Thursday, June 5, 2025

  आत्मकथा-76https://rajeshtripathi4u.blogspot.com/

हरिवंश जी के नेतृत्व में नयी विधा में काम



जनसत्ता में कार्य सुचारु रूप से चल रहा था। मैं अपने स्तंभों का काम देखने के साथ साथ सबरंग में जो लिखने को संपादक अरविंद चतुर्वेद कहते वह लिखता जाता था। इस भाग्य से पूरी तरह से अनभिज्ञ कि जल्द ही मेरी जिंदगी एक नया मोड़ लेनेवाली है। मोड़ जो ना सिर्फ जीवन की दशा दिशा बदल देगा अपितु ऐसी विधा से जोड देगा जो मेरे लिए सर्वथा नयी है। जिससे मैं परिचित जरूर था लेकिन उसके तकनीकी पक्ष से अनजान था।

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एक दिन की बात है हम लोग कोलकाता के बी के पाल एवेन्यू स्थित कार्यालय में काम कर रहे थे तभी हरिवंश जी पधारे। हरिवंश जी और मैं आपस में परिचित थे। हम लोगों ने कोलकाता के प्रृतिष्ठित बांगला दैनिक के आनंद प्रकाशन के बैनर तले निकलने वाले हिंदी साप्ताहिक रविवार में साथ साथ काम कर चुके थे। उनसे उनसे मै भलीभांति परिचित था। थोड़ी देर आपस में कुशल क्षेम का विनिमय हुआ उसके बाद हरिवंश जी अपने मूल उद्देश्य पर जिसलिए वे मुझसे मिलने आये थे।

वे सीधे अपने उस उद्देश्य पर आये जो उन्हें मुझ तक खींच लाया था। उन्होंने कहा-हम बहुत जल्द अपने हिंदी दैनिक प्रभात खबर की वेबसाइट लांच कर रहे हैं जिसके लिए हमें कांटेंट चीफ चाहिए। बहुत खोजा पर अंतत; हमारी नजर आप पर ही आकर टिकी। आपको हमारे संस्थान से कांटेट चीफ के रूप में जुड़ना है।

 सच बोलता हूं कोई और होता तो मैं सीधे मना कर देता। भला इंडियन एक्सप्रेस जेसे प्रतिष्ठित संस्थान की परमानेंट नौकरी छोड़ कर कोई क्यों जाने लगा लेकिन मैं हरिवंश जी को ना नहीं कह सका। उनसे मैं बहुत प्रभावित था उनकी नयी नयी विविध विषयों की पुस्तकें पढ़ने की आदत से। हम जब आनंद बाजार प्रकाशन के रविवार में साथ काम कर रहे थे तो वहां पुस्तक बेचनेवाला व्यक्ति आता था हरिवंश जी उसके स्थायी ग्राहक थे। कोई नयी पुस्तक आती तो हरिवंश जी अवश्य लेते थे। एक बार की बात है मैं और रविवार में हमारे साथ अनिल कुमार  आनंद बाजार पत्रिका भवन की छत पर बनी कैंटीन में चाय पीने गये थे। लौट कर आये तो देखा हरिवंश जी मेरे लिए स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित राजयोग का पूरा सेट लिये बैठे थे-। उन्होंने मुझसे कहा-मैंने यह आपके लिए लिया है।यह आपके काम की चीज है।

 मैंने इनका धन्यवाद किया और कहा- रुपया मैं कल दे दूंगा।

वे बोले जब सुविधा हो दे दीजिएगा।

               हरिवंश जी

वैसे हरिवंश जी के लिए ना कह पाना मेरे वश की बात नहीं थी। मैंने ज्यादा सोच विचार किये बिना हां कर दी हालांकि एक परमानेंट नौकरी छोड़ कर मैं बड़ी रिस्क ले रहा था।

हरिवंश जी ने एक जगह बतायी जहां मेरा इंटरव्यू होना था। तय समय पर मैं इंटरव्यू वाली जगह पहुंचा तो वहां इंटरव्यूर भी परिचित निकले। मेरा इंटरव्यू जिन आलोक कुमार ने लिया वे उस वक्त आनंद बाजार ग्रुप में विज्ञापन मैनेजर थे जब मैं आनंद बाजार प्रकाशन की साप्ताहिक हिंदी पत्रिका रविवार में उप संपादक था।

मेरा इंटरव्यू पूरा हुआ। मेरा चयन प्रभात खबर की वेबसाइट www.prabhatkhabar.com में कांटेंट चीफ के रूप में हो गया।इस तरह हरिवंश जी के नेतृत्व में नयी विधा नये परिवेश में नयी शुरुआत।

दूसरे दिन ही नयी जगह में काम ज्वाइन कर लिया। कार्यालय कोलकाता के फियर्स लेन में था। वेबसाइट के  स्टाफ के लिए टाप फ्लोर  में जगह दी गयी थी। निचले तल्ले में प्रभात खबर दैनिक  का स्टाफ बैठता था। मेरे साथ सहयोगी के रूप में वहां वाई एन झा जी मिले। कुछ दिन में ही मैं उनकी योग्यता का कायल हो गया। हमें दो ग्राफिक आर्टिस्ट भी मिले थे।

 वेबसाइट एक तरह से पूरी तरह खाली थी। बस उसका होमपेज बना था और जो विषय उसमें होने थे उनके लिंक होम पेज में थे। होमपेज में जितने लिंक थे उनमें करेंट न्यूज के अतिरिक्त करेंट अफेयर,घटना,दुर्घटना, तीज, त्योहार,धर्म संस्कृति और विविध स्तंभ। हमारे लिए यह शून्य से शुरू करने जैसी स्थिति थी। चुनौती बड़ी थी लेकिन पहले दिन से मैं और झा जी काम में जुगये। (क्रमश:)

Saturday, April 12, 2025

श्रीश जी के साथ फिल्म फेस्टिवल कवरेज इसलिए बन गया यादगार

 आत्मकथा-74

 


