इस पर एक पुलिस अधिकारी ने कहा- आप जाइए वे आपका ही इंतजार कर रहे
हैं।
फिर उन्होंने मुझसे पूछा –देखिए कुछ फर्क पड़ा है क्या।
मिठुन चक्रवर्ती का इंटरव्यू लेते हुए
जनसत्ता दिनों दिन प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। जनसत्ता ने पाठकों में अपनी धाक जमा ली थी। समाचारों पर अच्छी पकड़, जनता से सरोकार रखनेवाले मुद्दों को प्रमुखता से स्थान देने के कदम ने इस समाचार पत्र को जन जन तक पहुंचा दिया था।
राज्य के
कोने कोने से खबर लाने वाले स्ट्रिंगरों की बदौलत इसमें सभी क्षेत्रों का समावेश
होता था। पाठकों में इसकी विश्वसनीयता भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। खतरनाक
स्थितियों से भी हमारे लोग समाचार संग्रह से नहीं चूकते थे। इस बारे में एक घटना
याद आती है। कोलकाता के पासवर्ती एक उपनगर में किसी धार्मिक मामले को लेकर अच्छा
खासा विवाद उठ खड़ा हुआ था। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि उसे नियंत्रित करने के लिए
पुलिस को बुलाना पड़ा। इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए हमारे एक साथी अभिज्ञात जी को
भेजा गया। वहां की भीड़भाड़ और हंगामे के बीच हमारे साथी अभिज्ञात भी फंस गये।
वहां उपस्थित पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज शुरू कर दिया और
लाठीचार्ज में हमारे भाई अभिज्ञात जी बुरी तरह से पिट गये उनकी उंगलियां टूट गयीं
थी।
इस घटना का उल्लेख इसलिए किया ताकि यह पता चल सके कि जनसत्ता से जुड़े
लोग कार्य के प्रति कितने समर्पित थे। इसी तरह की एक घटना और याद आती है जब
सांप्रद्रायिक तनाव के बारे में रिपोर्ट के वक्त जनसत्ता के धाकड़ और साहसी पत्रकार
प्रभात रंजन दीन फंस गये। बाकी पत्रकार उग्र भीड़ के पास जाने का साहस नहीं कर पा
रहे थे और वे प्रभात रंजन दीन को भी आगाह कर रहे थे वहां जाना खतरनाक है लेकिन वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित पत्रकार हैं और उन्होंने रिर्पोटिंग का अपना पूरा
काम किये बगैर वह जगह नहीं छोड़ी।
उदाहरण तो कई हैं लेकिन कुछ उदाहरण दिये ताकि
जनसत्ता की टीम की अपने कार्य के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता का पता चल सके। ऐसे
कई दृष्टांत हैं। यही वजह है कि स्थानीय या राष्ट्रीय खबरों को प्रमुखता से
प्रस्तुत करने में जनसत्ता सदा आगे रहा।
यह बात जनसत्ता के नयी दिल्ली, चंडीगढ मुंबई और कोलकाता सभी संस्करणों में
प्रमुखता से परिलक्षित होती थी।
अब उस घटना के जिक्र पर आते हैं जिसके चलते कुछ पल
के लिए हम सब लोगों की जान सांसत में फंस गयी थी। बीके पाल एवेन्यू में जिस मंदिर
वाले मकान में जनसत्ता का कार्यालय था उसमें दरवाजे से प्रवेश करते ही दायीं तरफ
कई ट्रांसफार्मर थे। जब यह दुर्घटना हुई
उन दिनों काली पूजा चल रही थी। हमारे कार्यालय के बगल में भी कालीपूजा का पंडाल
था।
हम लोग काम
