Thursday, February 26, 2009

मेरी रचनाएं

कहानी
वसीयत
राजेश त्रिपाठी
रीना, शीलू, पंपा और चंपा के सिर पर प्रेम से हाथ फेरते हुए काली बाबू कहते, ' छक कर खाओ मां, संकोच मत करो। अरे, शीलू तू आज ठीक से क्यों नहीं खा रही ? देख, तेरी तीनों बहनें कैसा स्वाद लेकर खा रही हैं। ठीक से नहीं खायेगी तो दुबली हो जायेगी। अरे, रीना बेटी, चंपा बेटी को पंजा क्यों मार रही है?उसने क्या बिगाड़ा है तेरा? जाने क्यों तू अकसर उससे लड़ती रहती है। जबकि वह कुछ नहीं बोलती। लो, उसने खाना ही छोड़ दिया। अब तो खुश हैन तू! दुष्ट कहीं की। चंपा बेटी! तू शीला के पास बैठ कर खा ले, तेरी थाली मैंने शीला के पास रख दी है। आ, यहां बैठ।
ये थे काली बाबू, जो चार बिल्लियों को बड़े प्रेम से अपने हाथ से बनाया मछली भात खिला रहे थे। बंगाल में बेटी को 'मां्' कह कर संबोधित करते हैं। काली बाबू बनारसी थे। कलकत्ता में वे गहने गिरवी रखने और ब्याज पर उधार रुपये देने का कारोबार करते थे।
दस साल पहले पचास साल की उम्र में उन्होंने काकुली नाम की एक निस्संतान बंगाली बाल विधवा से शादी की थी, जिसे बचपन से बिल्ली पालने का शौक था। वैसे भी बंगाल में कुत्तों की अपेक्षा बिल्लियों की बहुत कद्र होती है।
हां, तो काकुली अपने साथ बिल्ली के चार बच्चे भी साथ लेती आयी थी। उन बच्चों को पैदा होते ही उनकी मां को एक पागल कुत्ते ने मार डाला, तो काकुली ने उन चारों बच्चियों को अपने पास रख लिया था।
काली बाबू के दुर्भाग्य से तीन साल पहले काकुली मलेरिया में चल बसी। मरते समय उसने पति से कहा था, ' ए जी! मैं आपको इन चारों बच्चियों को सौंपे जा रही हूं। इन्हें अपनी बेटियां समझ कर कोई कष्ट न होने देना। वैसी ही रखना जैसे मैं प्रेम से रखती थी। वही खिलाना, जो मैं खिलाती थी। मेरी तरह इन्हें अपने हाथ से बना हुआ गोविंदभोग चावल का भात और टटका मछली खिलाना। सड़ी हुई नहीं।'
पत्नी भक्त काली बाबू पत्नी की इच्छा का पालन करने के लिए बाजार से टटका (जिंदा) मछली और महंगा गोविंदभोग चावल ला कर बनाते। वे खुद मछली नहीं खाते थे; किंतु उन बिल्लियों को बड़े प्रेम से खिलाते थे। पत्नी को मछली बनाते देख कर वे भी मछली बनाना सीख गये थे।
काली बाबू दूसरी मंजिल में सीढ़ी के पास वाले कमरे में और मैं तीसरी मंजिल में रहता था। कभी-कभी नीचे उतरते समय वे अपने कमरे के दरवाजे पर पड़ी बेंच पर बैठे दिख जाते, तो बुजुर्ग के नाते मैं उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लेता, तो वे भी मुसकरा कर हाथ जोड़ लेते।
उनसे मिलने आने वाले उसी बेंच पर बैठ कर उनसे बातें किया करते थे। कमरे के भीतर वे किसी को भी नहीं जाने देते थे। जेवर गिरवी रखने और कर्ज लेने या लौटाने वालों से भी वे उसी बेंच पर बैठ कर बातें करते थे।