पूर्व में ही बता चुका हूं कि जनसत्ता में फिल्म संबंधी इवेंट कवर करने का भाऱ भी मुझ पर ही था। इसके चलते कई राज्य स्तरीय फिल्म समारोहों का कवरेज करने का अवसर मुझे मिला। अपनी छोटी बुद्धि में देशी और विदेशी फिल्मों में जो  अंतर पाया वह था भव्यता और उत्कृष्टता का। हमारे यहां अगर कला फिल्मों के निर्माताओं  को छोड़ दें व्यावसायिक फिल्मों के निर्माता अपने सेट्स और कलाकारों के चेहरे चमकाने में लगे रहते हैं। कला फिल्मों के निर्माता का पूरा ध्यान कथानक उसके परिवेश तदनुसार  पात्रों को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करने में होता है। ऐसे ही एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह कवरेज करने का मौका मुझे 1994 में मिला। मेरे लिए यह अनोखा और अनमोल अवसर था क्योंकि इसे मैंने इंडियन एक्सप्रेस के ऐसे वरिष्ठ संपादक श्रीश मिश्र (स्वर्गीय़) की क्षत्रछाया और गाइडेंस में किया  ‘जनसत्ता’ के कलकत्ता संस्करण में कार्य करते समय उनसे परिचय हुआ और उनके साथ कुछ दिन काम करने का मौका भी मिला। बात 1994 की है कलकत्ता में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित किया जा रहा था। कलकत्ता संस्करण के लिए समारोह का कवरेज करने के लिए मुझे नियुक्त किया गया था और मेरे नाम से कार्ड बन चुका था। श्रीश मिश्र जी दिल्ली से आये थे दिल्ली संस्करण के लिए समाचार संकलन के लिए। उनसे हमारे संपादक ने मेरा परिचय कराते हुए कहा-‘मिश्र जी हमारे यहां के लिए राजेश जी समारोह की कवरेज कर रहे हैं।‘
                                              स्वर्गीय श्रीश मिश्र
श्रीश जी से नमस्ते आदि की औपचारिकताएं पूरी हुईं उसके बाद वे बोले कि उनको भी अपना कार्ड बनवाना है ताकि वे दिल्ली संस्करण के लिए समारोह का कवरेज कर सकें। हम लोग फिल्म समारोह निदेशालय के कलकत्ता स्थित अस्थायी कार्यालय गये और सारी बात बतायी तो वहां अधिकारियों ने कहा-‘आपके अखबार के लिए कलकत्ता के लिए एक कार्ड बना दिया गया है और कार्ड नहीं बन सकता।‘
श्रीश जी बोले-‘ मैं कलकत्ता नहीं दिल्ली संस्करण के लिए कार्ड मांग रहा हूं वहां हमारा मुख्य संस्करण है। हम वहां के लिए उद्घाटन समारोह व अन्य कार्यक्रमों का कवरेज कैसे करेंगे।‘
उस अधिकारी ने तपाक से कहा- ‘टीवी देख कर कवरेज कीजिए।‘
इसके बाद श्रीश जी अधिकारी से तो कुछ नहीं बोले पर मुझे ताकीद कर दी कि समारोह के आयोजन में जहां भी जो भी अव्यवस्था दिखे उसे जोरदार ढंग से उजागर कीजिएगा। उनके कहने पर ही मैंने उनको कार्ड ना मिलने की खबर को शीर्षक दिया-‘ पत्रकार को कहा गया कार्ड नहीं टीवी देख कर खबर बनाइए।’
उसके बाद से लगातार उनके साथ मैं फिल्म समारोह का कवरेज करता रहा। वे मेरा हौसला बढ़ाते रहे और मैं उनके निर्देश पर जैसी रिपोर्ट करता रहा शायद ही कोई वैसा कर पाया हो। इसे आत्मश्लाघा ना माने मुझे मेरे सीनियर (श्रीश जी) से फ्रीहैंड मिल गया था और मैंने उसका अक्षरश: पालन किया। हमारे शीर्षक होते थे-‘पत्रकार कार्ड के लिए टापते रहे अधिकारियों के रिश्तेदार हाल में धंस गये।‘ अब तो शीर्षक याद नहीं आ रहे लेकिन हमारी नजर हर उस अव्यस्था पर रही जो फिल्म समारोह निदेशालय की ओर से हुई।
श्रीश जी के ही कहने पर मैंने फिल्म समारोह निदेशालय की तत्कालीन डायरेक्टर से फोन पर समय लिया ताकि उऩका ध्यान इन अव्यस्थाओं की ओर दिला सकूं। उनसे समय मिल गया लेकिन जब मैं वहां गया तो उनके सहायक ने मुझे उनसे नहीं मिलने दिया। मैंने देखा कि दूसरे पत्रकार निदेशक से मिल-मिल कर जा रहे हैं। इस पर मैने उस सहायक से पूछा-‘ मैने समय ले रखा है मुझे जाने नहीं देते और ये कैसे जा रहे हैं।‘
उसका उत्तर था कि –‘नहीं आपको नहीं मिलने दिया जायेगा।‘ मुझे इस बात का एहसास हो गया कि जनसत्ता की रिपोर्टिंग के चलते शायद ये चिढे हैं जो इनकी अव्यवस्था की बखिया उधेड़ रही है। मैंने जब बार-बार जिद की तो वह सहायक बोला-‘आपको सारी प्रचार सामग्री दे गयी और क्या चाहिए।‘
मुझे बड़ा गुस्सा आया मैने कहा-‘अगर प्रचार सामग्री से ही काम चला लेना था तो आप लोग इतनी बड़ी टीम लेकर क्यों आये। यह तो मैं पीआईबी में कार्यरत अपने मित्र अधिकारी से भी ले लेता। समारोह के नाम पर क्या असुविधा हो रही है उसकी खबर आपको देना और उसकी ओर आप लोगों का ध्यान आकर्षित करना है।‘
शोर-शराबा सुन कर कलकत्ता पीआईबी कार्यालय के मेरे परिचित मित्र उठ कर मेरे पास आये और बोले –‘क्या बात है भाई साहब क्या परेशानी है।‘ मैंने अपने उस साथी से बताया कि यह हमारा स्थानीय मामला नहीं है मुझे दिल्ली वालों से जवाब चाहिए।
फिल्म निदेशालय के निदेशक से पत्रकार को नहीं मिलने दिया गया यह खबर भी हमने प्रमुखता से छापी। श्रीश जी ने मुझसे कह रखा था कि-‘आप जो कर रहे हैं बेहतर कर रहे हैं यह जारी रहना चाहिए। अगर कोई फिल्म अच्छी होगी तो मैं आपको देखने को कहूंगा।‘
अब श्रीश जी का वरदहस्त मुझ पर था तो मैं भी अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था। उस दौरान दिल्ली से आये एक बुजुर्ग पत्रकार अक्सर मुझसे खबर ले लेते थे। मैं उनसे परिचित नहीं था। एक दिन श्रीश जी ने मुझे उनके पास बैठे देखा तो मुझे आगाह किया-‘राजेश जी इन सज्जन को कोई खबर मत बताइएगा यह हमारे प्रतिद्वंदी एक हिंदी अखबार के लिए समारोह की रिपोर्टिंग कर रहे हैं।‘ मैंने उनसे कहा-‘भाई साहब मैं तो समझ रहा था कि ये दिल्ली के किसी अखबार के लिए काम कर रहे हैं, अच्छा हुआ आपने सजग कर दिया।‘
उसके बाद वे सज्जन रोज की तरह मुझसे पूछते कि कोई खबर है क्या मैं मना कर देता 
लेकिन दूसरे दिन जनसत्ता में जोरदार खबर पाकर वे कहते –‘अरे आप तो कह रहे थे कोई खबर नहीं इतनी जोरदार खबर छापी आपने।‘ मैं कुछ कह कर टाल देता था।
एक दिन उन साहब ने मुझे चौंका दिया। मुझे बुलाया और मेरे कान में बोले-‘कल संभल कर रहिएगा, कल नंदन में आतंकी हमला होने वाला है।‘ मैंने यह बात श्रीश जी से बतायी तो वे हंसने लगे और कहा-‘सुरक्षा के इतने कड़े प्रबंध हैं राजेश लगता है उस आदमी ने मजाक किया है या तुम्हें भ्रम में डाल कर यह गलत अखबार जनसत्ता में छपवाना चाहता है ताकि अखबार बदनाम हो जाये। वैसे एहतियात के तौर पर आप अपने रिपोर्टर प्रभात रंजन दीन से यह बात बता कर उनसे कहिएगा कि वे कोलकाता पुलिस मुख्यालय से फोन कर इस बारे में जानकारी ले लें।‘
मैंने कार्यालय आकर प्रभात रंजन दीन से पूरी बात बतायी और कहा कि श्रीश जी ने कहा है कि आप कोलकाता पुलिस मुख्यालय से पता कर लें। उन्होने पुलिस मुख्यालय में फोन किया तो वहां का अधिकारी हंसने लगे और बोले ‘हमें पता नहीं और किस पत्रकार को पता चल गया कि आतंकी आ रहे हैं।‘
हम निश्चिंत हो गये और श्रीश जी को भी धन्यवाद दिया कि किसी पत्रकार की गलत खबर जनसत्ता में प्लांट कराने के गुनाह से उन्होंने बचा लिया। उन दिनों मैं अपनी रिपोर्टिंग में नाम नहीं देता था। मेरी वह रिपोर्ट तब जनसत्ता के सभी संस्करणों में जाती थी। एक दिन नंदन परिसर [कोलकाता का वह परिसर जहां फिल्म समारोह आयोजित किये जाते हैं] में ही श्रीश जी बोले-‘राजेश जी आप अपनी रिपोर्ट्स में नाम क्यों नहीं देते।‘
मैंने कहा-‘छोड़िए ना भाई साहब काम करना है, नाम का क्या।‘
मैं उन्हें रोकूं इससे पहले वे हमारे स्थानीय संपादक को फोन पर कह चुके थे-‘राजेश जी ना भी कहें तो भी फिल्म समारोह की उनकी रिपोर्ट में उनका नाम अवश्य दें।‘
मैंने कहा-‘भाई साहब इसकी क्या जरूरत थी।‘
 वे बोले-‘जरूरत थी राजेश जी।‘
हम लोगों ने समारोह में होनेवाली अव्यवस्था की जम कर धज्जी उड़ायी थी। उसकी आंच फिल्म निदेशालय के अधिकारियों तक पहुंची थी यह पता मुझे तब चला जब इंडियन एक्सप्रेस की ओर से फिल्म समारोह निदेशालय के अधिकारियों और डायरेक्टर के सम्मान में भोज दिया गया। उस वक्त हमारे स्थानीय संपादक रहे श्यामसुंदर आचर्य ने डायरेक्टर से मेरा परिचय कराते हुए कहा-‘ये राजेश त्रिपाठी हैं इन्होंने हमारे लिए समारोह का कवरेज किया है।‘ इस पर डाइरेक्टर ने भौंहे तरेरते हुए कहा-‘ओह सो यू आर मिस्टर राजेश त्रिपाठी।‘ मेरे मुंह से भी तपाक से निकल गया-‘एस आई ऐम।‘
श्रीश जी से वही मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी। उन्होंने दिल्ली जाकर फैक्स संदेश भेजा-‘राजेश जी आपने समारोह का बहुत अच्छा कवरेज किया, इसके लिए धन्यवाद।‘ अफसोस फैक्स मैजेस के वे शब्द कागज से तो मिट गये पर मेरे मन मस्तिष्क में एक वरिष्ठ पत्रकार के आशीर्वचन से अंकित हो गये।
उन्हें हम फिल्मों का इन साइक्लोपीडिया कहते थे। बहुत ही विस्तृत और अद्भुत था उनका फिल्मी ज्ञान। उनके लेख पढ़ कर हमने बहुत जानकारी पायी। श्रीश जी जैसे पत्रकार जब जाते हैं एक बड़ा शून्य कर जाते हैं। (क्रमश;)

