आत्मकथा-69
होटल में हुए इंटरव्यू के अगले दिन हम प्रभाष जोशी जी के निर्देशानुसार जनसत्ता के कोलकाता कार्यालय पहुंचे।कोलकाता के बी के पाल एवेन्यू पहुंचे वह अखबार का कार्यालय कम मंदिर ज्यादा लगता था। वहां प्रवेश करते ही मंदिर के दर्शन होते थे। ज्यादा याद नहीं पर शायद वह राधा कृष्ण का मंदिर था नाम था कांचकामिनी दासी मंदिर। ऊपर का कमरा ऐसा था जहां दीवालों पर ऊपरी तरफ रंग बिरंगे कांच के पैनल से सजाया गया था। फर्श की सजावट भी बहुत अच्छी थी। यही हमारा जनसत्ता का कोलकाता कार्यालय बना। हम सबको अप्वाइंटमेंट लेटर मिल गया।
दूसरे
दिन से हम सब नियमित कार्यालय जाने लगे और अखबार निकालने का प्रारंभिक कार्य प्रारंभ हुआ। हमारे समाचार संपादक बने
अमित प्रकाश सिंह महान कवि त्रिलोचन शास्त्री (अब स्वर्गीय) के पुत्र। जनसत्ता के
कोलकाता संस्करण के संपादक बने श्यामसुंदर आचार्य जो राजस्थान से थे। जब सभी का
परिचय संपादक कराया जा रहा था तो जब मेरी बारी आयी तो हमारे संपादक श्यामसुंदर
आचार्य ने मेरी उपाधि त्रिपाठी सुनी तो बोले मैं पहले भी कोलकाता में था एक समाचार
एजेंसी में काम करता था। उस समय एक पत्रकार मेरे मित्र थे आर के त्रिपाठी। हम लोग
हिंद सिनेमा के पास के वेलिंग्टन स्क्वायर में साथ साथ मार्निंग वाक करते थे।
मैंने
कहा –मैं उन्हीं आर के त्रिपाठी ‘रुक्म’ जी का भाई हूं। यह सुनने के बाद उन्होंने मुझसे
घर का नंबर मांगा और भैया से बात की। परिचय का दौर समाप्त हुआ और दूसरे दिन से काम
शुरू हो गया।
***
किसी भी अखबार की पहले डमी निकाली जाती है। हम
सभी कुछ दिन तक इसी काम में जुटे रहे। इसके बाद जब अखबार के पाठकों तक पहुंचाने का
दिन करीब आया तो प्रभाष जोशी कोलकाता आये और उन्होंने सबके विभाग बांट दिये। हमारे
साथी गंगाप्रसाद व प्रभात रंजन दीन को स्थानीय समाचारों के संकलन और चयन का जिम्मा
सौंपा गया। खेल पृष्ठ का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया। अरविंद चतुर्वेद को
साहित्य पक्ष सौंपा गया और उन्होंने ही जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग का संपादन
किया। कृपाशंकर चौबे भी जुड़े थे। इसमें स्थानीय आर्टिकल की प्राथमिकता रहती। इसमें मुझे भी लिखने का मौका
मिला। सबरंग से विनय बिहारी सिंह भी जुड़े थे। हमारे साथ पलाश विश्वास.अनिल
त्रिवेदी, शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव, मांधाता सिंह, अभिज्ञात हृदयनारायण सिंह,प्रमोद
मल्लिक.अजय सिंह, कृष्णदास पार्थ आदि थे।
जनसत्ता में समाचार संपादक रहे अमित प्रकाश सिंह |
जब अखबार
विधिवत निकलने लगा तो काम का बंटवारा भी हुआ। प्रभाष जोशी जी ने मुझे शिफ्ट
इंचार्ज बना दिया। इसके चलते मुझे शिफ्ट संभालनी पड़ती और देर रात तकरीबन 2 बजे ही
मैं घर लौट पाता। कुछ दिन बाद मैंने अपने समाचार संपादक अमित जी से कहा कि भाई
साहब शिफ्ट इंचार्ज का काम किसी और को भी तो दिया जा सकता है। उन्होंने जो शब्द
करे वे मुझे आज तक अक्षरश: याद हैं। वे
अंग्रेजी में बोले-आई हैव सीन सम स्पार्क इन यू। अब इसके हाद भला मैं क्या कह
पाता। मेरे समाचार संपादक को मेरे में संभावना नजर यह मेरे लिए गर्व और उत्साह
बढ़ाने वाली बात थी।
प्रभाष
