Sunday, May 30, 2021

जब पार्वती की परीक्षा के लिए शिवजी बने मगरमच्छ


 यह सभी जानते हैं कि पार्वजी ने अपने हर जन्म में शिव को पति के रूप में पाने का प्रण किया था। वे कहती तीं-बरहुं शंभु नत रहहुं कुंआरी। अर्थात या तो मेरा विवाह शंकर जी से होना अन्यथा मैं कुंआरी रहना ही पसंद करूंगी। यह भी विदित है कि हर जन्म में उन्हें शिवजी के लिए तप करना पड़ा। यहां हम आपको ऐसा एक प्रसंग सुनाने जा रहे हैं जब शिवजी ने उस समय पार्वती की परीक्षा लेनी चाही जब वे तपस्या कर रही थीं। उस परीक्षा के लिए शिवजी को मगरमच्छ का कपट रूप धारण करना पड़ा। जब शंकर जी पहाड़ पर तपस्या कर रहे थे उसी वक्त  देवतागण वहां पहुंचे और उनकी विनती गाने लगे। देवता माता पार्वती की अनुसंशा वहां पहुंचे थे। महादेव ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली। अब जानते हैं कि देवता शिव जी के पास क्या विनती लेकर पहुंचे थे। हुआ यह था कि माता पार्वती शिव जी से शादी करने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं। सब कुछ त्याग वे घोर तपस्या में लीन हो गई थीं। वर्षों तक उनकी घोर तपस्या से देवता द्रवित हो गए और सीधे शिवजी के पास गये और उनसे पार्वती की तपस्या पर ध्यान देने और उनकी इच्छा पूरी करने का आग्रह किया। शिवजी ने देवताओं की प्रार्थना तो स्वीकार कर ली पर उनके सामने प्रश्न यह था कि जो देवता पार्वती की तपस्या के बारे में कह रहे हैं उसे कैसे मान लिया जाये। परीक्षा करना आवश्यक है। वे सोचने लगे कि पार्वती के तपोबल की परीक्षा लें तो कैसे। यदि वे अपने वास्तविक रूप में पार्वती के सामने जाते हैं तो संभव है वे क्रोधित भी हो जायें। वे इसी  सोच में डूबे थे कि तभी उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने सोचा सप्तऋषियों को माता पार्वती की परीक्षा लेने के लिए भेजा। सप्तऋषियों ने शिव से शादी करने के निर्णय के बारे में माता पार्वती से पूछा। पार्वती ने सप्तऋषियों के सामने भी शिवजी का जीभर कर गुणगान किया। शकर जी को उन्होंने सर्वगुण सम्पन्न और शक्तिमान सप्तऋषियों ने उनके सामने शिवजी के सैकड़ों अवगुण गिनवाए लेकिन पार्वती अपने फैसले से जरा भी पीछे नहीं हटीं वे अपने फैसले पर अटल रहीं। उन्होंने कहा कि शिवजी के अतिरिक्त किसी और से से विवाह करना उन्हें स्वीकार नहीं है। इसके पश्चात सप्तऋषि वहाँ से लौट आये और पूरी शिवजी को सुना दी। इसके बाद स्वयं शिवजी ने यह निश्चय किया कि क्यों स्वयं जाकर पार्वती की परीक्षा क्यों ना ले ली जाये।  यही सोच कर उन्होंने स्वयं पार्वती जी की परीक्षा लेने का निश्चय किया।

 उधर माता पार्वती जी एक तलाब के किनारे अपनी तपस्या में लीन थीं। तभी तलाब के किनारे एक बालक को एक मगरमच्छ ने पकड़ लिया। अपनी जान को विपत्ति में देख कर बालक शोर मचाने लगा। वो जोर-जोर से मगरमच्छ-मगरमच्छ चिल्लाकर अपनी जान बचाने के लिए सहायता मांगने लगा। पार्वती जी ने जब किसी बच्चे की चीख सुनी तो उनसे रहा नहीं गया और वो तपस्या छोड़ कर उसे बचाने के लिए तलाब के किनारे पहुंच गई। वहाँ उन्होंने देखा कि मगरमच्छ ने एक बालक को पकड़ रखा है और वह उसे खींच कर गहरे तलाब में ले जाने का प्रयत्न कर रहा है। पार्वती जी को देख कर बालक देवी को देखकर उनसे अपने जान बचाने के लिए विनती करने लगा और बोला- हे माता! प्राण संकट में है। यदि आप चाहेंगी तो मेरे प्राण बच सकते हैं। वैसे भी ना तो मेरी माता है और ना ही पिता। अब आप ही मेरी रक्षा कीजिये। मुझे बचाइए माता। देवी पार्वती से बच्चे की पुकार सुन कर रहा नहीं गया और उन्होंने मगरमच्छ से कहा- हे मगरमच्छ! इस निर्दोष बालक को छोड़ दीजिए बदले आपको जो चाहिए वो आप मुझसे मांग सकते हैं।

इसके बाद मगरमच्छ ने कहा कि मैं इसे एक बात पर छोड़ सकता हूँ। आपने तपस्या करके महादेव से जो वरदान प्राप्त किया है, यदि उस तपस्या का फल आप मुझे दे देंगी तो मैं इसे छोड़ दूंगा। पार्वती जी मगरमच्छ की यह बात मान ली और कहा- लेकिन आपको इस बालक को शीघ्र ही छोड़ना होगा। मगरमच्छ ने देवी को समझाते हुए कहा कि अपने इस फैसले पर फिर से विचार कर लीजिए। जल्दबाजी में आकर कोई वचन न दीजिये क्योंकि आपने हजारों वर्षों तक जिस प्रकार से तपस्या की है जो देवताओं के लिए भी असम्भव है। उसका सारा फल इस बालक के प्राणों के लिए मत गंवाइए। इस पर पार्वती जी ने कहा- मैं निर्णय कर चुकी हूं। मेरा इरादा अटल है, मैं आपको अपनी तपस्या का पूरा फल देने को तैयार हूँ परन्तु आप इसे तुरंत मुक्त कर दीजिए। मगरमच्छ ने पार्वती जी से अपनी तपस्या दान करने का वचन ले लिया और जैसे ही पार्वती जी ने अपनी तपस्या का दान की मगरमच्छ का शरीर तेज से चमकने लगा। फिर मगरमच्छ ने कहा- देखिये आपके तपस्या के तेज से मेरा शरीर कितना चमकने लगा है। फिर भी मैं आपको अपनी भूल सुधारने का एक मौका और देता हूँ। इसके उत्तर में पार्वती जी ने कहा कि तपस्या तो मैं फिर से कर सकती हूँ लेकिन यदि आप इस बच्चे को निगल जाते तो क्या इसका जीवन वापस मिल पाता?

इस पर मगरमच्छ ने कुछ जवाब नहीं दिया और इधर-उधर देखने लगा। इसी क्रम में देखते ही देखते वो लड़का और मगरमच्छ दोनों अदृश्य हो गए। पार्वती जी को इस पर आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है कि दोनों एक साथ अचानक से गायब हो गए। लेकिन पार्वती जी ने इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया और इस बात पर विचार करने लगी कि उन्होंने अपनी तपस्या का फल तो दान कर दिया पर फिर से इसे कैसे प्राप्त किया जाए? इसके लिए उन्होंने फिर से तपस्या करने का प्रण किया। वो तपस्या करने के लिए तैयारियां करने लगीं कि अचानक शिव जी उनके सामने अचानक प्रकट हो गए और वो कहने लगे कि हे देवी भला अब तपस्या क्यों कर रही हो? पार्वती जी ने कहा- हे प्रभु! आपको अपने स्वामी के रूप में पाने के लिए मैंने संकल्प लिया है लेकिन मैंने अपनी तपस्या का फल दान कर दिया है। ऐसे में मैं फिर से वैसे ही घोर तपस्या करके आपको प्रसन्न करना चाहती हूँ। इसके उत्तर में महादेव ने कहा कि हे पार्वती! अभी आपने जिस मगरमच्छ को अपनी तपस्या का फल दिया और जिस लड़के की जान बचाई इन दोनों रूपों में मैं ही था। अनेक रूपों में दिखने वाला मैं एक ही हूँ, मैं अनेक शरीरों में शरीर से अलग निर्विकार हूँ। यह मेरी ही लीला थी। मैं यह देखना चाहता था कि आपका मन प्राणी मात्र में सुख-दुःख का अनुभव करता है कि नहीं। इस पर पार्वती जी ने कहा- हे प्रभु! क्या मैं आपकी परीक्षा में सफल हुई तो शिव जी ने उत्तर दिया- हे देवी! आप प्राणियों का सुख-दुःख समझती हैं, आपमें दया और करुणा दोनों है। अब आपको और तपस्या करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि आपने अपनी तपस्या का फल मुझे ही दिया है। ये सुन कर माता पार्वती बहुत प्रसन्न हुईं और इसके बाद माता पार्वती और भगवान महादेव का विवाह हो गया।