Wednesday, December 25, 2024

शक्ति सामंत से सम्मान पाकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा

आत्मकथा- 73




 सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था।  जनसत्ता दिनोंदिन लोकप्रियता की ऊंचाइयां चढ़ रहा था। समाचार पत्र को बढ़ते और पाठकों में अपनी गहरी पैठ बैठाते देख हम सब बहुत उत्साहित और प्रसन्न थे। पाठकों के मध्य दिनोंदिन बढ़ती इसकी स्वीकारता से भी हम सब खुश थे। लेकिन कहते हैं ना कि सदा दिन जात ना एक समान। एक दिन संकट आ ही गया। संकट आया क्या यह समझिए कि लाया गया। हमारे कुछ साथी जानबूझ कर नाइट ड्यूटी करा लेते थे। काम खत्म हो जाने पर भी वे कंप्यूटर से चिपके रहते थे। एक दिन सभी कंप्यूटरों में वायरस अटैक हो गया। फाइनल पेज बन गये थे लेकिन वायरस अटैक के कारण वे भी गायब हो गये थे। अखबार नगर से दूर सबर्ब के एक प्रेस में छपता था वहां पेजेज भेजने का टाइम गुजरने वाला था।

सिस्टम इंजीनियर से मैने पूछा –वायरस अटैक हुआ कैसे, क्या बाहर से आयी कोई सीडी चलायी गयी। इस पर इंजीनियर ने जो बात बतायी उससे मैं चौंक गया। इंजीनियर ने बताया कि वायरस अटैक किसी सीडी के चलाने से नहीं बल्कि अश्लील पोर्न साईट्स से हुआ मैंने जानना चाहा कि यह पोर्न साइट्स कौन और क्य़ों खोलता है। इसे तो लेटेस्ट खबरे देखने के लिए उपलब्ध कराया गया है।

 इंजीनियर ने बताया-दादा बुरा मत मानिएगा, आपके कुछ साथी केवल इसलिए रात ड्यूटी करते हैं ताकि वे ड्यूटी खत्म होने के बाद गंदी साइट्स देख सकें। यहां यह बताते चलें कि ऐसी साइट्स ना सिर्फ मानस को दूषित करती हैं अपितु लत भी लगा देती हैं। ऐसी साइट्स के चलते विदेशों में बच्चे तक बरबाद हो रहे हैं जिसे लेकर माता पिता परेशान हैं। उन्हें इस दुर्गुण से बचाने के लिए उनको अपने बच्चों पर निगरानी रखनी पड़ती है और ऐसी साइट्स ब्लाक करनेवाले साफ्टवेयर्स का सहारा लेना पडता है।विदेश में पोर्न साइट्स और पोर्न फिल्मों का अच्छा खासा व्यापार है।

मुझे पता था कि क्वार्क एक्सप्रेस जिसमें पेज बनाये जाते थे उसमें एक फोल्डर ऐसा होता है जहां डुप्लीकेट पेजेज सेव होते हैं। खोजने पर वहीं सारे पेज मिल गये। इसके बाद उन पेजेज की प्लेट बना कर छपने  के लिए प्रेस भेजा गया। उसी दिन दिन इंजीनियर से मैंने कहा कि ऐसा करते हैं कि कोई साफ्टवेयर इंस्टाल कर दिया जाये जो गंदी पोर्न साइट्स को ब्लाक कर सके। इंजीनियर ने खोज कर वह साफ्टवेयर इंस्टाल कर दिया। वह साफ्टवेयर काम करता है या नहीं यह भी चेक कर लिया गया। पोर्न वेबसाइट्स का ऐड्रस सर्च बार पर डालने ,से वह उस साइट्स को नहीं खोलता था। जब यह प्रयोग सफल रहा तो मैंने इंजीनियर से कहा कि जो लोग ऐसी साइट्स के लिए रात डयूटी करते थे वे वैसी साइट्स ना खुलने पर आप से शिकायत कर सकते हैं कि कुछ साइट्स नहीं खुलतीं। आप तुरत उनको समाचार से जुड़ी सारी साइट्स खोल  कर दिखा देना और कहना सारी न्यूज साइटस तो खुल रही हैं।