एक दिन मैं भी काली बाबू के पास बेंच पर जा बैठा। उन्हें प्रणाम कर सौजन्यता के नाते पूछा,' कैसे हैं दद्दा जी?'
'अच्छा हूं।'
'आप क्या यहां अकेले रहते हैं?'
'नहीं, चार बेटियां साथ हैं।'
उनका संकेत बिल्लियों की ओर था।
'और कोई, मतलब भाई, भतीजा, मामा, भांजा?'
'कोई नहीं है।'
उसके बाद वे उठ कर भीतर चले गये और दरवाजा बंद कर लिया, जिससे मैं पीछे-पीछे भीतर न चला जाऊं। मुझे लगा, जिससे उनको कोई लाभ नहीं होता, उससे वे बातें करना पसंद नहीं करते थे। तभी वे मेरे और कुछ पूछने के पहले उठ कर चल दिये थे।
एक दिन मेरे मित्र और काली बाबू के कमरे के बगल में रहने वाले राम सिंह उनके संबंध में मुझे जो कुछ बताया, वह चौंका देनेवाला था।
राम सिंह ने कहा, 'काली बाबू के कमरे में घुसते ही बायीं तरफ एक बड़ा सा पलंग है जिस पर मोटा गद्दा बिछा रहता है। वह तख्त उनका बैंक लाकर है। गद्दे के नीचे लाखों रुपये के गिरवी रखे सोने-चांदी के जेवर और नंबरी नोटों की गड्डियां दबी हुई हैं। इसीलिए वे किसी को कमरे के भीतर नहीं घुसने देते। रात में उनके अगल-बगल दो-दो बेटियां लेटती हैं, तभी उन्हें नींद आती है।'
'ताज्जुब है।'
'और भी ताज्जुब की बात सुनेंगे? दद्दा बिल्लियों को बढ़िया मछली -भात पका कर खिलाने के बाद लोहे का तसला और गिलास लेकर सामने के मंदिर में मुफ्त बंटने वाली खिचड़ी खाने के लिए भिखारियों के साथ जा बैठते हैं। एक बार टोका,-दद्दा, भगवान का दिया आपके पास सब कुछ है, फिर आप भीख की खिचड़ी खाने क्यों जाते हैं? जानते हैं उन्होंने क्या जवाब दिया?'
'क्या कहा?'
'मैं भीख की खिचड़ी खाने नहीं, भगवान का प्रसाद पाने जाता हूं।'जबकि मैं जानता था कि वे अपने को भिखारियों जैसा गरीब दिखाने के लिए ऐसा करते हैं।
उस दिन काली बाबू का व्यवहार मुझे खल गया था। अब मैंने उन्हें प्रणाम करना और मिलना बंद कर दिया। सामने पड़ते तो मैं मुंह फेर कर निकल जाता।
समय बीता। ठंड का मौसम था। शायद जनवरी का महीना था। सुबह सूरज निकलने के पहले ही किसी ने हमारा दरवाजा खटखटाया। दूध वाला समझ कर पत्नी ने उठ कर दरवाजा खोल दिया।सामने राम सिंह थे।
'भाई साहब आप?'
'हां भाभी। दक्ष भाई सो रहे हैं क्या?'
उनकी आवाज सुन कर मैं उठ कर दरवाजे पर गया, तो राम भाई ने मनहूस खबर सुनाई, 'दक्ष भाई! काली दद्दा गये।'
मैं चौंका, 'कहां?'
उन्होंने हाथ ऊपर उठा कर कहा, 'वहां।'
'अरे मगर कैसे?' कहते हुए लुंगी समेटता मैं राम सिंह के साथ नीचे उतरा। देखा, काली दद्दा का आधा शरीर कमरे के भीतर और आधा बाहर पड़ा था।