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Tuesday, May 25, 2021

हनुमान धारा : जहां शांत हुई लंकादहन से हुई हनुमान के शरीर की जलन

  


 हनुमान जी ने जब लंकादहन किया था उसके बाद वे अपनी पूंछ बुझाने और शरीर का ताप, जल दूर करने के लिए समुद्र में कूद पड़े थे। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में इसका वर्णन इस चौपाई के माध्यम से किया है- उलट-पुलट कपि लंका जारी। कूद पड़ा पुनि सिंधु मझारी।। पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥ समुद्र में हुनमान जी ने पूंछ तको बुझा ली लेकिन कहते हैं कि इतनी देर तक लपटों के बीच रहने के कारण उनके शरीर में जो जलन पैदा हुई वह किसी भी तरह से शांत नहीं हो रही थी। कहते हैं कि यह जलन चित्रकूट में हनुमान धारा में शांत हुई। आइए पहले हनुमान धारा के बारे में जान लेते हैं।

 हनुमान धारा  वर्तमान में उत्तर प्रदेश के चित्रकूट धाम जिले की कर्वी तहसील तथा मध्यप्रदेश के सतना जिले की सीमा पर स्थित है। चित्रकूट का मुख्य स्थल सीतापुर है जो कर्वी से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। उत्तर प्रदेश के सीतापुर नामक स्थान के समीप ऊंची पहाड़ी पर यह हनुमान मंदिर स्थित है।

यह स्थान विंध्य पर्वतमाला के मध्य भाग में स्थित है। पहाड़ की चोटी पर हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति स्तापित है जिसके सिर पर दो जल के कुंड हैं, जो हमेशा जल से भरे रहते हैं और उनमें से निरंतर पानी बहता रहता है। यह पानी हनुमान जी की मूर्ति पर गिरता रहता है। मूर्ति के सामने एक छोटा-सा तालाब है जिसमें झरने का पानी गिरता है। यह पानी उस तालाब से कहां जाकर विलीन होता है इसका कोई पता नहीं। धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं।

ऐसा प्रसंग आता है कि वनवास से श्रीराम की अयोध्या वापसी और फिर राज्याभिषेक होने के बाद एक दिन हनुमानजी ने श्रीराम से कहा-हे प्रभु, लंका जलाने के बाद तीव्र अग्नि से उत्पन्न ताप मुझे बहुत कष्ट दे रहा है। मेरे शरीर में असह्य जलन हो रही है। मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे मैं इससे मुक्ति पा सकूं। इस जलन के चलते मुझे कार्य करने में बाधा होती है। कृपया मेरा संकट दूर करें।तब प्रभु श्रीराम ने सलाह दी कि हे हनुमान आप चित्रकूट वहां एक पर्वत है जहां आपके शरीर पर अमृत तुल्य शीतल जलधारा के लगातार गिरता रहेगा जिससे आपको शरीर की असह्य जलन से मुक्ति मिल जाएगी।

हनुमान जी ने चित्रकूट आकर विंध्य पर्वत श्रृंखला की एक पहाड़ी में श्री राम रक्षा स्त्रोत का पाठ 1008 बार किया। जब उनका अनुष्ठान पूरा हुआ ऊपर से एक जल की धारा प्रकट हो गयी। यह भी कहा जाता है कि स्वयं राम ने बाण का प्रहार कर वह जलधारा उत्पन्न की थी। जलधारा शरीर में पड़ते ही हनुमान जी के शरीर को शीतलता प्राप्त हुई। आज भी यहां वह जल धारा के निरंतर गिरती है। जिस कारण इस स्थान को हनुमान धारा के रूप में जाना जाता है। धारा का जल पहाड़ में ही विलीन हो जाता है। उसे लोग प्रभाती नदी या पातालगंगा कहते हैं।

इस धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है। इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं। इस के दर्शन से हर एक व्यक्ति तनाव से मुक्त हो जाता है तथा उसकी मनोकामना भी पूर्ण हो जाती है।

ऊंची पहाड़ी पर 560 सीढ़ियां चढ़ कर मंदिर तक पहुंचना पड़ता था। अब तो रोप वे के माध्यम से पहुंचना आसान हो गया है। नजदीकी एयरपोर्ट मध्य प्रदेश का सतना जिला है। वैसे चित्रकूट की देवांगना घाटी में एयरपोर्ट का काम प्रगति पर है जिसका 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है। एयरपोर्ट पूरा हो जाने से यहां पर्यटकों, तीर्थयात्रियों की संख्या भी बढ़ जायेगी।

हनुमान धारा के पानी से पेट की बीमारियां दूर होती है यह बात इस यूट्यूबर को चित्रकूट की एक यात्रा में वहां ठहरे कोलकाता के एक व्यवसायी ने बतायी थी। वे एक महीने से चित्रकूट में ठहरे थे और उनके लिए एक आदमी हनुमान धारा का पानी बराबर लाकर देता था। उस व्यवसायी ने बताया कि उस पानी से उनके पेट की तकलीफ काफी हद तक ठीक हो गयी है। हो सकता है कि उस पानी में ऐसे मिनिरल्स या तत्व हों जो पेट की तकलीफ ठीक करते हों।

वाल्मीकि रामायण, महाभारत पुराण स्मृति उपनिषद व साहित्यक पौराणिक साक्ष्यों में चित्रकूट का विस्तृतविवरण प्राप्त होता है। त्रेतायुग का यह तीर्थस्थल प्राकृतिक दृश्यावलियों के कारण ही चित्रकूट के नाम से प्रसिध्द है। चित्रकूट यानी चित्त को मोहनेवाला।

हनुमान धारा  के बारे में कुछ ऐसा प्रसंग भी मिलता है कि जब श्रीराम लंका विजय से वापस लौट रहे थे, तब उन्होंने हनुमान के विश्राम के लिए इस स्थल का निर्माण किया था। यहीं पर पहाड़ी की चोटी पर `सीता रसोई' स्थित है। यहां मंगलवार,शनिवार, नवरात्रि और हनुमान जयंती के दिन भक्तों की अपार भीड़ जुटती है। यहां बहुत बड़ी संख्या में बंदर हैं जो खाना पाने की लालसा में सीढ़ियों से मंदिर तक पहुंचनेवाले भक्तों पर नजर लगाये रहते हैं।

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Thursday, May 20, 2021

भरतकूप में स्नान करने से मिलता है सब तीर्थों का फल, मिटते हैं रोग



उत्तर प्रदेश के चित्रकूट धाम जिले में है पावन तीर्थ भरतकूप। नाम से ही स्पष्ट है कि इस स्थान का किसी ना किसी तरह से भगवान राम के भ्राता भरत से संबंध है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बांदा जिला है। बांदा से सड़क पथ से पावन धाम चित्रकूट की ओर जाते वक्त मार्ग में पड़ता है भरतकूप जो एक पावन तीर्थस्थल है। यहां यों तो रोज ही तीर्थयात्रियों की भीड़ रहती है लेकिन मकर संक्रांति के दिन यहां बड़ा मेला लगता है और दंगल का भी आयोजन किया जाता है।इसके अतिरिक्त प्रति रविवार को और हर सप्तमी को यहां तीर्थयात्रियों का समागम होता है। मान्यता है कि भरतकूप का जल चामत्कारिक है। इससे स्नान करने पर सभी तीर्थों का पुण्य तो मिलता ही है साथ ही अनेक रोगों से भी मुक्ति मिलती है। मकर संक्रांति के दिन इस कूप के जल से स्नान करने से विशेष पुण्य फल मिलता है क्योंकि इस कूप में सभी तीर्थों और पवित्र नदियों का जल समाहित है। यहां यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि 2020 में अयोध्या में हुए रामजन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के भूमिपूजन के लिए भरतकूप से भी जल ले जाया गया था। 