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जनसत्ता के साथ रविवार को मुफ्त दी जानेवाली पत्रिका सबरंग में मैं कुछ ना कुछ लिखता रहता था। इसमें ज्यादातर फिल्मों से संबंधित लेख होते थे। कभी कभी तो फिल्म के विषय को लेकर कवर स्टोरी भी होती  थीं। पाठकों के बीच सबरंग पत्रिका बहुत लोकप्रिय थी। रविवारी जनसत्ता के साथ रविवारीय परिशिष्ठ के साथ एक पत्रिका सबरंग मिलना बंगाल के पाठकों के लिए नयी बात थी।

स्टूडियो कवरेज और फिल्मों से जुड़े सभी पक्षों का कवरेज मैं निरंतर करता रहा। कभी सोचा ना था कि कभी इस काम के लिए मुझे सम्मान भी मिल सकता है। ऐसा अवसर आया मुझे श्रेष्ठ फिल्म पत्रकार के रूप में नगर की एक सांस्कृतिक संस्था कलाकार एवार्ड ने सम्मानित करने का निर्णय लिया। मेरे साथ बांग्ला दैनिक वर्तमान के पत्रकार सुमन गुप्त को भी सम्मानित करने की घोषणा की गयी। पत्रकारिता करते हुए कई वर्ष बीत जाने के बाद मुझे मिलने वाला पहला सम्मान था।




        सम्मान में मिला स्मृति फलक


 तय दिन को महानगर के एक प्रसिद्ध सभागार में सम्मान समारोह आयोजित किया गया। पत्रकारों को सम्मानित करने के लिए संस्था ने मुंबई से जाने माने फिल्म निर्माता शक्ति सामंत को बुलाया था। जो नहीं जानते उन्हें बता दें कि शक्ति दा ने कई फिल्में बनायी थीं जिनमें उनकी मशहूर फिल्म आराधना भी शामिल है। खचाखच भरे बिड़ला सभागार में जब मंच से मेरा नाम पुकारा गया-जनसत्ता के श्री राजेश त्रिपाठी कृपया मंच पर आये। इस घोषणा से मन पुलकित हो गया। मुझे पहली बार एक बड़े समारोह में सम्मानित किया जा रहा था। मैं मंच पर पहुंचा शक्ति दा को नमस्कार किया। कार्यक्रम के एनाउंसर शकील अंसारी ने कहा-अब शक्ति सामंत जी जनसत्ता के पत्रकार श्री राजेश त्रिपाठी को श्रेष्ठ फिल्म पत्रकार के रुप में सम्मानित करेंगे। शक्ति दा आगे बढ़े और मेरे हाथों में सम्मान की ट्राफी थमा दी। मेरे गले में एक उत्तरीय पहना दिया गया। मैं मुड़ कर मंच से नीचे उतरने को ही था कि मेरे उत्तरीय का एक कोना वहां फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ी एक लड़की के गुलदस्ते में फंस गया। अपनी हाजिरजवाबी के लिए प्रसिद्ध शकील अंसारी की नजरों से यह दृश्य छिप नहीं सका। वे बोले – हम आपको ऐसे नहीं जाने देंगे। हम आपसे कुछ सुनना चाहते है। मुझसे जो बन पड़ा वह बोला। अपने वक्तव्य में मैं यह बोला कि कभी मैं ऐसे सम्मान समारोहों का अरसे से कवरेज करता रहा और सोचता था कि मंच के सामने तो अक्सर  स्वयं को पाता रहा, दूसरों को सम्मानित होते देखता और उनकी खबर बनाता रहा। सोचता था कि क्या कभी ऐसा भी दिन आयेगा जब मैं स्वयं को भी सम्मानित होते देखूंगा। मुझे अच्छी तरह याद है जनसत्ता के लिए इस समारोह से संबंधित समाचार बनाते हुए जनसत्ता में हमारे साथी जयनारायण प्रसाद ने मेरे वक्तव्य के उसी अंश को उद्धृत किया था। अपने जीवन का पहला सम्मान पाकर में बहुत खुश था। (क्रमश:)

 

 

Tuesday, December 10, 2024

अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती से दिलचस्प और यादगार भेंट

आत्मकथा-72

 


जनसत्ता में फिल्म से संबंधित समाचारों, समारोहों आदि के कवरेज का जिम्मा मुझ पर ही था। फिल्मों से संबंधित सारी खबरों के अलावा कभी कभी मैं जनसत्ता के साथ मुफ्त में दी जानेवाली साप्ताहिक पत्रिका सबरंग में फिल्मों से संबंधित आमुख कथा अर्थात कवर स्टोरी भी लिखता था। इसलिए कोशिश यह होती थी कि कोलकाता में फिल्मों से संबंधित यथासंभव हर खबर की रिपोर्टिंग की जाती थी।

 एक बार पता चला कि अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती कोलकाता आये हुए हैं और यहां कुछ देर रुक कर दार्जिलिंग जाने वाले हैं। वे राजकीय अतिथि थे। तत्कालीन पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा दार्जिलिंग में उनका राजकीय सम्मान होना था। मुझे पता चला तो सोचा उनसे मिलना और कुछ बात करना आवश्यक है। वे दमदम एयरपोर्ट के पास अशोका होटल में रुके हुए थे। अब इस होटल का अस्तित्व नहीं है। उनसे संपर्क किया तो उन्होंने कहा-जल्द आ जाइए मैं दार्जिलिंग के लिए निकलने वाला हूं। मैने टैक्सी पकड़ी और अशोका होटल पहुंच गया। वहां जाकर देखा कि होटल को स्थानीय पुलिस ने घेर रखा था।

 मैंने होटल के भीतर प्रवेश करना चाहा तो उन्होंने रोकते हुए कहा-आप ऊपर नहीं जा सकते वहां हमारे राजकीय अतिथि अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती रुके हुए हैं। हमें आदेश है कि उनसे किसी को ना मिलने दिया जाये।

मैंने कहा-ठीक है आप इतना तो कर सकते हैं कि मेरा नाम लेकर उनसे पूछ लें कि क्या वे मुझसे मिलना चाहते हैं या नहीं।

 इस बात पर वे राजी हो गये और उन्होंने मिठुन को फोन किया। मिठुन की ओर से जवाब आया-उन्हें भेज दो मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।

इस पर एक पुलिस अधिकारी ने कहा- आप जाइए वे आपका ही इंतजार कर रहे हैं।

 मै ऊपर गया तो देखा मिठुन पत्रकारों से घिरे थे। इनमें एक बांग्ला दैनिक युगांतर के बुजुर्ग पत्रकार थे और दूसरे बांगला दैनिक वर्तमान के सुमन गुप्त। अन्य पत्रकारों का नाम याद नहीं आ रहा। मैंने देखा की मिठुन ने उठ कर युगांतर के पत्रकार के पैर छूकर आशीर्वाद लिया।