तत्काल इसकी सूचना पुलिस को दी गयी। दद्दा का शव पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज कर पुलिस ने उनके कमरे में अपना ताला लगा कर सील कर दिया और दरवाजे पर पुलिस का चौबीस घंटे का पहरा बैठा दिया गया।
पोस्टमार्टम के बाद पता चला, दद्दा की मृत्यु हार्टअटैक से हुई है। दर्द होने पर वे बाहर निकल कर सहायता के लिए किसी को बुलाना चाहते थे; किंतु दरवाजे तक आते-आते गिरते ही चल बसे।
उनका कोई रिश्तेदार नहीं था। अंत्येष्टि की व्यवस्था मकान के किरायेदारों को ही करनी थी। खर्च था।
थाने जाकर कहा गया, 'दद्दा के कमरे का दरवाजा खोल कर अंत्येष्टि के खर्च भर के लिए रुपये ले लेने दिया जाये।'
जवाब मिला, 'जब तक मृतक का कोई वारिश नहीं आयेगा, कमरा नहीं खुलेगा।'
यह कैसी विडंबना ? जो व्यक्ति लाखों रुपये का मालिक था, उसकी अंत्येष्टि किरायेदारों से चंदा कर के की जा रही थी।
मुझे चिंता दद्दा की चारों बेटियों की थी। क्योंकि जब कमरा सील किया गया, तब वे पलंग पर खर्राटे भर कर सो रही थीं। जगीं तो लगीं म्याऊं-म्याऊं करने। उनका करुण स्वर मेरे साथ राम सिंह भी सुन रहे थे।
मैंने कहा, 'राम भाई! दद्दा की चारों बेटियां भूख से तड़प-तड़प कर मर जायेंगी ।'
'उन्हें बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?'
तभी सामने के मकान का एक लड़का दौड़ा-दौड़ा आया और बोला, 'दद्दा जी की चारों बिल्लियां सड़क की ओर खुलने वाली बालकोनी से सड़क पर जैसे ही कूदीं, सड़क के आवारा कुत्तों ने उन्हें खदेड़ लिया। वे सब सड़क की ओर भाग गयी हैं।'
मैंने कहा, 'राम भाई! कुत्तों से बच गयीं, तो किसी गाड़ी के नीचे आकर सड़क दुर्घटना का शिकार हो जायेंगी। कलकत्ता की व्यस्त सड़कों में रोजाना दो-चार लोग दुर्घटना में जान गवां बैठते हैं., फिर इन बिल्लियों की क्या बिसात।
बाहर निकल कर आसपास के लोगों से बहुत पूछने पर उन चारों के संबंध में कुछ पता नहीं चला।
छह माह बाद भी जब दद्दा का कोई वारिश उनकी संपत्ति पर हक जताने नहीं आया, तो अदालत के आदेश पर कमरे का दरवाजा खोल कर पता लगाया गया कि काली बाबू मरने के पहले कुछ लिख तो नहीं गये।
गद्दे के नीचे जेवर और नोटों की गड्डी के साथ पेपर पर लिखा कुछ मिला। वह वसीयतनामा निकला।
काली बाबू वसीयत में अपने मरने के बाद सारी संपत्ति अपनी चारों बेटियों रीना, शीलू, पंपा और चंपा के नाम कर गये थे। जिनका अब कोई पता नहीं था। लिहाजा दद्दा की सारी संपत्ति सरकारी खजाने में जमा हो गयी और अखबारों में विज्ञापन दे दिया गया कि काली प्रसाद साह के यहां जिन लोगों के अपने जेवर गिरवीं रखे हैं, वे रसीद दिखा कर, ब्याज सहित भुगतान करके अपना माल ले जायें। (समाप्त)