कर ही रहे थे तभी नीचे से कोई चिल्लाया-ट्रांसफार्मर फट गया है तेजी से काला धुआ पूरी बिल्डिंग में फैल रहा है। सभी लोग बाहर
निकल आयें। कुछ लोग तो नाक में रूमाल दबा कर बाहर निकल गये। न्यूज डेस्क के प्रमुख
गंगा प्रसाद बिल्डिंग के पास के बरगद की डाल पकड़ कर किसी तरह से नीचे उतर गये।
ऊपर मैं और ओमप्रकाश अश्क रह गये। हम जब तक सीढ़ियां उतर कर आते तब सीढ़ियां और
मंदिर के सामने का हिस्सा काले धुएं में डूब गया था हमारे सामने काले धुएं में दम
घुटने का कष्ट झेलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हमने खिड़की से नीचे चिल्लाना
शुरु किया-ए दिके जानलाय मोई लगान आमरा फेंसे गियेछि अर्थात इधर नसेनी लगाइए हम
लोग ऊपर फंसे हुए हैं। यह हमरा सौभाग्य है कि नीचे लोगों ने हमारी बात सुन ली।
कालीपूजा का पंडाल बनाने के लिए नसेनी लायी गयी थी वही लेकर लोगों ने खिड़की की
तरफ लगा दी और जोर से चिल्लाये आप लोग नीचे उतरिए हम लोग मोई यानी नसेनी पकड़े हुए
हैं। ओमप्रकाश अश्क और मैंने जूते पहने और
खिड़की के कांच पर कई बार प्रहार किया। कुछ देर में खिड़की का कांच टूट गया और मैं
मेरे पीछे ओमप्रकाश अश्क धीरे धीरे नीचे उतर गये। जब हमारे कदम धरती पर पड़े तब कहीं हमारी जान में जान आयी। नीचे
ख़ड़े हमारे साथी भी हमारे लिए चिंतित थे। हमें सुरक्षित देख वे भी चिंतामुक्त
हुए।
दूसरे
दिन जब हम लोग वापस पहुंचे तो जिन
खिड़कियों को तोड़ कर हम निकले थे उन्हें देख कर ओमप्रकाश अश्क बोले- बाबा क्या डर में आदमी
पतला हो जाता है। इस संकरी खिड़की से हम लोग कैसे निकल गये। यहां स्पष्ट कर दूं कि
मेरे ओमप्रकाश अश्क, पलास विश्वास और विनय बिहारी सिंह के बीचा आपसी संबोधन के
लिए 'बाबा' संबोधन चलता था जो आज तक जारी
है। (क्रमश:)
आत्मकथा-70
समय के साथ साथ जनसत्ता की लोकप्रियता भी बढ़ती गयी। यह अखबार औरों से
अलग और असरदार साबित हो रहा था क्योंकि इसके शीर्ष स्थान पर प्रभाष जोशी जैसे
सक्षम, सार्थक और सशक्त प्रमुख संपादक बैठे थे। उनकी नजर जनसत्ता के हर एडीशन पर रहती थी। बीच बीच में वे कोलकाता आते और
संपादकीय टीम से मीटिंग अवश्य करते थे। ऐसी हर मीटिंग में वे एक एक सदस्य से बात
करतें और आवश्यक निर्देश भी देते थे।
हमारे साथ प्रभात रंजन दीन थे
जो ऐसी ऐसी खबरें जाने कहां से खोद कर
लाते थे जो दूसरे अखबारों में नहीं मिलती थीं। कई खबरें तो चौंकानवाली होती
थीं। स्वभाव से भी आला खुशमिजाज प्रभात की रिपोर्ट चुस्त दुरुस्त होती थीं। उनकी हर
रिपोर्ट चर्चा का विषय बनती थी। कभी कभी तो कोई खबर जनसत्ता में ही होती थी।
मुख्य़ संवाददाता गंगा
प्रसाद थे जिनके निर्देशन पर रिपोर्टर और
स्ट्रिंगर काम करते थे।
कुछ अरसा बाद हावड़ा के समाचारों का समावेश भी जनतत्ता में होने लगा
इसका जिम्मा आनंद पांडेय ने संभाला जो वेषभूषा और आचार विचार में पत्रकार कम साधु
ज्यादा लगते थे। हावड़ा ऐसा जिला है जहां खबरें खोजनी वहीं पड़तीं रोज ही कुछ ना