उन्होंने मुझे बुला कर पास बैठा लिया। वे खिचड़ी खा रहे थे। उन्होंने मुझसे भी कहा कि आप भी कुछ लीजिए। मेरे मना करने पर भी वे एक जलेबी खिलाये बगैर नहीं माने। उसके बाद बातों बातों में वे बोले कि मैं दूसरे कलाकारों की तरह नहीं। मैं सबसे मिलता हूं। आपको पता चले कि मैं कोलकाता आया हूं आप फोन कर के मुझसे मिलने आ सकते हैं। वे जिस चेयर पर बैठे थे उसके सामने की टेबुल पर एक नीले रंग की शीशी रखी थी। उन्होंने बताया कि यह क्रीम इटली के एक फैन ने भेजी है उसने कहा था कि इससे रंग साफ होता है।

फिर उन्होंने मुझसे पूछा –देखिए कुछ फर्क पड़ा है क्या।

मैंने देखा कोलकाता के स्टूडियो में वर्षों पहले हुई भेंट के बाद से उनके चेहरे के रंग पर काफी फर्क आया था।



            मिठुन चक्रवर्ती का इंटरव्यू लेते हुए

जिंदगी के शुरुआती दिनों में मिठुन ने बहुत कष्ट झेले। युवावस्था में गरीबों,श्रमिकों पर होनेवाले शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए वे चारु मजुमदार और कानू सान्याल जैसे वामपंथी नेताओं से प्रेरित होकर वामपंथी आंदोलन में शामिल हो गये थे। वे इन दोनों नेताओं ने गरीबों मजदूरों के साथ होने वाले शोषण और अत्याचार के खिलाफ आंदोलन चलाया था जो बंगाल के नक्सलबाडी क्षेत्र से शुरू हुआ था। बाद में इस आंदोलन से मिठुन का मोह भंग हो गया और वे उससे अलक हो गये।

इसके बाद उन्होंने मार्शल आर्ट सीखना शुरु किया फिर फिल्मों में तकदीर आजमाने मुंबई चले गये गये। फिल्मों में चांस पाने के लिए उन्होंने बड़े कष्ट झेले। अपने सांवले रंग के लिए लोगों के व्यंग्य भी सुनने पड़े। बाद में वे अभिनय का प्रशिक्षण लेने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में दाखिल हो गये। वहां उन्होंने अभिनय का कोर्स पूरा किया और गोल्ड मेडल लेकर उत्तीर्ण हुए।

 उन्हें फिल्म में अभिनय का पहला अवसर प्रसिद्ध  फिल्मकार मृणाल सेन ने अपनी फिल्म मृगया में अभिनय का अवसर दिया।  अपनी उस पहली फिल्म में ही मिठुन चक्रवर्ती ने राष्ट्रीय पुरस्कार पा लिया। उसके बाद अन्य दो फिल्मों के लिए भी उन्हें श्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वर्ष 2024 में उनको फिल्मों को दिया जानेवाला सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार प्रदान किया गया।

स्थानीय सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक खबरों के कवरेज की दृष्टि से जनसत्ता अपने तत्कालीन प्रतिद्वंदी अखबारों से इसलिए आगे था क्योंकि वह मात्र एजेंसियों या फीचर सर्विस की सेवाओं पर आश्रित ना रह कर अपने लोगों से यथासंभव कवरेज करवाता था। यह इसलिए संभव हो पाता था क्योंकि प्रभाष जी ने अच्छा अखबार निकालने के लिए हर विभाग को मर्यादित रहते हुए हर तरह की स्वतंत्रता दे रखी थी। प्रभाष जी बीच बीच में आकर संपादकीय टीम के साथ बैठक करते और आवश्यक दिशा निर्देश देते थे। जनसत्ता में दूसरे अखबारों के लिए

ऐसा नहीं था कि एक संपादक बैठा दिया ना कोई दिशा निर्देश ना यह आकलन कि अखबार कैसे निकल रहा है,उसकी नीति,दशा दिशा क्या है। बस एजेंसी से आयी खबरें छाप दीं ना कोई विश्लेषण ना विशेष रिपोर्ट।

  जनसत्ता का एक और आकर्षण था जनसत्ता के साथ रविवार को दी जाने वाली पत्रिका सबरंग। अकसर मुझे भी इसमें लिखने का मौका मिलता था। कभी कभी तो इसके किसी किसी अंक की आमुख कथा भी मैंने लिखी।

 मैं मीडिया महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह की छत्रछाया में आनंद बाजार प्रकाशन के लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक रविवार में पत्रकारिता के गुर सीख कर आया था इसलिए प्रभाष जोशी जी के निर्देश और उनकी दृष्टि को समझ कर तदानुसार कार्य करने में कोई असुविधा नहीं हुई। (क्रमश:)

 

Wednesday, November 27, 2024

दुर्घटना जिसमें हम सबकी जान सांसत में फंस गयी

आत्मकथा-71 

जनसत्ता दिनों दिन प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। जनसत्ता ने पाठकों में अपनी धाक जमा ली थी। समाचारों पर अच्छी पकड़, जनता से सरोकार रखनेवाले मुद्दों को प्रमुखता से स्थान देने के कदम ने इस समाचार पत्र को जन जन तक पहुंचा दिया था।

 राज्य के कोने कोने से खबर लाने वाले स्ट्रिंगरों की बदौलत इसमें सभी क्षेत्रों का समावेश होता था। पाठकों में इसकी विश्वसनीयता भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। खतरनाक स्थितियों से भी हमारे लोग समाचार संग्रह से नहीं चूकते थे। इस बारे में एक घटना याद आती है। कोलकाता के पासवर्ती एक उपनगर में किसी धार्मिक मामले को लेकर अच्छा खासा विवाद उठ खड़ा हुआ था। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि उसे नियंत्रित करने के लिए पुलिस को बुलाना पड़ा। इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए हमारे एक साथी अभिज्ञात जी को भेजा गया। वहां की भीड़भाड़ और हंगामे के बीच हमारे साथी अभिज्ञात भी फंस गये। वहां उपस्थित पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज शुरू कर दिया और लाठीचार्ज में हमारे भाई अभिज्ञात जी बुरी तरह से पिट गये उनकी उंगलियां टूट गयीं थी।

इस घटना का उल्लेख इसलिए  किया ताकि यह पता चल सके कि जनसत्ता से जुड़े लोग कार्य के प्रति कितने समर्पित थे। इसी तरह की एक घटना और याद आती है जब सांप्रद्रायिक तनाव के बारे में रिपोर्ट के वक्त जनसत्ता के धाकड़ और साहसी पत्रकार प्रभात रंजन दीन फंस गये। बाकी पत्रकार उग्र भीड़ के पास जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे और वे प्रभात रंजन दीन को भी आगाह कर रहे थे वहां जाना खतरनाक है लेकिन वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित पत्रकार हैं और उन्होंने रिर्पोटिंग का अपना पूरा काम किये बगैर वह जगह नहीं छोड़ी।