लोगों की ऐसी आस्था है कि जो भी सप्तमी रविवार और मकर संक्रांति पर स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस भरतकूप का संबंध भगवान राम के वनवास काल में चित्रकूट में सर्वाधिक समय बिताने और उन्हें मनाने चित्रकूट आये भाई भरत से है। 

जिस समय कैकेयी के हठ के चलते राजा दशरथ उनकी इच्छानुसार राम को वन भेजने को राजी हुए और उसके चलते उनके प्राण गये उस वक्त भरत और शत्रुघ्न अपनी ननिहाल तत्कालीन केकय राज्य (जिसे कैकेय, कैकस या कैकेयस नाम से भी जाना जाता है) में थे जो अविभाजित पंजाब से उत्तर पश्चिम दिशा में था। वे अयोध्या में होनेवाली घटनाओं से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। वहां भरत ने एक सपना देखा। पर उसका अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे। वैसे सपना देख कर वे बुरी तरह से डर गये। अपने मित्रों से उन्होंने सपने के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि-  मैंने  देखा  कि  समुद्र  सूख  गया। चंद्रमा धरती पर गिर पड़ा। वृक्ष सूख गए।एक राक्षसी हमारे पिता दशरथ को खींचकर ले जा रही है।वे रथ पर बैठे हैं। रथ गधे खींच रहे हैं। ̧जिस  समय  भरत  मित्रों  को  अपना सपना सुना रहे थे, ठीक उसी समय अयोध्या से घुड़सवार दूत वहाँ पहुँचे। दूत ने भरत को तुरत अयोध्या लौटने का संदेश दिया। संदेश पाते ही वे तत्काल अयोध्या  जाने के  लिए  तैयार  हो  गए। ननिहाल में भरत का मन नहीं लग रहा था। वे अयोध्या पहुँचने को उतावले थे। उनके नाना कैकयराज ने भरत को विदा किया। उनके साथ सौ रथ और सेना भी कर दी। आठ दिन की लंबी यात्रा के बाद वे अयोध्या पहुँचे। भरत  ने  अयोध्या  नगरी  को  दूर  से देखा।  नगर  उन्हें  सामान्य  नहीं  लगा।बदला-बदला सा था। उनका हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से भर गया। नगर पहुँचते ही भरत सीधे राजभवन गए। वे महाराज दशरथ के प्रासाद की ओर गये।महाराज वहाँ नहीं थे। फिर वे कैकेयी के महल की ओर गये। कैकेयी ने बेटे को गले से लगा लिया। भरत की आंखें तो पिता को ढूंढ़ रही थीं। उन्होंने माँ से पूछा तो कैकेयी ने बताया कि पुत्र तुम्हारे पिता का निधन हो गया है। ̧भरत यह सुनते ही शोक में डूब गए।पछाड़ खाकर गिर पड़े। विलाप करने लगे। जब उन्हें पूरी घटना का पता चला तो अपनी मां पर उन्हें बहुत क्रोध आया। मां ने उन्हें राजपाट दिलाने का जो रास्ता अपनाया था उसके लिए उन्होंने मां को बहुत खरीृखोटी सुनायी। उन्होंने माता कौशल्या से जाकर अपने मां के किये की क्षमा मांगी, कौशल्या ने उन्हें क्षमा कर दिया। भरत ने निश्चय किया कि वे चित्रकूट जायेंगे और राम को मना कर अयोध्या वापस लाकर उनको उनका राज्य सौंप देंगे और स्वयं उनके दास बन कर रहेंगे। उन्होंने गुरु वशिष्ठ और अन्य वरिष्ठ जनों से अपनी इच्छा बतायी सब उनके प्रस्ताव से सहमत हो गये और कुछ नगरवासियों गुरु वशिष्ठ रानियों और सेना के साथ भरत चित्रकूट पहुंचे। वे अपने साथ सभी तीर्थों का जल और अभिषेक के लिए पावन सामग्री भी ले गये थे ताकि अगर राम वापस लौटने को तैयार हो जायें तो वे चित्रकूट में ही उनका राज्याभिषेक कर उन्हें अयोध्या वापस ले आयेंगे। अपने निश्चय के अनुसार वे चित्रकूट पहुंचे उनके साथ सेना, मंत्री, सभासद व अन्य जन थे। दूर से सेना आते देख निषादराज गुह और लक्ष्मण को संदेह हुआ कि भरत राम पर आक्रमण करने तो नहीं आ रहे हैं।  निषादराज आगे बढ़ कर भरत से मिले और सारी बात का पता चला तो वे निश्चिंत हो गये और सभी को वहां ले गये जहां राम, लक्ष्मण, सीता रहते थे। उन्होंने उनसे भरत के आने का कारण बताया। 

भगवान राम, लक्ष्मण और सीता चित्रकूट में कामद गिरि पर्वत पर्णकुटी बना कर रहते थे। राम ने भरत को आते देखा तो दौड़ कर गये और उन्हें गले लगा लिया। जनश्रुति है कि दोनों भाइयों का अगाध प्रेम देख पत्थर की शिला तक पिघल गयी और उन पर दोनों भाइयों के चरण चिह्न अंकित हो गये। चित्रकूट में कमादगिरि की परिक्रमा में शिला पर आज भी राम भरत मिलाप के चिह्न देखे जा सकते हैं। भरत ने राम को पिता दशरथ के निधन की खबर दी तो वे शोकाकुल हो गये राम, लक्ष्मण और सीता। राम गुरु वशिष्ठ, मंत्रियों, सभासदों, वरिष्ठ जनों और माताओं से भी मिले।

अगले दिन भरत ने राम से आग्रह किया कि वे अपने साथ राज्याभिषेक की सारी सामग्री लाये हैं। राम उनको राज्याभिषेक करने की अनुमित दें और फिर अयोध्या लौट कर अपना राज्य संभालें। राम इसके लिए तैयार  नहीं  हुए। उन्होंने कहा कि उनके लिए पिता की आज्ञा का पालन करना ही अनिवार्य और सर्वोपरि है। अब जब पिता ने अपने वचन के लिए ही प्राण त्याग दिये तब मैं उनके वचनों के पालन के बिना अयोध्या नहीं लौटूंगा। राम ने भरत को राजकाज समझाया। कहा कि अब तुम्हीं राज्य सँभालो। यह पिता की आज्ञा है। 

भगवान राम के उनके साथ अयोध्या न लौटने पर भाई भरत दुखी हो गये उनके मस्तिष्क पर  यह प्रश्न उठा कि राज्याभिषेक के लिए लाये गये सभी तीर्थों के  जल और सामग्री का क्या किया जाये।

इस पर सती अनुसुइया के पति अत्रि ऋषि ने परामर्श दिया की इसे चित्रकूट के पास ही एक पवित्र कुएं में समर्पित कर दिया जाये। भरत ने वैसा ही किया और तभी से यह कुआं पावन तीर्थस्थल बन गया और इसका नाम भरत जी पर ही भरतकूप हो गया। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में कुछ इस तरह से उल्लेख मिलता है-

 अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।

राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥

इसका अर्थ यह है कि- अत्रिजी ने भरतजी से कहा कि इस पर्वत यानी कामद गिरि के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत जैसे तीर्थजल को उसी में स्थापित कर दीजिए॥

 पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥

तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥2

इसका अर्थ यह है कि उस पवित्र जल को उस पुण्य स्थल में रख दिया। तब अत्रि ऋषि ने प्रेम से आनंदित होकर ऐसा कहा- हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रम से यह लोप हो गया था, इसलिए किसी को इसका पता नहीं था॥2॥