कुछ घटता रहता जो खबर बनता है।
ओमप्रकाश अश्क के जिम्मे
व्यवसाय पृष्ठ था। उनकी सहायता के लिए प्रमोद मल्लिक थे।
खेल पेज का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया था। गोरे चिट्टे फजल
भाई पत्रकार कम फिल्म कलाकार ज्यादा लगते थे। मैं जनसत्ता में फिल्म पेज देखता था।
अक्सर फिल्मों से जुड़े प्राय: हर इवेंट में मुझे
जाना पड़ता था। हमारे अखबार जनसत्ता में बांग्ला फिल्मों से जुड़ी खबरे भी
प्रकाशित होती थीं। मुझे स्टूडियो कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था और फिल्मों के
प्रीमियर शो में भी। ऐसे ही एक बार सुधीर बोकाड़े अपनी किसी फिल्म के प्रीमियर के
लिए कोलकाता आये थे। संयोग से उस दिन उस हाल में जहां प्रीमियर हो रहा था मेरे साथ
फजल भाई भी थे। मेंने मजाक में पूछा फजल भाई फिल्मों में काम करेंगे बोकाड़े जी से
बात करें। फजल भाई मुसकरा कर रह गये। मैं उन्हें बोकाडे साहब के पास ले गया और
बोला-बोकाडे जी यह हमारे पत्रकार मित्र हैं। नाटकों में अभिनय भी करते रहते हैं।
क्या आपकी किसी फिल्म में उनको चांस मिल सकता है।
बोकाडे जी ने कहा क्यों नहीं
इन्हें कहिए हमें मुंबई में आकर मिलें।
जैसा कि मैंने बताया कि डेस्क में काम करने के अलावा मेरे जिम्मे
फिल्म से जुड़े पक्ष की रिपोर्ट करने का जिम्मा भी था तो मुंबई से आये कलाकारों के
इंटरव्यू, फिल्म समीक्षा और बांग्ला फिल्मों की शूटिंग के कवरेज का जिम्मा मुझ पर
था। इसके लिए स्थानीय स्टूडियो और आउटडोर शूटिंग कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था।
इसी क्रम में पहली बार मेरी भेंट मिठुन चक्रवर्ती से हुई। एक हिंदी फिल्म ‘अभिनय’ के निर्माण की
घोषणा हुई थी। मिठुन भी उसी सिलसिले में आये थे। इसी फिल्म में संवाद लेखन के लिए
मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ के मित्र ब्रजेंद्र गौड भी आये थे। जब पता चला
कि फिल्म बननी ही नहीं तो वे मुंबई को लौटने के लिए तैयारी करने लगे। भैया ने कहा –अब
लौट रहे हैं तो एयरपोर्ट के रास्ते में हमारा घर है वहां से होते चलिए. गौड जी
राजी हो गये। हमारे घर आये तो भैया रुक्म जी मिठाई लाने के लिए तैयार होने लगे।
गौड जी उन्हें रोकते हुए रसोई घर में पहुंचे और मेरी पत्नी से बोले –बहू चीनी का
डिब्बा कहां है। चीनी का डिब्बा पाते ही
उन्होंने एक चम्मच से थोड़ी चीनी निकाली और मुह में डालते हुए बोले-लो भाई हो गया
मुंह मीठा अब मैं चलता हूं।
फिल्म अभिनय जो मुहूर्त से
आगे नहीं बढ़ी उसके गीत लिखने प्रसिद्ध गीतकार इंदीवर भी आये थे। उनका वास्तविक
नाम श्यामलाल बाबू राय था इंदीवर उनका उपनाम था जिससे वे फिल्मी गीतकार कै रूप में
मशहूर हुए। वे हमारे बुंदेलखंड के झांसी जिले के रहनेवाले थे। उनसे भेंट हुई तो
फिल्मी गीतों के गिरते स्तर और फूहड़पन पर बात हुई। इस दौड़ में उनके जैसा समर्थ