Monday, February 9, 2009

सचमुच ही मीडिया महानायक थे एसपी सिंह

हिंदी साप्ताहिक `रविवार' में तकरीबन 10 साल तक उनके साथ काम करने और सार्थक पत्रकारिता से जुड़ने का अवसर मुझ जैसे कई पत्रकारों को मिला और हमने उस व्यक्तित्व को समीप से जाना-पहचाना जो साहसी था, सुलझा हुआ था और जिसमें खबरों की सटीक और अच्छी पहचान थी। सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की उन्होंने जो शुरुआत इस साप्ताहिक से की, वह पूरे देश में प्रशंसित और समादृत हुई। यह उनकी सशक्त पत्रकारिता का ही परिणाम था कि `रविवार' ने सत्ता के उच्च शिखरों तक से टकराने तक में हिचकिचाहट नहीं दिखायी। इसके चलते `रविवार' पर कोई न कोई मामला होता ही रहता था। लेकिन विश्ववसनीयता इतनी थी कि विधानसभाओं तक में इसके अंक प्रमाण के तौर पर लहराये जाते थे। खबरों की उनकी पकड़ का एक प्रमाण भागलपुर आंखफोड़ कांड की घटना से समझा जा सकता है। यह खबर `आर्यावर्त' के भीतरी पृष्ठ पर इस तरह से उपेक्षित ढंग से छपी थी कि कहीं किसी की नजर न पड़ सके। एसपी को यह बहुत खराब लगा। पत्रकार धर्म की यह उदासीनता उन्हें भीतर तक कचोट गयी। उन्होंने हमारे एक साथी अनिल ठाकुर को ( जो भागलपुर के ही रहने वाले हैं) तत्काल भागलपुर भेजा और भागलपुर आंखफोड़ कांड का काला अध्याय `रविवार' की आमुख कथा बना और जैसा स्वाभाविक है तहलका मच गया। इसके बाद अंग्रेजी पत्र- पत्रिकाओं ने भी इसे प्रमुखता से छापा। अफसोस इस बात का है कि अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं को तो इस पर पुरस्कार मिले लेकिन `रविवार' जिसने इस स्टोरी को प्रमुखता से ब्रेक किया के हिस्से सिर्फ पाठकों और चाहनेवालों की शुभकामनाएं ही आयीं। यहां कहना पड़ता है कि अगर हिंदी अब भी दासी है तो इसके दोषी शायद हम हिंदीभाषी या कहें हिंदीप्रेमी भी हैं।
मैंने जिक्र किया कि `रविवार' के व्यवस्था विरोधी (सारी व्यवस्था नहीं , वह जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हो) पत्र था इसलिए मामले उस पर होते ही रहते थे। इसी तरह का एक प्रसंग याद आता है। हम सभी आनंदबाजार प्रकाशन समूह के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित कार्यालय में काम कर रहे थे। एसपी अपने चैंबर में थे। अचानक कुछ पुलिस अधिकारी उनसे मिलने आये। स्थानीय पुलिस अधिकारी अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे हम लोगों ने सोचा वैसे ही कोई अधिकारी होंगे। कार्य में व्यस्त रहने के कारण हम लोग उनका परिचय नहीं पूछ सके और उनको एसपी के चैंबर में जाने दिया। थोड़ी देर में एसपी चैंबर से उन लोगों के साथ निकले और बोले-`अरे, भइया जरा पूछ लिया करो कि कौन हैं, कहां से हैं, ये मध्यप्रदेश पुलिस के अधिकारी हैं। मैं गिरफ्तार हो चुका हूं और अब जमानत लेने जा रहा हूं।' हमें याद आया कि मध्यप्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष पर एक स्टोरी `रविवार' में छपी थी और उन्होंने मामला कर दिया था। इस घटना के बाद से एसपी ने अग्रिम जमानत ही ले ली थी।