इस कूप के बारे में कहा गया-

 भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा॥

प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी॥4॥

अर्थात अब इसको लोग भरतकूप कहेंगे। तीर्थों के जल के संयोग से तो यह अत्यन्त ही पवित्र हो गया। इसमें प्रेमपूर्वक नियम से स्नान करने पर प्राणी मन, वचन और कर्म से निर्मल हो जाएँगे॥

यहां विराजमान हैं राम-सीता की मूर्तियां यहां पर बना भरतकूप मंदिर भी अत्यंत भव्य है। इस मंदिर में भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघन की मूर्तियां विराजमान है। सभी प्रतिमाएं धातु की हैं। अब  आप जो वीडियो देख रहे हैं उसमें भरतकूप की पुजारन मां वहां के मंदिर और उनमें स्थापित मूर्तियों के बारे में बता रही हैं।

वास्तुशिल्प के आधार पर मंदिर काफी प्राचीन है। माना जाता है कि बुंदेल शासकों के समय में मंदिर का निर्माण हुआ था। कुएं में नहाने से असाध्य रोग हो जाते हैं। 

 '' इस कूप में स्नान करनेवाला भगवान राम के  प्रताप से मृत्यु के पश्चात स्वर्गगामी होता है और मोक्ष को प्राप्त करता है।'' मकर संक्रांति में यहां लाखों लोग आते हैं।यहां मकर संक्रांति के मौके पर यहां 5 दिन मेला लगता है,

इस कुएं में स्नान कर तीर्थयात्री पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। वैसे हर अमावस्या में भी यहां पर श्रद्धालु स्नान करने के बाद चित्रकूट जाते हैं और फिर मंदाकिनी में स्नान करते हैं।

अत्रि मुनि की आज्ञा अनुसार जल को कूप में स्थापित करने के बाद

 कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।

अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥

भावार्थ:-कूप की महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गए जहाँ श्री रघुनाथजी थे। श्री रघुनाथजी को अत्रिजी ने उस तीर्थ का पुण्य प्रभाव सुनाया॥

 कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥

नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥

भावार्थ:-प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, श्री रामजी, अत्रिजी और गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर,॥1॥

 सहित समाज साज सब सादे। चले राम बन अटन पयादे॥

कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥2॥

भावार्थ:-समाज सहित सब सादे साज से श्री रामजी के वन में भ्रमण (प्रदक्षिणा) करने के लिए पैदल ही चले। कोमल चरण हैं और बिना जूते के चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन ही मन सकुचाकर कोमल हो गई॥

 कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥

महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥

भावार्थ:-कुश, काँटे, कंकड़ी, दरारों आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओं को छिपाकर पृथ्वी ने सुंदर और कोमल मार्ग कर दिए। सुखों को साथ लिए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा चलने लगी॥3॥

 सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं॥

मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥

भावार्थ:-रास्ते में देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलता से, मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुंदर वाणी बोलकर सभी भरतजी को श्री रामचन्द्रजी के प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे॥

दोहा :

 सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।

राम प्रानप्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥

भावार्थ:-जब एक साधारण मनुष्य को भी (आलस्य से) जँभाई लेते समय 'राम' कह देने से ही सब सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं, तब श्री रामचन्द्रजी के प्राण प्यारे भरतजी के लिए यह कोई बड़ी (आश्चर्य की) बात नहीं है॥

चौपाई :

 एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥

पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥

भावार्थ:-इस प्रकार भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र जल के स्थान (नदी, बावली, कुंड आदि) पृथ्वी के पृथक-पृथक भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे-॥

 देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।

कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥

भावार्थ:-भरतजी ने पाँच दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिए। भगवान विष्णु और महादेवजी का सुंदर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, संध्या हो गई॥

भरत बार-बार राम से लौटने का आग्रह करते रहे। राम हर बार पूरी विनम्रता और दृढ़ता के साथ इसे अस्वीकार करते रहे। भरत निराश हो गये। जब राम लौटने को तैयार नहीं हुए तो भरत ने भी कहा- मैं भी खाली हाथ नहीं जाऊँगा। आप मुझे अपनी खड़ाऊँ दे दें। मैं चौदह वर्ष उसी की आज्ञा से राजकाज चलाऊंगा। ̧भरत का यह आग्रह राम ने स्वीकारकर लिया। अपनी खड़ाऊँ दे दी। भरतने  खड़ाऊं  को  माथे  से  लगाया  और कहा,चौदह वर्ष तक अयोध्या पर इन चरण-पादुकाओं का शासन  रहेगा। ' 

भगवान राम की खड़ाऊ लेकर भरत अयोध्या लौट गए। वहां राम की खड़ाऊं सिंहासन पर स्थापित कर स्वयं अयोध्या नगर के बाहर नंदीग्राम में एक कुटी बना कर संन्यासियों की तरह तपस्या और राम के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे।

भरतकूप टीन के शेड से ढका हुआ है। ताकि इसमें कोई भी पत्ता ना गिरे। भरतकूप के पास एक बाल्टी भी रखी रहती है।  इस बाल्टी को आप कुएं में डाल कर पानी निकाल सकते हैं और आपके पास जो भी बर्तन हो, या प्लास्टिक की बोतल हो आप उसमें भर सकते हैं। लोग इस जल को अपने साथ ले जाते हैं।

  यहां पर एक बड़ा सा पीपल का वृक्ष है। पीपल के वृक्ष के नीचे ही भरतकूप स्थित है। यहां पर आकर बहुत अच्छा लगता है। बहुत शांति मिलती है। 

तकरीबन दो हजार साल पहले बुंदेले शासकों के समय में निर्मित पौराणिक भरतकूप मंदिर जल्द ही नए स्वरूप में नजर आएगा। मंदिर को पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बनाने के लिए काम शुरू हो गया है। पहली बार राजा छत्रसाल ने मरम्मत कराई थी।

Sunday, May 16, 2021

कठिन संघर्ष से सफलता तक पहुंचे थे दुर्धष पत्रकार पांडेय जी

 


 


सन्मार्ग कोलकाता कार्यालय में लिये गये फोटो में बायें से दायें-हरिराम पांडेय, बुद्धिनाथ मिश्र जी, अभिज्ञात भाई, राजेश त्रिपाठी, (पीछे खड़े हुए) जयप्रकाश मिश्र, कमलेश पांडेय श्रवंतिका दास, अनुपम सिंह

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आदमी मुसाफिर है आता है जाता है, आते जाते रास्ते में यादें छोड़ जाता है। हाल ही हमें छोड़ गये भाई हरिराम पांडेय जी से जुड़ी कुछ यादें उपरोक्त पंक्तियों के साथ साझा कर रहा हूं। सचमुच अब उनकी यादें ही तो हैं जो हमारे दिलों में हमेशा उन्हें जिंदा रखेंगी। मैं यहां बताता चलूं की स्वभाव से अंतर्मुखी और जिनसे दिल, विचार मिलते हैं उनसे ही सहज हो पाता हूं या हिल-मिल पाता हूं। ऐसे लोगों में हमारे पांडेय जी भी शुमार थे। सच कहता हूं आज उन्हें थे लिखते हुए भी दिल में हूक-सी उठती है। मेरा नियम है कि मैं सुबह सबसे पहले अपना फेसबुक एकाउंट देखता हूं कि कहीं किसी ने अवांक्षित पोस्ट तो नहीं टैग कर दिया तो उसे पहले साफ कर दूं। इसी क्रम में 13 मई को भी जब मैं फेसबुक देख रहा था तभी मेरी नजर सुरेंद्र सिंह जी के एक लाइन वाले फेसबुक पोस्ट पर पड़ी तो दिल धक से रह गया। लिखा था हम सबके प्रिय हरिराम जी पांडेय नहीं रहे। बरबस रोना आ गया, विश्वास नहीं हो रहा था खबर पक्की है या नहीं जानने के लिए मैंने हरिराम पांडेय जी के बड़े पुत्र डाक्टर प्रशांत पांडेय जी को फोन किया, मैं सुबक रहा था, गला रुंध रहा था मेरी स्थिति भांप वे भी बिलख पड़े और बस इतना ही बोल पाये-हां अंकल पापा चले गये। जाहिर है उसके बाद का मेरा लंबा समय सुबकते बीता। जिस व्यक्ति के पास बैठ आपने कार्यालय में वर्षों काम किया हो, हंसे बोले हों उसका जाना अगर आपको रुला ना सके तो फिर आपको स्थितिप्रज्ञ ही कहेंगे। खैर नियति के आगे हम सभी हारे हैं और इस दुख को स्वीकारने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