और सशक्त गीतकार भी शामिल हो गया था। उनके एक गीत ‘झोपड़ी
में चारपाई’ का जिक्र करते हुए पूछा-चंदन सा बदन चंचल चितवन
के लेखक को इस घटिया स्तर पर उतरना पड़ा। इस पर उन्होंने उत्तर दिया-भाई साहब अब
चंदन सा बदन जैसे गीत कोई नहीं लिखवाता अगर हम उनकी शर्तों में घटिया गीत ना लिखें
तो भूखों मरना पड़ेगा। उनके इस कथन ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।
***
हमें काम करते हुए काफी समय बीत गया था। एक दिन की बात है हम सभी लोग
काम कर रहे थे। कार्यालय में मेरे बैठने की पोजीशन कुछ ऐसी थी कि मेरी पीठ पीछे
सारा विभाग बैठता था। मेरी बगल से नीचे से ऊपर आनेवाली सीढ़ियां गुजरती थीं।
स्थिति यह थी कि अगर कोई सीढ़ियों से ऊपर की ओर आये तो मैं बायीं ओर मुड़े बगैर या
आनेवाले के बोले बगैर नहीं जान सकता था कि नीचे से कौन ऊपर आया है।
ऐसे ही एक दिन मुझे अपने
कंधों पर किन्हीं के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ और एक गंभीर आवाज गूंजी –भाई हमारे
राजेश जी के कंधों पर बहुत भार है।
आवाज जानी पहचानी थी मैं उठ
कर खड़ा हो गया। मुड़ कर देखा सामने प्रभाष जोशी जी थे। मैंने प्रणाम किया
उन्होंने कुशल क्षेम पूछने के बाद कहा-बैठिए काम कीजिए।
प्रभाष जोशी जितनी बार आते संपादकीय टीम के साथ बैठक अवश्य करते थे।
इस बार भी उसमें कोई व्यतिक्रम नहीं आया। अखबार की प्रगति के बारे मैं जानने के
बाद वे इस विषय में आये कि कौन क्या कर रहा है। जब मेरा क्रम आया तो वे बोले-हमारे
राजेश जी तो शिफ्ट अच्छी तरह संभाल रहे होंगे चूंकि जवाब संपादक श्यामसुंदर आचार्य
दे रहे थे इसलिए मैं खामोश रहा। जवाब श्यामसुंदर जी की तरफ से ही आया-राजेश जी अभी
एडिट पेज देख रहे हैं। हम सभी को आलराउंडर बना रहे हैं। मैंने प्रभाष जी का चेहरा
पढ़ने की कोशिश की मुझे लगा कि उन्हें यह बदलाव अच्छा नहीं लगा लेकिन उन्होंने अपने
बडप्पन के अनुसार इस विषय पर चुप रहना ही उचित समझा। प्रभाष जी ऐसे संपादक थे जो
दिल्ली में रहते हुए भी अपने सभी एडीशनों पर निरंतर पैनी नजर रखते थे और समय समय
पर जो आवश्यक हो निर्देश भी संपादकों को देते रहते थे। मुझसे शिफ्ट छिनने का मुझे
कोई गम नहीं था क्योंकि मैं रात को समय से घर पहुंचने लगा था मेरे लिए परिवार
वालों को अब आधी रात नींद में जागना नहीं पड़ता था। (क्रमश:)
आत्मकथा-69
होटल में हुए इंटरव्यू के अगले दिन हम प्रभाष जोशी जी के निर्देशानुसार जनसत्ता के कोलकाता कार्यालय पहुंचे।कोलकाता के बी के पाल एवेन्यू पहुंचे वह अखबार का कार्यालय कम मंदिर ज्यादा लगता था। वहां प्रवेश करते ही मंदिर के दर्शन होते थे। ज्यादा याद नहीं पर शायद वह राधा कृष्ण का मंदिर था नाम था कांचकामिनी दासी मंदिर। ऊपर का कमरा ऐसा था जहां दीवालों पर ऊपरी तरफ रंग बिरंगे कांच के पैनल से सजाया गया था। फर्श की सजावट भी बहुत अच्छी थी। यही हमारा जनसत्ता का कोलकाता कार्यालय बना। हम सबको अप्वाइंटमेंट लेटर मिल गया।