सहजता तो जैसे उनका अभिन्न अंग था। `रविवार' ज्वाइन करने के बाद मैं उनके गृहनगर श्यामनगर के पास गारुलिया गया तो पाया वे चंदन प्रताप सिंह को दुलार रहे हैं। चंदन तब छोटे से, प्यारे से बच्चे थे। थोड़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं फिर बोले-;चलो भइया तुमको फुटबाल दिखाते हैं। ' हमने समझा कि कहीं फुटबाल मैच हो रहा होगा उसे दिखाने ले जा रहे हैं। लेकिन यह क्या गारुलिया में हुगली के तट पर बरसात के उस मौसम में कीचड़ से भरे एक मैदान में एसपी दा अपने बड़े भाई नरेंद्रप्रताप सिंह व अन्य लोगों के साथ फुटबाल खेलने उतर गये। कुछ देर बाद कीचड़ से वे इतने लथपथ हो गये कि उनको पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। उनमें बाल सुलभ सहजता और सरलता थी। बहुत कुछ कहती थीं हलकी दाढ़ी वाले रौबीले चेहरे पर चमकती उनकी भावभरी आंखें।
उनके खुलेपन और अपने सहकर्मियों के प्रति भ्रातृवत व्यवहार को जो भी उनके साथ काम कर चुका है, आजीवन याद रखेगा। कभी भी उन्हें किसी सहकर्मी से ऊंची आवाज में बात करते नहीं देखा कुछ गलती होती तो सहजता से समझाते और कहते-आप अपना लिखा किसी और से भी चेक करा लिया करें। अपने साथी गलती पकड़ेंगे तो उसमें शर्म की कोई बात नहीं। अगर गलती छूट गयी तो कल लाखों लोगों के सामने शर्मशार होना पड़ेगा और जवाबदेह होना पड़ेगा।
एक बार की बात है हम लोग कुछ खाली थे और कार्यालय में रवीन्द्र कालिया जी का उपन्यास `काला रजिस्टर' पढ़ रहे थे। उन्होने देखा तो कहा-`भइया ऐसे मजा नहीं आयेगा। आओ मैं इस उपन्यास के पात्रों का परिचय दे दूं। कालिया जी ने हम लोगों के साथ रहते हुए ही इस लिखा है और हमें जितना लिखते जाते सुनाते भी जाते थे। अच्छा है मजा आयेगा।'
उन पर जितना लिखा जाये कम है। 10 साल की स्मृतियां कम शब्दों में तो सिमट नहीं सकतीं लेकिन दो एक प्रसंग जो उनके संवेदनशील मन को उजागर करते हैं और जिनसे उनका हिंदी प्रेम झलकता है वह देना आवश्यक समझता हूं। उनकी पत्रकारिता न दैन्यम् न पलायनम् की पक्षधर थी। उन्होंने सच को सच की तरह ही उजागर किया। पत्रकारिता में सुदामा वृत्ति उन्हें पसंद नहीं थी। उनका मानना था कि हिंदी अपने आप में सक्षम और सशक्त भाषा है और हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी की बैसाखी की कोई आवश्यकता नहीं है। यही वजह है कि आनंदबाजार प्रकाशन समूह के रविवार से दिल्ली के एक राष्ट्रीय पत्र में जुड़ने का बाद जब उनके सामने यह प्रस्ताव आया कि अंग्रेजी अखबार का अनुवाद ही हिंदी अखबार में दिया जाये तो उन्होंने वहां से हटना ही श्रेयस्कर समझा। उसके बाद वे दिल्ली में `द टेलीग्राफ' के राजनीतिक संपादक और फिर हिंदी के पहले निजी समाचार चैनल `आज तक' के रूपकारों में रहे। संवेदनशील इतने थे कि लोगों के दर्द को अपना दर्द समझते थे और उसे शिद्दत से महसूस भी करते थे। और यह अत्यंत संवेदनशीलता ही उनके असमय निधन का कारण बनी। दिल्ली के `उपहार' सिनेमा के अग्निकांड में मृत लोगों के परिजनों का दर्द उन्होंने आंखों से देखा और दिल की गहराइयों से झेला। शनिवार को यह कार्यक्रम `आज तक' में पेश करते वक्त उनकी आंखें नम थीं। वे कह गये `ये थीं खबरें आज तक। इंतजार कीजिए सोमवार तक। ' फिर वह सोमवार कभी नहीं आया। रविवार को वे मस्तिष्काघात से संज्ञाशून्य हुए और फिर उन्हें बचाया नहीं जा सका। वैसे एसपी जैसे व्यक्तित्व मरा नहीं करते। वे अपने कार्य से जीवित रहते हैं। भौतिक रूप से वे भले न हों लेकिन जब तक विश्व में सार्थक, सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता है , एसपी जीवित रहेंगे। लोगों के विचारों, कार्यों में एक सशक्त प्रेरणास्रोत के रूप में। मेरा उस महान आत्मा को शत शत नमन। (फोटो spkemayne.blogspot.com से साभार)


वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रुक्म त्रिपाठी सम्मानित


कोलकाता में पत्रकारिता में आधी शताब्दी गुजार चुके और अब स्वतंत्र साहित्य सृजन में रत 83 वर्षीय डॉ. रुक्म त्रिपाठी का महानगर की साहित्य,संगीत और कला को समपिर्त संस्थ संचेतना केंद्र मित्र मंदिर ने 25 जनवरी के शाम सम्मान किया। समारोह के अध्यक्ष कवि व हिंदी सेवी डॉ. नगेंद्र चौरसिया ने अंगवस्त्र, मानपत्र देकर सम्मानित किया। समारोह में वक्ताओं ने डॉ. रुक्म के पत्रकार, संपादक, उपन्यासकार और कवि के रूप में कृतित्व व हिंदी की सेवाओं की सराहना की। अब तक आठ उपन्यास, दर्जनों बाल उपन्यास, हजारों व्यंग्य कविताएं, गजल, गीत लिख चुके डॉ.रुक्म ने पत्रकारिता में गुजारी आधी शताब्दी में पत्रकारिता को विकसित होते हुए देखा है। उनके स्तंभों के लेखक आज कई समाचारपत्रों में संपादक हैं। समारोह में बोलते हुए अध्यक्ष डॉ. नगेंद्र चौरिसया ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि- उनके बारे में कुछ भी कहना कठिन नहीं बल्कि सरल है। उतना ही सरल है उनका व्यक्तित्व। उनका लेखन ही यह प्रकट कर देता है कि वे कितने बड़े लेखक हैं। डॉ. रुक्म इससे पूर्व लायंस क्लब आफ कोलकाता, राजश्री स्मृति न्यास की ओर से सम्मानित किये जा चुके हैं। महानगर की मनीषिका संस्था ने उनको सारस्वत सम्मान दिया है। समारोह में लेखक-पत्रकार संतन कुमार पांडेय ने डॉ. रुक्म की दीर्घायु की कामना की और कहा कि उनकी 100वीं वर्षगांठ पर भी वे उनका सम्मान करने की कामना करते हैं। इस अवसर पर डॉ. रुक्म त्रिपाठी ने एक सामयिक संदर्भ की गजल पेश की जिसकी उपस्थित श्रोताओं ने करतल ध्वनि से स्वागत किया। समारोह में पुणे से आयी कवयत्री पुष्पा गुजराथी के अलावा नगर के कई कवियों प्रो, श्यामलाल उपाध्याय, प्रो. अगम शर्मा, योगेंद्र शुक्ल 'सुमन' आदि ने कविता पाठ किया।
रिपोर्ट राजेश त्रिपाठी, फोटोः सुधीर उपाध्याय

Sunday, February 8, 2009


कोलकाता में अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती का साक्षात्कार लेते राजेश त्रिपाठी

श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में लायंस क्लब कलकत्ता द्वारा सम्मान


कोलकाता के बिड़ला सभागार में प्रसिद्ध फिल्म निमार्ता-निर्देशक शक्ति सामंत के हाथों श्रेष्ठ पत्रकार का सम्मान ग्रहण करते राजेश त्रिपाठी (दायें से दूसरे) साथ बंगला दैनिक वर्तमान के पत्रकार सुमन गुप्त



युवावस्था में राजेश त्रिपाठी। कोलकाता में
एक पत्रकार सम्मेलन के दौरान अभिनेता
जलाल आगा द्वारा खींची गयी फोटो