मुझसे उनकी जो यादें जुड़ी हैं उनमें विस्तार से जाने के पहले यह बताता चलूं कि वे सबको समान आदर देते थे। मुझे वे राजेश जी या त्रिपाठी जी नाम से ही संबोधित करते रहे। हां, एक बार मुझे भी उनके साथ राममंदिर के पास वाली गली में केसर वाली चाय पीने का अवसर मिला था।

उनसे मेरी पहली मुलाकात छपते छपते अखबार के कार्यालय में हुई थी। तब मैं आनंद बाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक रविवार में उप संपादक था। बाद में पांडेय जी सन्मार्ग में आ गये। इसे आत्मश्लाघा ना माना जाये यह तथ्य है कि उन्हें सन्मार्ग में लाने में प्रमुख भूमिका मेरे बड़े भैया रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म जी की थी। पांडेय जी अक्सर इस बात को स्वयं लोगों से कहा करते थे कि सन्मार्ग में उनका प्रवेश रुक्म जी की वजह से हुआ। आज के स्वार्थी और सुविधावादी युग में इतना मानना भी बड़ी बात थी।

पांडेय जी चर्चा में अक्सर यह जिक्र करते थे कि वे रांची में कन्वेंट में पढ़ते थे तो वहां उनके अध्यापक फादर कामिल बुल्के थे जो बच्चों को हिंदी बोलने को प्रोत्साहित करते थे। वे गाहे-बगाहे अपने पिता जी का भी जिक्र करते थे जो आजादी के समय पुलिस सेवा में थे। उनसे जुड़ी विचित्र और रोमांचित कर देने वाली कथाएं वे सुनाते थे। मैं उनसे बार-बार अनुरोध करता कि पिता जी से जुड़ी कुछ घटनाएं वे अपने ब्लाग या फेसबुक में साझा करें ताकि आज की पीढ़ी को भी पता चल सके कि कैसा था वह समय और उस समय के लोग। यह अनुरोध अपूर्ण ही रह गया। अपने श्वसुर शिक्षाविद बी.बी. मिश्र जी का भी वे जिक्र किया करते थे कि वे यूनिवर्सिटी आफ लंदन में पढ़ाते हैं और लंदन में ही बस गये हैं। वे अक्सर कहते-श्वसुर जी वहां अकेले हैं बहुत उम्र हो गयी मैं तो नहीं जाऊंगा बंटी (डाक्टर प्रशांत पांडेय का पुकारू नाम) को भेज कर उन्हें यहां बुलवा लेंगे। लेकिन वह भी संभव नहीं हो सका बी.बी. मिश्र जी साल भर पहले गुजर गये।

उस वक्त जब उनसे पूछा कि –बंटी भैया को क्यों  भेजेंगे आप क्यों नहीं जायेंगे तो वे बोले मुझे वे पसंद नहीं करते मैं पत्रकार हूं ना।

उनसे पूछा-पत्रकार होना गुनाह है क्या। तो उनका जवाब था कि श्वसुर जी कहते हैं पत्रकार बनना क्या जरूरी था और कुछ नहीं कर सकते थे।

अब उनके एक और प्रसंग पर आते हैं। यह बात भी उन्होंने ही सुनायी थी सच है या झूठ कह नहीं सकता पर उनके कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि वह सच लगे। एक दिन उन्होंने बताया-त्रिपाठी जी रात की ड्यूटी कर के मैं सोया ही था कि अपने ही कार्यालय का एक व्यक्ति आया और मुझे झिंझोड़ कर जगाया। मुझे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गया। मैंने हकबका कर पूछा- क्या हुआ, वह व्यक्ति बोला-अच्छा पांडेय जी अगर टार्च में बैटरी की जगह यूरेनियम भर दिया जाये तो क्या होगा। पांडेय जी ने बताया कि उन्हें इतना गुस्सा आया कि वे कह नहीं सकते। वे गुस्से को पीकर इतना भर बोले- टार्च का तो मैं नहीं जानता पर यूरेनियम रखने के जुर्म में तुम जेल में होगे।

वे सचमुच खोजी पत्रकार थे और उनकी हर स्टोरी चौंकानेवाली होती थी और कई सवाल खड़ी करती थी। कई बार लगता  था कि इस स्टोरी पर तो बवाल पक्का है। लेकिन कुछ नहीं होता था क्योंकि वे हर स्टोरी पर महीनों काम करते, सारे डाक्युमेंट जुटाते तब उसे छपने को देते थे। उनके बारे में तो सन्मार्ग के ही कुछ साथियों ने बताया था कि एक स्टोरी के तथ्य खोजने के लिए उन्होंने एक सामान्य मजदूर के रूप में रह कर वहां काम तक किया जहां खाद्य तेल में मिलावट की बात सुनने में आयी थी। यह उनका दुस्साहस ही था क्योंकि भेद खुल जाने में जान तक जाने का भय था।

कालांतर में मैं सन्मार्ग के ओडिशा संस्करण का स्थानीय संपादक बना और भुवनेश्वर में जाकर काम संभालने लगा। अगर कोई बड़ी स्टोरी हमारे कोलकाता संस्करण में छपती थी तो वह ओडीशा संस्करण में भी ली जाती थी। ऐसी ही पांडेय जी की स्टोरी छपी तो कटक (ओडीशा) से खुफिया विभाग का फोन मेरे पास आया और उनका पहला सवाल था-यह स्टोरी आपको कहां से मिली।हमें इसका डिटेल चाहिए।

मैंने जवाब दिया-यह स्टोरी हमारे मुख्यालय कोलकाता से ओरिजिनेट हुई है। मैं थोड़ी देर बाद इसका विस्तृत विवरण दे पाऊंगा।

इसके बाद मैंने पांडेय जी को फोन किया-अरे महाराज, क्या बवाल मचाये हैं, आपकी स्टोरी पर कटक के खुफिया विभाग से फोन आ गया वे पूरा डिटेल चाहते हैं।

इस पर पांडेय जी ने कहा-मेरा नंबर दे दीजिए बात कर लेते हैं, मेरे पास इससे संबंधित सारे डाक्युमेंट हैं।

यादें तो बहुत हैं, वर्षों उनके बगलवाली सीट में बैठ कर काम किया। कंप्यूटर के बारे में वे उतने स्पर्ट नहीं थे पास बैठता था मुझसे जो बन पड़ती सहायता कर देता था।खुश होते और कहते-त्रिपाठी जी आपने मेरी मुश्किल दूर कर दी।

मैं उनसे कहता ठीक से सीख लीजिए और वे सचमुच सीखने का आग्रह दिखाते।

उनसे जुड़ी तमाम यादें हैं जिन्हें थोड़े में समेटना आसान नहीं। मैंने जब सत्यनारायण व्रत कथा को गीत में ढाला और उसे बुंदेलखंड की कन्हैया कैसेट कंपनी ने संगीतबद्ध कर यूट्यूब में डाला तो पांडेय जी के पास भी वीडियो भेजा। उन्होंने मुझे बताया कि वह वीडियो उन्होंने अपने परिचितों,रिश्तेदारों तक भेज दी है। मैंने सोचा था कि मेरा मन रखने के लिए, मुझे प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने यह बात कही होगी लेकिन उनके छोटे बेटे गौरव पांडेय (गोलू) के विवाह के रिसेप्शन में जब मैं गया तो उन्होंने अपने परिचितों और रिश्तेदारों से यह कह कर ही परिचय कराया-यही हैं सत्यानारायण वाले हमारे राजेश त्रिपाठी।

उन लोगों ने जिस मुसकान और प्रेम के साथ मेरा अभिवादन किया उससे प्रमाणित हो गया कि पांडेय जी ठीक ही कह रहे थे।