उदाहरण तो कई हैं लेकिन कुछ उदाहरण दिये ताकि जनसत्ता की टीम की अपने कार्य के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता का पता चल सके। ऐसे कई दृष्टांत हैं। यही वजह है कि स्थानीय या राष्ट्रीय खबरों को प्रमुखता से प्रस्तुत  करने में जनसत्ता सदा आगे रहा। यह बात जनसत्ता के नयी दिल्ली, चंडीगढ मुंबई और कोलकाता सभी संस्करणों में प्रमुखता से परिलक्षित होती थी।

अब उस घटना के जिक्र पर आते हैं जिसके चलते कुछ पल के लिए हम सब लोगों की जान सांसत में फंस गयी थी। बीके पाल एवेन्यू में जिस मंदिर वाले मकान में जनसत्ता का कार्यालय था उसमें दरवाजे से प्रवेश करते ही दायीं तरफ कई ट्रांसफार्मर थे।  जब यह दुर्घटना हुई उन दिनों काली पूजा चल रही थी। हमारे कार्यालय के बगल में भी कालीपूजा का पंडाल था।

 हम लोग काम कर ही रहे थे तभी नीचे से कोई चिल्लाया-ट्रांसफार्मर फट गया है तेजी से काला धुआ  पूरी बिल्डिंग में फैल रहा है। सभी लोग बाहर निकल आयें। कुछ लोग तो नाक में रूमाल दबा कर बाहर निकल गये। न्यूज डेस्क के प्रमुख गंगा प्रसाद बिल्डिंग के पास के बरगद की डाल पकड़ कर किसी तरह से नीचे उतर गये। ऊपर मैं और ओमप्रकाश अश्क रह गये। हम जब तक सीढ़ियां उतर कर आते तब सीढ़ियां और मंदिर के सामने का हिस्सा काले धुएं में डूब गया था हमारे सामने काले धुएं में दम घुटने का कष्ट झेलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हमने खिड़की से नीचे चिल्लाना शुरु किया-ए दिके जानलाय मोई लगान आमरा फेंसे गियेछि अर्थात इधर नसेनी लगाइए हम लोग ऊपर फंसे हुए हैं। यह हमरा सौभाग्य है कि नीचे लोगों ने हमारी बात सुन ली। कालीपूजा का पंडाल बनाने के लिए नसेनी लायी गयी थी वही लेकर लोगों ने खिड़की की तरफ लगा दी और जोर से चिल्लाये आप लोग नीचे उतरिए हम लोग मोई यानी नसेनी पकड़े हुए हैं। ओमप्रकाश अश्क और मैंने जूते  पहने और खिड़की के कांच पर कई बार प्रहार किया। कुछ देर में खिड़की का कांच टूट गया और मैं मेरे पीछे ओमप्रकाश अश्क धीरे धीरे नीचे उतर गये। जब हमारे कदम धरती पर  पड़े तब कहीं हमारी जान में जान आयी। नीचे ख़ड़े हमारे साथी भी हमारे लिए चिंतित थे। हमें सुरक्षित देख वे भी चिंतामुक्त हुए।

  दूसरे दिन जब  हम लोग वापस पहुंचे तो जिन खिड़कियों को तोड़ कर हम  निकले थे उन्हें देख कर ओमप्रकाश अश्क बोले- बाबा क्या डर में आदमी पतला हो जाता है। इस संकरी खिड़की से हम लोग कैसे निकल गये। यहां स्पष्ट कर दूं कि मेरे ओमप्रकाश अश्क, पलास विश्वास और विनय बिहारी सिंह के बीचा आपसी संबोधन के लिए  'बाबा' संबोधन चलता था जो आज तक जारी है। (क्रमश:)

                                  

 

 

 

 

 

 

Thursday, November 21, 2024

एक निर्णय जिससे प्रभाष जोशी जी संतुष्ट नहीं थे

 आत्मकथा-70



समय के साथ साथ जनसत्ता की लोकप्रियता भी बढ़ती गयी। यह अखबार औरों से अलग और असरदार साबित हो रहा था क्योंकि इसके शीर्ष स्थान पर प्रभाष जोशी जैसे सक्षम, सार्थक और सशक्त प्रमुख संपादक बैठे थे। उनकी नजर जनसत्ता के हर एडीशन  पर रहती थी। बीच बीच में वे कोलकाता आते और संपादकीय टीम से मीटिंग अवश्य करते थे। ऐसी हर मीटिंग में वे एक एक सदस्य से बात करतें और आवश्यक निर्देश भी देते थे।

 हमारे साथ प्रभात रंजन दीन थे  जो ऐसी ऐसी खबरें जाने कहां से खोद कर लाते थे जो दूसरे अखबारों में नहीं मिलती थीं। कई खबरें तो चौंकानवाली होती थीं। स्वभाव से भी आला खुशमिजाज प्रभात की रिपोर्ट चुस्त दुरुस्त होती थीं। उनकी हर रिपोर्ट चर्चा का विषय बनती थी। कभी कभी तो कोई खबर जनसत्ता में ही होती थी।

 मुख्य़ संवाददाता गंगा प्रसाद  थे जिनके निर्देशन पर रिपोर्टर और स्ट्रिंगर काम करते थे।

कुछ अरसा बाद हावड़ा के समाचारों का समावेश भी जनतत्ता में होने लगा इसका जिम्मा आनंद पांडेय ने संभाला जो वेषभूषा और आचार विचार में पत्रकार कम साधु ज्यादा लगते थे। हावड़ा ऐसा जिला है जहां खबरें खोजनी वहीं पड़तीं रोज ही कुछ ना कुछ घटता रहता जो खबर बनता है।

 ओमप्रकाश अश्क के जिम्मे व्यवसाय पृष्ठ था। उनकी सहायता के लिए प्रमोद मल्लिक थे।

खेल पेज का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया था। गोरे चिट्टे फजल भाई पत्रकार कम फिल्म कलाकार ज्यादा लगते थे। मैं जनसत्ता में फिल्म पेज देखता था। अक्सर फिल्मों से जुड़े प्राय: हर इवेंट में मुझे जाना पड़ता था। हमारे अखबार जनसत्ता में बांग्ला फिल्मों से जुड़ी खबरे भी प्रकाशित होती थीं। मुझे स्टूडियो कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था और फिल्मों के प्रीमियर शो में भी। ऐसे ही एक बार सुधीर बोकाड़े अपनी किसी फिल्म के प्रीमियर के लिए कोलकाता आये थे। संयोग से उस दिन उस हाल में जहां प्रीमियर हो रहा था मेरे साथ फजल भाई भी थे। मेंने मजाक में पूछा फजल भाई फिल्मों में काम करेंगे बोकाड़े जी से बात करें। फजल भाई मुसकरा कर रह गये। मैं उन्हें बोकाडे साहब के पास ले गया और बोला-बोकाडे जी यह हमारे पत्रकार मित्र हैं। नाटकों में अभिनय भी करते रहते हैं। क्या आपकी किसी फिल्म में उनको चांस मिल सकता है।