जोशी जैसे सुलझे हुए, सशक्त और निर्भीक पत्रकारिता के समर्थक संपादक के पथ
प्रदर्शन में निकलने वाले अखबार जनसत्ता ने बहुत कम समय में ही रफ्तार पकड़ ली।
पुरानी लीक पर चलते एक जैसे अखबारों के पाठकों को नये तेवर और नये कलेवर के अखबार
ने कुछ दिन में ही अपना बना लिया। हालत यह थी कि शिफ्ट इंचार्ज बनने के चलते रात
को मेरी घर वापसी दो बजे के बाद ही हो पाती थी। घर वालों को भी मेरे लिए उनींदी
आंखों से दरवाजा खोलना पड़ता था।
यहां यह
भी बताते चलें कि मुख्य संवाददाता और नियमित रिपोर्टर के अलावा कुछ स्ट्रिंगर भी
रखे गये थे जो जिलों की खबरें लाते थे। उन्हें उप संपादक संपादित कर छपने को देते
थे। इसमें बहुत सावधान रहने की आवश्यकता थी। यह ध्यान रखना होता था कि खबर आधारहीन
या झूठी तो नहीं है। कारण लिखने वाले तो जो सोचा
देखा लिख दिया यह उप संपादकों की जिम्मेदारी होती थी कि वे उसे अच्छी तरह
जांच परख लें। जो स्ट्रिंगर है उसने अपनी समझ से खबर लिख दी वह आधारहीन और सुनी
सुनायी बातों पर भी आधारित हो सकती है। अब अगर बिना जांचे परखे वह खबर छाप दी जाये
तो उस झूठी खबर को लिखने वाले का जितना गुनाह नहीं उससे कहीं अधिक अखबार का होगा।
अखबार में किसी खबर का छपना एक तरह से सच माना जाता है। जनसत्ता कार्यलय की ही एक
सच्ची घटना का उल्लेख कर रहा हूं। जिले का एक स्ट्रिंगर संवाददाता जिले में हुई एक लूटपाट की खबर लेकर
आया। उसनें वह खबर हमारे संपादकीय विभाग के साथी डाक्टर मांधाता सिंह को संपादित
करने को दी। खबर संपादित करते वक्त मांधाता जी ने उस स्ट्रिंगर से पूछा –आपने लिखा
है कि लूटपाट के दौरान लुटेरों के हमले में एक महिला मारी गयी है। यह सच है ना कि
एक महिला की मौत हुई है। इस पर स्ट्रिंगर की जवाब था-मरी तो नहीं पर हालत गंभीर है
कल सुबह तक मर जायेगी।
उसकी बात
सुन कर मांधाता जी बोले और नहीं मरी तो हमारी बालत खराब हो जायेगी। ऐसी स्थिति में हमेशा लिखिए ‘गंभीर रूप से घायल’। दुर्भाग्य से उसकी मृत्यु हो जाती है तब आप लिख
सकते हैं ‘डकैतों के हमले में गंभीर रूप से घायल महिला की
मृत्यु’। आप जैसी खबर लाये हैं वैसा ही छाप दें तो हमारी
शामत आ जायेगी। यह जान लीजिए कि पत्रकारिता आसान नहीं आपको इसके सिद्धांतों और
नियमों का सख्ती से पालन करना पड़ता है अन्यथा कभी भी मुश्किल आ सकती है।
यहां प्रभाष जोशी की उस सलाह का भी उल्लेख करना
अप्रासंगिक नहीं होगा जो वे अखबारों की भाषा के बारे में कहा करते थे-जिस तरह तू
बोलता है उस तरह तू लिख। प्रभाष जी नये शब्द गढ़ते भी थे। उन्होंने आतंकवादियों के
लिए नया शब्द गढ़ा था ‘मरजीवड़े’। वे कहते थे कि क्षेत्रीय भाषा के जो शब्द
हिंदीभाषी लोगों में प्रचलित हैं वैसे शब्द प्रयोग कियेजा सकते हैं। वे उदाहरण
देते थे बांग्ला में इस्तेमाल होने वाले ‘दरकार’ शब्द का जो दरअसल उर्दू शब्द है पर बांग्ला में धड़ल्ले से प्रयोग होता
है। वे आवश्यकता की जगह दरकार का प्रयोग करने को बोलते थे। वे जब भी कोलकाता आते
और संपादकीय टीम के साथ मीटिंग करते तो अक्सर संपादक से बोलते-आपके अखबार की सफलता
का पैमाना यह है कि उसे श्रीमंतों के यहां शोपीस की तरह सजाये जाने की अपेक्षा एक
रिक्शेवाले एक आमजन के हाथ में होना चाहिए।
(क्रमश:)।