थोड़े शब्दों में कहें तो पांडेय जी अपनी मिसाल आप थे।  उन्होंने जीवन में बड़ा संघर्ष किया और अपने अध्यवसाय से सफलता, लोकप्रियता के शीर्ष तक पहुंचे। वे हमेशा हमारी यादों में जिंदा रहेंगे। लिखा तो बहुत जा सकता है पर अपनी इन दो पंक्तियों से इस स्मृति-यात्रा को विराम देता हूं कि-माना कि किसी के जाने से दुनिया खत्म नहीं होती। पर इससे जाने वाले की अहमियत तो कम नहीं होती।

Friday, May 14, 2021

क्या वाल्मीकि के अवतार थे गोस्वामी तुलसीदास

 

 क्या वाल्मीकि के अवतार थे गोस्वामी तुलसीदास यह शीर्षक देने का उद्देश्य सनसनी फैलाना या किसी के सोच को प्रभावित करना नहीं है। ऐसे कुछ उल्लेख कहीं मिले इसीलिए इस विषय को उठाया और सोचा कि इसे आप तक भी पहुंचायें जिससे आप भी इस पर विचार मंथन करें। रत्नाकर दस्यु के श्रीमद् वालमीकि रामायण के रचयिता ऋषि वाल्मीकि की कहानी भी अनोखी है। रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास की भी जीवन गाथा भी कम विचित्र नहीं है। दोनों के रामकथा गाने का ढंग भी अलग-अलग और अनोखा है।  वाल्मीकि ने त्रेता युग में रामायण की रचना की। उनकी कथा के नायक  राम राजकुमार हैं, शासक हैं उन्हें वाल्मीकि ने जैसा देखा, जैसा पाया वैसा ही उनके चरित्र का वर्णन किया पर तुलसीदास ने राम गाथा को भक्ति भाव से लिखा। उनके रामचरित मानस के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसी ने राम के आदर्श रूप को एक भक्त के रूप में प्रस्तुत किया। वाल्मीकि की रामायण संस्कृत भाषा में थी इसलिए वह तत्कालीन पाठक समाज के उसी वर्ग में समादृत और प्रचलित हुई जिन्हें संसकृत का ज्ञान था। कुछ लोगों का मत है कि उसी रामायण को जनभाषा और सरल भाषा में गाने के लिए कवि वाल्मीकि ने कलयुग में गोस्वामी तुलसीदास के रूप में अवतार लिया। उन्होंने अपने रामचरित मानस को अवधी मिश्रित हिंदी में रच कर जन-जन में लोकप्रिय और समादृत बना दिया।
वाल्मीकि के गोस्वामी तुलसीदास को रूप में अवतार लेने की एक यह कथा भी प्रचलित है। संभवत: बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि सर्वप्रथम रामायण की रचना हनुमान जी ने की थी। उन्होंने पत्थरों की शिलाओं में अपने सुदृढ़ नखों से कुरेद-कुरेद कर यह रामायण लिखी थी। इसका नाम 'हनुमद् रामायण ' था। कहते हैं जब वाल्मीकि जी ने उस रामायण को देखा तो उन्हें लगा उन्होंने  संस्कृत में जो रामायण लिखी है वह श्रेष्ठता में हनुमान जी की रामायण के आगे कहीं नहीं टिकती। वे प्रसन्नता से नाचने लगे। उन्हें प्रसन्न देख हनुमान जी ने कहा- तुम जो चाहो वरदान मांग लो। लेकिन वाल्मीकि ने सोचा कि इनकी रचना अगर विश्व विख्यात हो गयी तो उनकी रामायण को कोई नहीं देखेगा। हनुमान जी ने वरदान मांगने को कहा था तो वाल्मीकि जी ने उनसे कहा कि अगर आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो मैं यह वरदान मांगता हूं कि आप अपनी लिखी इस रामायण को समुद्र में प्रवाहित कर दीजिए। हनुमान जी ने तो वरदान मांगने  के लिए कह ही दिया था तो उन्होंने शिला पर लिखी अपनी रामायण को समुद्र में प्रवाहित तो कर दिया लेकिन उनको वाल्मीकि पर बड़ा क्रोध आया।
उन्होंने वाल्मीकि को कहा कि तुमने कलियुगी व्यक्ति की तरह आचरण किये। मुझे अपनी दुर्लभ रामायण समुद्र में प्रवाहित करने को विवश किया अब मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुमको कलियुग में भी अवतार लेना होगा। यह सुन कर वाल्मीकि भयभीत हो गये। इस पर हनुमान जी ने उन्हें यह भी विश्वास दिलाया कि वे सदा उनके साथ रहेंगे और कलियुग का प्रभाव उन पर नहीं पड़ने देंगे। हनुमान जी के इस शाप के चलते ही कलियुग में वाल्मीकि को गोस्वामी तुलसीदास के रूप में अवतार लेना पड़ा। सभी जानते हैं की कलियुग में वाल्मीकि ने जब तुलसीदास के रूप में अवतार लिया तो हनुमान जी ने कई अवसर पर उनकी मदद की यहां तक की उनकी सहायता से ही तुलसीदास को चित्रकूट में राम के दर्शन भी हुए।
तुलसी कृत श्रीरामचरित मानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में रामायण के रूप में कई लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। श्रीरामचरित मानस में इस ग्रन्थ के नायक को एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्रीराम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। रामचरित मानस के बारे में स्वयं तुलसी ने कहा है-
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्, रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि। स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा, भाषानिबंध मति मंजुलमातनोति।। अर्थात नाना पुराणों, वेद शास्त्र जिससे सहमत हैं रामायण में उसी का वर्णन किया गया है और कुछ नहीं। स्वयं सुख प्राप्ति के लिए अपनि मति के अनुसार इस रघुनाथ गाथा को भाषा में निबद्ध किया है। अत: यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने अपनी मौलिकता में और अपनी कल्पनाशीलता में सृजन धर्मिता का निर्वहन किया है। हृदयस्थ श्रीराम भक्ति के आश्रय में तथा भूतभावन भगवान शिव की कृपा से तत्कालीन उपलब्ध भारतीय पारम्परिक संस्कृत साहित्य का आधार लेकर श्रीरामचरितमानस को भाषा बद्ध किया है। रामायण के सृजन में उन्हें शोध की सामग्री महर्षि वेदव्यास प्रणीत पुराण, गीता, उपनिषद् आदि साहित्य से प्राप्त हुई है।
हृदय परिवर्तन के बाद दस्यु से ऋषि बन जाने वाले वाल्मीकि  ऋषि ने संस्कृत भाषा में एक महाकाव्य की रचना की। इस ग्रंथ में 24,000 श्लोकों को 500 सर्ग और 7 कांड में बांटा गया है। इस महाकाव्य में अयोध्या के राजा राम के चरित्र को आधार बनाकर विभिन्न भावनाओं और शिक्षाओं को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है।
राजा राम का चरित्र वाल्मीकी ने एक साधारण मानव के रूप में चित्रित किया है जो बाल रूप से लेकर राजा बनकर न्यायप्रिय तरीके से राज करके अपनी प्रजा के हित के लिए किसी भी निर्णय को लेने में हिचकते नहीं हैं।  उनके द्वारा किये गए कामों में कहीं भी किसी दैवीय शक्ति का प्रयोग दिखाई नहीं देता है।
 अवधी भाषा में रची गयी रामचरित मानस सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास द्वारा रची गयी रचना है. वाल्मीकि रामायण को आधार मान कर रची गयी यह रचना एक भक्त का अपने आराध्य के प्रति प्रेम और समर्पण का प्रतीक है. तुलसीदास जी ने इस ग्रंथ में राम के चरित्र का निर्मल और विशद चित्रण किया है।
कहते हैं कि तुलसीदासजी महर्षि वाल्मीकि का अवतार थे जो मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता थे। गोस्वामी तुलसीदास एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर गांव (वर्तमान चित्रकूट धाम जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें विद्वान होने के साथ ही अवधी और हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक माना जाता है।
कहते हैं कि तुलसीदासजी महर्षि वाल्मीकि का अवतार थे जो मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता थे।
भुलई नाम का एक व्यक्ति था। वह भक्ति-पथ और गोस्वामीजी की निन्दा किया करता था। उसकी मृत्यु हो गयी। सब लोग उसे अर्थी पर सुलाकर शमशान ले जा रहे थे। भुलई की स्त्री रोती हुई आई, और उसने गोस्वामीजी को प्रणाम किया। गोस्वामीजी के मुंह से सहज में निकल गया कि 'सौभाग्यवती भव!'
जब उसने अपने पति मृत्यु की बात बताई तो तुलसीदासजी ने उसके पति का शव अपने पास मंगवा लिया और मुंह में चरणामृत देकर उसे जीवित कर दिया। उसी दिन से गोस्वामी जी ने नियम ले लिया और बाहर बैठना छोड दिया।