 बोकाडे जी ने कहा क्यों नहीं इन्हें कहिए हमें मुंबई में आकर मिलें।

जैसा कि मैंने बताया कि डेस्क में काम करने के अलावा मेरे जिम्मे फिल्म से जुड़े पक्ष की रिपोर्ट करने का जिम्मा भी था तो मुंबई से आये कलाकारों के इंटरव्यू, फिल्म समीक्षा और बांग्ला फिल्मों की शूटिंग के कवरेज का जिम्मा मुझ पर था। इसके लिए स्थानीय स्टूडियो और आउटडोर शूटिंग कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था। इसी क्रम में पहली बार मेरी भेंट मिठुन चक्रवर्ती से हुई। एक हिंदी फिल्म अभिनय के निर्माण की घोषणा हुई थी। मिठुन भी उसी सिलसिले में आये थे। इसी फिल्म में संवाद लेखन के लिए मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म के मित्र ब्रजेंद्र गौड भी आये थे। जब पता चला कि फिल्म बननी ही नहीं तो वे मुंबई को लौटने के लिए तैयारी करने लगे। भैया ने कहा –अब लौट रहे हैं तो एयरपोर्ट के रास्ते में हमारा घर है वहां से होते चलिए. गौड जी राजी हो गये। हमारे घर आये तो भैया रुक्म जी मिठाई लाने के लिए तैयार होने लगे। गौड जी उन्हें रोकते हुए रसोई घर में पहुंचे और मेरी पत्नी से बोले –बहू चीनी का डिब्बा कहां है। चीनी का डिब्बा पाते  ही उन्होंने एक चम्मच से थोड़ी चीनी निकाली और मुह में डालते हुए बोले-लो भाई हो गया मुंह मीठा अब मैं चलता हूं।

 फिल्म अभिनय जो मुहूर्त से आगे नहीं बढ़ी उसके गीत लिखने प्रसिद्ध गीतकार इंदीवर भी आये थे। उनका वास्तविक नाम श्यामलाल बाबू राय था इंदीवर उनका उपनाम था जिससे वे फिल्मी गीतकार कै रूप में मशहूर हुए। वे हमारे बुंदेलखंड के झांसी जिले के रहनेवाले थे। उनसे भेंट हुई तो फिल्मी गीतों के गिरते स्तर और फूहड़पन पर बात हुई। इस दौड़ में उनके जैसा समर्थ और सशक्त गीतकार भी शामिल हो गया था। उनके एक गीत झोपड़ी में चारपाई का जिक्र करते हुए पूछा-चंदन सा बदन चंचल चितवन के लेखक को इस घटिया स्तर पर उतरना पड़ा। इस पर उन्होंने उत्तर दिया-भाई साहब अब चंदन सा बदन जैसे गीत कोई नहीं लिखवाता अगर हम उनकी शर्तों में घटिया गीत ना लिखें तो भूखों मरना पड़ेगा। उनके इस कथन ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।

***

हमें काम करते हुए काफी समय बीत गया था। एक दिन की बात है हम सभी लोग काम कर रहे थे। कार्यालय में मेरे बैठने की पोजीशन कुछ ऐसी थी कि मेरी पीठ पीछे सारा विभाग बैठता था। मेरी बगल से नीचे से ऊपर आनेवाली सीढ़ियां गुजरती थीं। स्थिति यह थी कि अगर कोई सीढ़ियों से ऊपर की ओर आये तो मैं बायीं ओर मुड़े बगैर या आनेवाले के बोले बगैर नहीं जान सकता था कि नीचे से कौन ऊपर आया है।

 ऐसे ही एक दिन मुझे अपने कंधों पर किन्हीं के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ और एक गंभीर आवाज गूंजी –भाई हमारे राजेश जी के कंधों पर बहुत भार है।

 आवाज जानी पहचानी थी मैं उठ कर खड़ा हो गया। मुड़ कर देखा सामने प्रभाष जोशी जी थे। मैंने प्रणाम किया उन्होंने कुशल क्षेम पूछने के बाद कहा-बैठिए काम कीजिए।

प्रभाष जोशी जितनी बार आते संपादकीय टीम के साथ बैठक अवश्य करते थे। इस बार भी उसमें कोई व्यतिक्रम नहीं आया। अखबार की प्रगति के बारे मैं जानने के बाद वे इस विषय में आये कि कौन क्या कर रहा है। जब मेरा क्रम आया तो वे बोले-हमारे राजेश जी तो शिफ्ट अच्छी तरह संभाल रहे होंगे चूंकि जवाब संपादक श्यामसुंदर आचार्य दे रहे थे इसलिए मैं खामोश रहा। जवाब श्यामसुंदर जी की तरफ से ही आया-राजेश जी अभी एडिट पेज देख रहे हैं। हम सभी को आलराउंडर बना रहे हैं। मैंने प्रभाष जी का चेहरा पढ़ने की कोशिश की मुझे लगा कि उन्हें यह बदलाव अच्छा नहीं लगा लेकिन उन्होंने अपने बडप्पन के अनुसार इस विषय पर चुप रहना ही उचित समझा। प्रभाष जी ऐसे संपादक थे जो दिल्ली में रहते हुए भी अपने सभी एडीशनों पर निरंतर पैनी नजर रखते थे और समय समय पर जो आवश्यक हो निर्देश भी संपादकों को देते रहते थे। मुझसे शिफ्ट छिनने का मुझे कोई गम नहीं था क्योंकि मैं रात को समय से घर पहुंचने लगा था मेरे लिए परिवार वालों को अब आधी रात नींद में जागना नहीं पड़ता था। (क्रमश:)

 

Monday, November 11, 2024

नये तेवर, नये कलेवर से जनसत्ता ने जल्द पाठकों में पैठ बना ली

 आत्मकथा-69






होटल में हुए इंटरव्यू के अगले दिन हम प्रभाष जोशी जी के निर्देशानुसार जनसत्ता के कोलकाता कार्यालय पहुंचे।कोलकाता के बी के पाल एवेन्यू पहुंचे वह अखबार का कार्यालय कम मंदिर ज्यादा लगता था। वहां प्रवेश करते ही मंदिर के दर्शन होते थे। ज्यादा याद नहीं पर शायद वह राधा कृष्ण का मंदिर था नाम था कांचकामिनी दासी मंदिर। ऊपर का कमरा ऐसा था जहां दीवालों पर ऊपरी तरफ रंग बिरंगे कांच के पैनल से सजाया गया था। फर्श की सजावट भी बहुत अच्छी थी। यही हमारा जनसत्ता का कोलकाता कार्यालय बना। हम सबको अप्वाइंटमेंट लेटर मिल गया।

 दूसरे दिन से हम सब नियमित कार्यालय जाने लगे और अखबार निकालने का प्रारंभिक  कार्य प्रारंभ हुआ। हमारे समाचार संपादक बने अमित प्रकाश सिंह महान कवि त्रिलोचन शास्त्री (अब स्वर्गीय) के पुत्र। जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के संपादक बने श्यामसुंदर आचार्य जो राजस्थान से थे। जब सभी का परिचय संपादक कराया जा रहा था तो जब मेरी बारी आयी तो हमारे संपादक श्यामसुंदर आचार्य ने मेरी उपाधि त्रिपाठी सुनी तो बोले मैं पहले भी कोलकाता में था एक समाचार एजेंसी में काम करता था। उस समय एक पत्रकार मेरे मित्र थे आर के त्रिपाठी। हम लोग हिंद सिनेमा के पास के वेलिंग्टन स्क्वायर में साथ साथ मार्निंग वाक करते थे।