दूसरे
दिन से हम सब नियमित कार्यालय जाने लगे और अखबार निकालने का प्रारंभिक कार्य प्रारंभ हुआ। हमारे समाचार संपादक बने
अमित प्रकाश सिंह महान कवि त्रिलोचन शास्त्री (अब स्वर्गीय) के पुत्र। जनसत्ता के
कोलकाता संस्करण के संपादक बने श्यामसुंदर आचार्य जो राजस्थान से थे। जब सभी का
परिचय संपादक कराया जा रहा था तो जब मेरी बारी आयी तो हमारे संपादक श्यामसुंदर
आचार्य ने मेरी उपाधि त्रिपाठी सुनी तो बोले मैं पहले भी कोलकाता में था एक समाचार
एजेंसी में काम करता था। उस समय एक पत्रकार मेरे मित्र थे आर के त्रिपाठी। हम लोग
हिंद सिनेमा के पास के वेलिंग्टन स्क्वायर में साथ साथ मार्निंग वाक करते थे।
मैंने
कहा –मैं उन्हीं आर के त्रिपाठी ‘रुक्म’ जी का भाई हूं। यह सुनने के बाद उन्होंने मुझसे
घर का नंबर मांगा और भैया से बात की। परिचय का दौर समाप्त हुआ और दूसरे दिन से काम
शुरू हो गया।
***
किसी भी अखबार की पहले डमी निकाली जाती है। हम
सभी कुछ दिन तक इसी काम में जुटे रहे। इसके बाद जब अखबार के पाठकों तक पहुंचाने का
दिन करीब आया तो प्रभाष जोशी कोलकाता आये और उन्होंने सबके विभाग बांट दिये। हमारे
साथी गंगाप्रसाद व प्रभात रंजन दीन को स्थानीय समाचारों के संकलन और चयन का जिम्मा
सौंपा गया। खेल पृष्ठ का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया। अरविंद चतुर्वेद को
साहित्य पक्ष सौंपा गया और उन्होंने ही जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग का संपादन
किया। कृपाशंकर चौबे भी जुड़े थे। इसमें स्थानीय आर्टिकल की प्राथमिकता रहती। इसमें मुझे भी लिखने का मौका
मिला। सबरंग से विनय बिहारी सिंह भी जुड़े थे। हमारे साथ पलाश विश्वास.अनिल
त्रिवेदी, शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव, मांधाता सिंह, अभिज्ञात हृदयनारायण सिंह,प्रमोद
मल्लिक.अजय सिंह, कृष्णदास पार्थ आदि थे।
जनसत्ता में समाचार संपादक रहे अमित प्रकाश सिंह |
जब अखबार
विधिवत निकलने लगा तो काम का बंटवारा भी हुआ। प्रभाष जोशी जी ने मुझे शिफ्ट
इंचार्ज बना दिया। इसके चलते मुझे शिफ्ट संभालनी पड़ती और देर रात तकरीबन 2 बजे ही
मैं घर लौट पाता। कुछ दिन बाद मैंने अपने समाचार संपादक अमित जी से कहा कि भाई
साहब शिफ्ट इंचार्ज का काम किसी और को भी तो दिया जा सकता है। उन्होंने जो शब्द
करे वे मुझे आज तक अक्षरश: याद हैं। वे
अंग्रेजी में बोले-आई हैव सीन सम स्पार्क इन यू। अब इसके हाद भला मैं क्या कह
पाता। मेरे समाचार संपादक को मेरे में संभावना नजर यह मेरे लिए गर्व और उत्साह
बढ़ाने वाली बात थी।
प्रभाष
जोशी जैसे सुलझे हुए, सशक्त और निर्भीक पत्रकारिता के समर्थक संपादक के पथ
प्रदर्शन में निकलने वाले अखबार जनसत्ता ने बहुत कम समय में ही रफ्तार पकड़ ली।
पुरानी लीक पर चलते एक जैसे अखबारों के पाठकों को नये तेवर और नये कलेवर के अखबार
ने कुछ दिन में ही अपना बना लिया। हालत यह थी कि शिफ्ट इंचार्ज बनने के चलते रात