. तुलसीदास बहुत ही उदार थे। किसी के मुख से राम नाम निकल जाये तो वे उस पर बहुत प्रसन्न थे। एक बार एक हत्यारा ब्राह्मण उनके यहां आया। दूर खडा होकर वह राम-राम कहने लगा। अपने इष्टदेव का नाम सुनकर तुलसीदासजी आनन्द में खो गए और उसके पास जाकर उसे हृदय से लगा लिया। आदर से भोजन कराया और बडी प्रसन्नता से कहा-
तुलसी जाके मुखनि ते, धोखेहु निकसत राम।
ताके पगकी पगतरी, मेरे तन को चाम ।।
यह बात जल्द ही सारे नगर में फैल गयी। शाम होते ही ज्ञानी, ध्यानी, विद्वान इकट्ठे हो गए। उन लोगों ने गोस्वामीजी से पूछा यह हत्यारा कैसे शुद्ध हो गया? तुलसीदास ने कहा वेदों, पुराणों में नाम-महिमा लिखी है उसे पढकर देख लीजिए।
तब उन लोगों का कहना था कि आप कोई ऐसा उपाय करें जिससे हमें विश्वास हो जाए तुलसीदास ने उस हत्यारे के हाथों से भगवान शिव के नन्दी को भोजन कराया, यह देखकर सबको विश्वास हो गया। चारों ओर जय-जय की ध्वनि होने लगी। निन्दकों ने तुलसीदास के चरणों को पकड़कर क्षमा मांगी।
गंगा तट पर स्थित राजापुर में आत्माराम की पत्नी प्रसव व्यथा से व्याकुल हो रही थी। दुबे जी बाहर परेशान बैठे थे तभी बच्चे को जन्म दिलानेवाली दाई दौड़ी-दौड़ी बाहर आयी। दाई ने ऐसी खबर सुनाई कि आत्माराम दुबे अपना सर पकड़ कर बैठ गए। दाई ने कहा कि लड़का हुआ है। लेकिन बच्चे को जन्म देने की पीड़ा से आपकी पत्नी की जान चली गयी। दुबे जी दुख से व्याकुल हो गये। कहते हैं जन्म के समय ही तुलसी के दो दांत थे और उन्होंने जन्मते ही राम नाम का उच्चारण किया था। कहते हैं कि इसीलिए कुछ लोग रामबोला बुलाने लगे थे। आत्माराम पत्नी की मृत्यु से बहुत दुखी थे उन्होंने एक ज्योतिषी को बुला कर बालक का भविष्य जानना चाहा। ज्योतिषी ने बेटे को देख कर कि-यह ऐसे खराब नक्षत्र में जन्मा है कि जन्मते ही मां को खा गया। इसके चलते पिता पर भी प्राण का संकट है। ज्योतिषी की बात सुन कर आत्माराम दुबे अपने बेटे तुलसी को घर से निकाल दिया। दाई को उस बालक पर तरस आ गया और वह उसे लेकर अपने घर चली गई। चुनिया दाई बच्चे को घर लेकर गई तो उसकी सास और उसके पति ने उसे बहुत भला-बुरा कहा। कुछ दिनों बाद तुलसी के पित आत्माराम दुबे की मौत हो गई और चुनिया दाई की भी सांप के काटने से मौत हो गयी। चुनिया दाई के पति का शक अब यकीन में बदल चुका था उसने उस बच्चे को घर से बाहर निकाल दिया। वह बच्चा पेड़ के नीचे जाकर सोया खाने के लिए लोगों से भीख भी मांगी। लेकिन सारे उसे मनहूस समझ कर भगा दिया करते।एक दिन वह भीख मांगते-मांगते मंदिर पहुंच गया। वहां पर उसकी मुलाकात संत नरहरी दास से हुई। उन्होंने उस पर तरस खाकर उसको अपने पास रखा और उसे राम का पाठ पढ़ाया। संत जी उसे अपने आश्रम में ले गए और उसे वेदों का ज्ञान भी कराया। संत ने उन्हें यह भी बताया कि किस तरह राम भगवान ने 14 वर्ष का वनवास काटा गरीबों और मजदूरों की मदद करी। और फिर उन्हें आचार्य शेष सनातन के साथ काशी ले गए।
 वह चाहते थे कि आगे का ज्ञान वह आचार्य से प्राप्त करें सनातन बाबा ने उन्हें वेदों का ज्ञान दिया और उसे बहुत सारी धार्मिक किताबें भी पढ़ाई। शिक्षा पूरी होने के बाद उसके गुरु जी ने उससे दक्षिणा यह मांगा की जाओ सबको राम का पाठ पढ़ाओ।
तब तक तुलसी का नाम रामबोला ही था। वे वापस अपने गांव पहुंचे और वहां पर जाकर राम नाम पर सत्संग करने लगे सुनने के लिए बहुत लोग आया करते क्योंकि उसके सत्संग से लोगों के दुख मिट जाया करते थे। यही रामबोला आगे चल कर तुलसीदास हुए और उनके गुणों की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। उसके बाद एक गांव के बंधु पाठक को तुलसीदास के बारे में पता चला तो उन्होंने उससे अपनी बेटी का विवाह करवाने का निश्चय किया। तुलसीदास से रत्नावली का विवाह करा दिया।
तुलसी अपनी पत्नी रत्नावली से बहुत प्रेम करते थे। वह उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे। एक दिन जब यह काम से घर वापस लौटे। उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी अपने मायके गई हुई है। वह उसके बिना नहीं सकते थे और तो उससे मिलने के लिए वह रात तेज बारिश की अंधेरी  रात में भी उफनती यमुना नदी को तैर कर पार करने के बाद अपनी पत्नी से मिलने गए। उसके घर चले गए उन्हें देख रत्नावली बहुत परेशान हुई । रामबोला को विक्षिप्त हालात में अपने पास आया देख उनका अनादर करते हुए कहा कि 'अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।। ' यानी इस हाड़ मांस की  देह से इतना प्रेम, अगर इतना प्रेम राम से होता तो जीवन सुधर जाता सारे दुख मिट जाते। भव बाधा नहीं व्यापती।
पत्नी की इस झिड़की तो जैसे रामबोला का जीवन ही बदल दिया। उनके रामबोला से तुलसीदास बनने का सर्वाधिक श्रेय रत्नावली को ही जाता है। पत्नी के उपदेस ने उनका जीवन ही बदल कर रख दिया। पत्नी की बात सुनकर उन्होंने सब कुछ त्यागने का निश्चय कर लिया। वह गंगा के तट पर गए और राम नाम का जाप करने लग गए।
इसके बाद वह राजपुर गांव में गये और वहां पर उन्होंने राम का सत्संग हिंदी में शुरू कर दिया क्योंकि उस समय हिंदी और संस्कृत बोली जाती थी। उनके सत्संग से काफी लोगों को राहत मिल गई लेकिन कुछ ऐसे ब्राह्मण से जो चाहते थे कि रामायण का प्रचार केवल संस्कृत भाषा में होना चाहिए क्योंकि संस्कृत भाषा ही सही है रामायण को पढ़ने के लिए। कुछ ब्राह्मणों ने उनका बहिष्कार भी किया लेकिन वह अपना काम करते रहे।
तुलसी ने रामचरितमानस में भगवान श्रीराम के चरित्र का चित्रण जितने प्रभावशाली तरीके से किया गया है, उतने ही प्रभावशाली तरीके से भगवान राम के माध्यम से जीवन को जीने का तरीका भी बताया है। रामचरितमानस में मनुष्य को बताया गया है कि जीवन को सफल और सुखी बनाना है तो राम को भजने के साथ ही सांसारिक व्यवहार का भी ध्यान रखना होगा।
विरक्त हो जाने के उपरांत तुलसीदास ने काशी को अपना मूल निवास-स्थान बनाया।तुलसीदास के जीवन का सर्वाधिक समय यहीं बीता। काशी के बाद सबसे अधिक दिनों तक अपने आराध्य राम की जन्मभूमि अयोध्या में रहे। मानस के कुछ अंश का अयोध्या में रचा जाना इस तथ्य का प्रमाण है। उनके जन्म स्थान राजापुर के तुलसी कुटीर में उनके रामचरित मानस के हस्तलिखित पृष्ठ सुरक्षित हैं जिनके दर्शन किये जा सकते हैं। कुछ पृष्ठ चित्रकूट धाम में कामदगिरि की परिक्रमा में तुलसीदास द्वारा लगाये गये पीपल के पुराने वृक्ष के पीछे एक कुटी में रहनेवाले साधु के पास हैं जिन्हें वे आग्रही दर्शनार्थियों को प्रेम से दिखाते हैं। यहां अभी जो वीडियो आप देख रहे हैं उसमें मेरा छोटा बेटा अवधेश त्रिपाठी और छोटी बहू कल्याणी त्रिपाठी परिक्रमा पथ पर तुलसी की हस्तलिपि में रामयण के पृष्ठों को देख और उनके बारे में साधु से जानकारी ले रहे हैं। 
तीर्थाटन के क्रम में तुलसीदास प्रयाग, चित्रकूट, हरिद्वार आदि भी गए। रामायण की कथा उन्होंने सर्वप्रथम अपने गुरु नरहरि दास से ही सुनी। वे कहते हैं- मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहउ अचेत।
  वे कहते हैं कि उन्होंने अपने गुरु से सूकरखेत में यह कथा (रामकथा) सुनी पर उस समय बालपन था इसलिए समझ नहीं पाया।
जिस सूकरखेत का उल्लेख तुलसीदास ने यहां किया है वह वर्तमान  में उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले का सोरों नगर है। यह नैमिषारण्य तीर्थ के समीप हैं।
आज भी यह माना जाता है की रामचरित्र मानस ही वाल्मीकि जी के रामायण का अनुवाद है ।और हनुमान जी आज भी धरती पे रहते हुए श्री राम जी भक्ति करते है कहते है जहा रामजी के भजन गाये जाते है वहा  हनुमान जी अवश्य होते हैं।
तुलसीदास ऋषि वाल्मीकि के ही अवतार थे इसका उल्लेख भविष्योत्तर पुराण में भी मिलता है। उसमें एक श्लोक है-