 मैंने कहा –मैं उन्हीं आर के त्रिपाठीरुक्म जी का भाई हूं। यह सुनने के बाद उन्होंने मुझसे घर का नंबर मांगा और भैया से बात की। परिचय का दौर समाप्त हुआ और दूसरे दिन से काम शुरू हो गया।

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किसी भी अखबार की पहले डमी निकाली जाती है। हम सभी कुछ दिन तक इसी काम में जुटे रहे। इसके बाद जब अखबार के पाठकों तक पहुंचाने का दिन करीब आया तो प्रभाष जोशी कोलकाता आये और उन्होंने सबके विभाग बांट दिये। हमारे साथी गंगाप्रसाद व प्रभात रंजन दीन को स्थानीय समाचारों के संकलन और चयन का जिम्मा सौंपा गया। खेल पृष्ठ का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया। अरविंद चतुर्वेद को साहित्य पक्ष सौंपा गया और उन्होंने ही जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग का संपादन किया। कृपाशंकर  चौबे भी जुड़े थे। इसमें स्थानीय आर्टिकल की प्राथमिकता रहती। इसमें मुझे भी लिखने का मौका मिला। सबरंग से विनय बिहारी सिंह भी जुड़े थे। हमारे साथ पलाश विश्वास.अनिल त्रिवेदी, शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव, मांधाता सिंह, अभिज्ञात हृदयनारायण सिंह,प्रमोद मल्लिक.अजय सिंह, कृष्णदास पार्थ आदि थे।


जनसत्ता में समाचार संपादक रहे अमित प्रकाश सिंह

 जब अखबार विधिवत निकलने लगा तो काम का बंटवारा भी हुआ। प्रभाष जोशी जी ने मुझे शिफ्ट इंचार्ज बना दिया। इसके चलते मुझे शिफ्ट संभालनी पड़ती और देर रात तकरीबन 2 बजे ही मैं घर लौट पाता। कुछ दिन बाद मैंने अपने समाचार संपादक अमित जी से कहा कि भाई साहब शिफ्ट इंचार्ज का काम किसी और को भी तो दिया जा सकता है। उन्होंने जो शब्द करे वे मुझे आज तक अक्षरश: याद हैं। वे अंग्रेजी में बोले-आई हैव सीन सम स्पार्क इन यू। अब इसके हाद भला मैं क्या कह पाता। मेरे समाचार संपादक को मेरे में संभावना नजर यह मेरे लिए गर्व और उत्साह बढ़ाने वाली बात थी।

  प्रभाष जोशी जैसे सुलझे हुए, सशक्त और निर्भीक पत्रकारिता के समर्थक संपादक के पथ प्रदर्शन में निकलने वाले अखबार जनसत्ता ने बहुत कम समय में ही रफ्तार पकड़ ली। पुरानी लीक पर चलते एक जैसे अखबारों के पाठकों को नये तेवर और नये कलेवर के अखबार ने कुछ दिन में ही अपना बना लिया। हालत यह थी कि शिफ्ट इंचार्ज बनने के चलते रात को मेरी घर वापसी दो बजे के बाद ही हो पाती थी। घर वालों को भी मेरे लिए उनींदी आंखों से दरवाजा खोलना पड़ता था।

 यहां यह भी बताते चलें कि मुख्य संवाददाता और नियमित रिपोर्टर के अलावा कुछ स्ट्रिंगर भी रखे गये थे जो जिलों की खबरें लाते थे। उन्हें उप संपादक संपादित कर छपने को देते थे। इसमें बहुत सावधान रहने की आवश्यकता थी। यह ध्यान रखना होता था कि खबर आधारहीन या झूठी तो नहीं है। कारण लिखने वाले तो जो सोचा  देखा लिख दिया यह उप संपादकों की जिम्मेदारी होती थी कि वे उसे अच्छी तरह जांच परख लें। जो स्ट्रिंगर है उसने अपनी समझ से खबर लिख दी वह आधारहीन और सुनी सुनायी बातों पर भी आधारित हो सकती है। अब अगर बिना जांचे परखे वह खबर छाप दी जाये तो उस झूठी खबर को लिखने वाले का जितना गुनाह नहीं उससे कहीं अधिक अखबार का होगा। अखबार में किसी खबर का छपना एक तरह से सच माना जाता है। जनसत्ता कार्यलय की ही एक सच्ची घटना का उल्लेख कर रहा हूं। जिले का एक स्ट्रिंगर  संवाददाता जिले में हुई एक लूटपाट की खबर लेकर आया। उसनें वह खबर हमारे संपादकीय विभाग के साथी डाक्टर मांधाता सिंह को संपादित करने को दी। खबर संपादित करते वक्त मांधाता जी ने उस स्ट्रिंगर से पूछा –आपने लिखा है कि लूटपाट के दौरान लुटेरों के हमले में एक महिला मारी गयी है। यह सच है ना कि एक महिला की मौत हुई है। इस पर स्ट्रिंगर की जवाब था-मरी तो नहीं पर हालत गंभीर है कल सुबह तक मर जायेगी।

 उसकी बात सुन कर मांधाता जी बोले और नहीं मरी तो हमारी बालत खराब  हो जायेगी। ऐसी स्थिति में हमेशा लिखिए गंभीर रूप से घायल। दुर्भाग्य से उसकी मृत्यु हो जाती है तब आप लिख सकते हैं डकैतों के हमले में गंभीर रूप से घायल महिला की मृत्यु। आप जैसी खबर लाये हैं वैसा ही छाप दें तो हमारी शामत आ जायेगी। यह जान लीजिए कि पत्रकारिता आसान नहीं आपको इसके सिद्धांतों और नियमों का सख्ती से पालन करना पड़ता है अन्यथा कभी भी मुश्किल आ सकती है।

यहां प्रभाष जोशी की उस सलाह का भी उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा जो वे अखबारों की भाषा के बारे में कहा करते थे-जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख। प्रभाष जी नये शब्द गढ़ते भी थे। उन्होंने आतंकवादियों के लिए नया शब्द गढ़ा था मरजीवड़े। वे कहते थे कि क्षेत्रीय भाषा के जो शब्द हिंदीभाषी लोगों में प्रचलित हैं वैसे शब्द प्रयोग कियेजा सकते हैं। वे उदाहरण देते थे बांग्ला में इस्तेमाल होने वालेदरकार शब्द का जो दरअसल उर्दू  शब्द है पर बांग्ला में धड़ल्ले से प्रयोग होता है। वे आवश्यकता की जगह दरकार का प्रयोग करने को बोलते थे। वे जब भी कोलकाता आते और संपादकीय टीम के साथ मीटिंग करते तो अक्सर संपादक से बोलते-आपके अखबार की सफलता का पैमाना यह है कि उसे श्रीमंतों के यहां शोपीस की तरह सजाये जाने की अपेक्षा एक रिक्शेवाले एक आमजन के हाथ में होना चाहिए।  (क्रमश:)।