रभाष जी का चेहरा
पढ़ने की कोशिश की मुझे लगा कि उन्हें यह बदलाव अच्छा नहीं लगा लेकिन उन्होंने अपने
बडप्पन के अनुसार इस विषय पर चुप रहना ही उचित समझा। प्रभाष जी ऐसे संपादक थे जो
दिल्ली में रहते हुए भी अपने सभी एडीशनों पर निरंतर पैनी नजर रखते थे और समय समय
पर जो आवश्यक हो निर्देश भी संपादकों को देते रहते थे। मुझसे शिफ्ट छिनने का मुझे
कोई गम नहीं था क्योंकि मैं रात को समय से घर पहुंचने लगा था मेरे लिए परिवार
वालों को अब आधी रात नींद में जागना नहीं पड़ता था। (क्रमश:)