   वाल्मीकिस्- तुलसीदासः कलौ देवि भविष्यति।              -       

  रामचन्द्रक- थामेतां भाषाबद्धां- करिष्यति॥

  इस श्लोक का अर्थ  यह है कि शिवजी पार्वती जी से कहते हैं कि हे देवि

वाल्मीकि कलियुग में तुलसीदास के रूप में अवतार लेंगे और सरल देशज

भाषा  रामकथा लिखेंगे।

एक उल्लेख यह भी मिलता है कि स्वयं ब्रह्मा ने वाल्मीकि से कहा था कि आप कलियुग में पुन:अवतार लीजिएगा और रामकथा को नये ढंग से सहज-सरल भाषा में

गायेंगे।


   तुलसीदास को संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिंदी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। अपने जीवनकाल में उन्होंने 12 ग्रंथ लिखे। 
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में बहुत सारे अन्तर हैं जिन्हें दोनों ग्रन्थ पढ़ने पर सरलता से देखा जा सकता है। इनमें से कुछ अन्तर इस तरह है...
सर्वप्रथम दोनों ग्रन्थों को लिखने की भावना में ही बहुत अन्तर है। ऋषि वाल्मीकि ने जहाँ मूलकथा को एक अवतार के रूप में बताने का प्रयत्न किया है, वहीं तुलसीदास ने श्रीराम की भक्ति में ग्रन्थ लिखा है। वाल्मीकि के राम देवताओं के हित के लिए विष्णु के अवतार हैं परन्तु तुलसीदास के राम स्वयं सर्वशक्तिशाली, अनादि, अनन्त ईश्वर हैं। स्वयंभुव मनु-शतरूपा तपस्या से राम को प्रसन्न कर उन्हें पुत्र रूप में पाने का वरदान माँगते हैं। तब प्रभु कहते हैं –आप सरिस कहं खोजहुं जाई। नृप तव तनय होब मैं आई। दूसरा अन्तर जो सभी जानते हैं, वह भाषा का है। रामायण कई शताब्दियों तक संस्कृत में पढ़ी-सुनी जाती रही, उसका अनुवाद दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं में तो हुआ था परन्तु उत्तर भारत में नहीं। ऐसे में जब सम्पूर्ण भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार हो रहा था, धर्मांतरण का बोलबाला था, तुलसीदास ने श्रीराम के सुराज्य के अर्थ को समझाने हेतु रामकथा को जनमानस की भाषा में कहने का बीड़ा उठाया। उन्होंने इसके लिए अवधी भाषा को चुना। वह अयोध्या में रहते थे और उन्होंने अयोध्या में ही इस ग्रन्थ को रामनवमी के दिन लिखना प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने रामचरित मानस ग्रंथ में भी इसका उल्लेख इस तरह किया है-संवत् सोलह सौ इकतीसा। कहहुं कथा प्रभु पद धर सीसा। नौमी भौमवार मधुमासा। अवध पुरी यह चरित प्रकाशा।।
 वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास के रामचरित मानस के कथा-प्रसंगों में भी बहुत अंतर है. रामायण में केवट का कोई वर्णन नहीं हैं। रामचरितमानस में रामभक्ति में ऐसे प्रसंग जोड़े गए हैं। रामायण में निषादराज गुह भारद्वाज ऋषि के आश्रम में नहीं गए थे जबकि रामचरितमानस में वह राम के साथ ही आश्रम में जाते हैं।
       रामायण में राम को भारद्वाज ऋषि चित्रकूट में रहने का सुझाव देते हैं, रामचरितमानस में वाल्मीकि यह सुझाव देते हैं। इससे संबंधित चौपाई है-चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहं सब भांति तुम्हार सुपासू।।
    
      रामायण में सीता राम से मृग को पकड़ कर लाने के लिए कहतीं हैं जिसे वह अयोध्या ले जा सकें। रामचरितमानस में सीता मृगचर्म लाने को कहतीं हैं।
रामायण में लक्ष्मण को पहले ही सन्देह हो जाता है कि मृग रूप में मायावी मारीच ही होगा परन्तु रामचरितमानस में ऐसा नहीं है।
रामायण में मारीच मरते समय सीता और लक्ष्मण दोनों को पुकारता है परन्तु रामचरितमानस में केवल लक्ष्मण को पुकारता है।
रामचरितमानस में सीता का नहीं छायासीता का हरण होता है जबकि रामायण में ऐसा नहीं है।

ऐसे और भी कई अंतर वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास की रामचरित मानस में हैं।

तुलसीदास जी के जन्म-मरण के बारे में ये दोहे प्रचलित हैं।

पंद्रह सै चौवन विषै,कालिंदी (यमुना) के तीर,

सावन शुक्ला सप्तमी,तुलसी धरेउ शरीर।

गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म विक्रमी सम्वत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी को

संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर।श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ॥

इस तरह से वह रामकथा गाकर जो आज पूरे विश्व में विख्यात है यह महाकवि अपनी इहलोक की लीला समाप्त कर परमधाम को सिधार गये। उनकी अमर कृति रामचरित मानस घर-घर में समादृत है। इसे धार्मिक प्रवृत्ति के लोग श्रद्धापूर्वक गाते हैं, इस पर आधारित रामकथा का मंचन रामलीला के रूप में करते हैं।

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