को मेरी घर वापसी दो बजे के बाद ही हो पाती थी। घर वालों को भी मेरे लिए उनींदी
आंखों से दरवाजा खोलना पड़ता था।
यहां यह
भी बताते चलें कि मुख्य संवाददाता और नियमित रिपोर्टर के अलावा कुछ स्ट्रिंगर भी
रखे गये थे जो जिलों की खबरें लाते थे। उन्हें उप संपादक संपादित कर छपने को देते
थे। इसमें बहुत सावधान रहने की आवश्यकता थी। यह ध्यान रखना होता था कि खबर आधारहीन
या झूठी तो नहीं है। कारण लिखने वाले तो जो सोचा
देखा लिख दिया यह उप संपादकों की जिम्मेदारी होती थी कि वे उसे अच्छी तरह
जांच परख लें। जो स्ट्रिंगर है उसने अपनी समझ से खबर लिख दी वह आधारहीन और सुनी
सुनायी बातों पर भी आधारित हो सकती है। अब अगर बिना जांचे परखे वह खबर छाप दी जाये
तो उस झूठी खबर को लिखने वाले का जितना गुनाह नहीं उससे कहीं अधिक अखबार का होगा।
अखबार में किसी खबर का छपना एक तरह से सच माना जाता है। जनसत्ता कार्यलय की ही एक
सच्ची घटना का उल्लेख कर रहा हूं। जिले का एक स्ट्रिंगर संवाददाता जिले में हुई एक लूटपाट की खबर लेकर
आया। उसनें वह खबर हमारे संपादकीय विभाग के साथी डाक्टर मांधाता सिंह को संपादित
करने को दी। खबर संपादित करते वक्त मांधाता जी ने उस स्ट्रिंगर से पूछा –आपने लिखा
है कि लूटपाट के दौरान लुटेरों के हमले में एक महिला मारी गयी है। यह सच है ना कि
एक महिला की मौत हुई है। इस पर स्ट्रिंगर की जवाब था-मरी तो नहीं पर हालत गंभीर है
कल सुबह तक मर जायेगी।
उसकी बात
सुन कर मांधाता जी बोले और नहीं मरी तो हमारी बालत खराब हो जायेगी। ऐसी स्थिति में हमेशा लिखिए ‘गंभीर रूप से घायल’। दुर्भाग्य से उसकी मृत्यु हो जाती है तब आप लिख
सकते हैं ‘डकैतों के हमले में गंभीर रूप से घायल महिला की
मृत्यु’। आप जैसी खबर लाये हैं वैसा ही छाप दें तो हमारी
शामत आ जायेगी। यह जान लीजिए कि पत्रकारिता आसान नहीं आपको इसके सिद्धांतों और
नियमों का सख्ती से पालन करना पड़ता है अन्यथा कभी भी मुश्किल आ सकती है।
यहां प्रभाष जोशी की उस सलाह का भी उल्लेख करना
अप्रासंगिक नहीं होगा जो वे अखबारों की भाषा के बारे में कहा करते थे-जिस तरह तू
बोलता है उस तरह तू लिख। प्रभाष जी नये शब्द गढ़ते भी थे। उन्होंने आतंकवादियों के
लिए नया शब्द गढ़ा था ‘मरजीवड़े’। वे कहते थे कि क्षेत्रीय भाषा के जो शब्द
हिंदीभाषी लोगों में प्रचलित हैं वैसे शब्द प्रयोग कियेजा सकते हैं। वे उदाहरण
देते थे बांग्ला में इस्तेमाल होने वाले ‘दरकार’ शब्द का जो दरअसल उर्दू शब्द है पर बांग्ला में धड़ल्ले से प्रयोग होता
है। वे आवश्यकता की जगह दरकार का प्रयोग करने को बोलते थे। वे जब भी कोलकाता आते
और संपादकीय टीम के साथ मीटिंग करते तो अक्सर संपादक से बोलते-आपके अखबार की सफलता
का पैमाना यह है कि उसे श्रीमंतों के यहां शोपीस की तरह सजाये जाने की अपेक्षा एक
रिक्शेवाले एक आमजन के हाथ में होना चाहिए।
(क्रमश:)।